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जम्बूस्वामी चरित्र ही कोई शुभ या अशुभ कर्मों का उदय आगया। कर्मके तीव्र उदयको तीर्थकर भी निवारण नहीं कर सक्ते। जैसे स्फटिकमणि स्वभावसे स्वच्छ है तो भी रक्त पीत मादि उपाधिके बलसे रक्त पीत मादि रंगझे भावको प्राप्त होजाती है वैसे ही यह जीव स्वभावसे चैतन्यमई है व अतीन्द्रिय सुखका धारी है । संसारमें रहता हुभा मौके उदयसे छाइंकार मादि नाना भावोंमें परिणमन कर जाता
जानतापि मयाकारि हिंसाकर्म महत्तरम् । तत्केवलं प्रमादाद्वा यद्वेच्छता यशश्चयम् ।। १८ ।। प्राणान्तेऽपि न हंतव्यः प्राणी कश्चिदिति श्रुतिः। मया चाष्टसहस्रास्ते हता निर्दयचेतसा ॥ १९ ॥ आफलोदयमेवैतत्कृतं कर्म शुभाशुभम् । शक्यते नान्यथा कर्तुमातीर्थाधिपतीनपि ॥ २०॥ यत्स्फाटिको मणिः स्वच्छ, स्वभावादिति भावतः । सोऽप्युपाधिषलादेव रक्तपीतादिकां व्रजेत् ॥ २१॥ तथ.यं चित्स्वभावोऽपि जीवोऽतीन्द्रियसौख्यवान् । धत्ते मानादिनानात्वमुदयादिह कर्मणाम् ॥ २२॥
(नोट-सम्बहिष्टी गृहस्थका ऐसा ही भाव रहता है। वह कषायोंको न रोक सकने के कारण गृहस्थ सम्बन्धी सब काम युद्धादि करता है, परन्तु अपनी निन्दा गर्दा किया करता है। कर्मकी तीव्र प्रेरणासे काम करता है। भापको स्वभावसे अकर्ता व अभोक्ता ही समझता है।)
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