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जम्बूस्वामी चरित्र
फलके समान हैं - सेवते अच्छे लगते हैं, परन्तु इनका फल कडुवा है । ऐसा होनेपर भी यह बड़े आश्चर्य की बात है कि बड़े बड़े ज्ञानी भी इन विषयोंका सेवन करते हैं ।
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वास्तव में यह मोहरूपी पिशाच बड़ा भयंकर है, महान पुरुषों को भी इससे पीछा छुड़ाना कठिन है । इम मोहके उदयसे यह प्राणी परको अपना माना करता है । जैसे मृग जंगलमें मरीचिका ( चमकती हुई घास या वाल ) को जल समझकर पानी पीने के लिये दौडते हैं, जल न पाकर अधिक तृषातुर हो जाते हैं, वैसे मोही प्राणी अज्ञान से विषयों से सुख होगा ऐसा जानकर विषयोंको भोगनेके लिये दौड़ते हैं, परन्तु अधिक तापको बढ़ा लेते हैं । जो मिथ्यात्व अंधकार से अंध हैं, वे ही इन्द्रियोंके विषयोंसे सुख मानते हैं । जैसे कोई अग्निको ठंडा करने के लिये शीघ्र ईंधन डाल दे वैसे ही मज्ञानी तृष्णाकी दाहको शमन के लिये विषयोंके सामने जाता है, उल्टा अधिक तृष्णाको बढ़ा लेता है । उस चतुराईको धिक्कार हो जो दूसरोंको तो उपदेश करे व अपने आत्माके हितका नाश करे । उस से क्या काम, जिसके होते हुए भी गड्ढे में गिर पड़े। उस ज्ञानसे भी क्या जो ज्ञानी होकर विषयोंके भीतर पड़ जावे ।
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अहो ! मैं भी तो ज्ञानी हूं, मुझ ज्ञानीने भी प्रमादके वश डोकर यश पाने की इच्छा से घोर हिंसाकर्म कर डाला | शास्त्र कहता है कि अपने प्राण जानेपर भी किसी प्राणीकी हिंसा न करनी चाहिये । मुझ निर्दयीने तो माठ हजार योद्धामको मारा है । वास्तव में ऐसा १२६