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तृतिय भाग।
(१७३)
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राम-(जलकार कर) ठहरो, यदि जनकको हाथ लगाया तो समझ लेना कि यह हाथ शरीर से जुदा होजायेंगे । लक्ष्मण तुम जनक को सचेत करो (लक्षमण जनक को उठा ले जाते हैं । फिर आजाते हैं।)
मलेन-ओ दुध मुंहे बच्चे, जा अपनी मां की गोद में खेत । रण में खेलना तेरे जैसों का काम नहीं है। यदि एक भी वाण लग गया तो तेरी मां निपूती कहलायगी । राम-बच्चा नहीं मैं काल , हूं प्राण हरने के लिये ।
आया हूं मैं रण क्षेत्र में, बस युद्ध करने के लिये ।। हैं प्राण प्यारे गर तुम्हें, तो भाग जाओ देश को। .
तन से तुम कर दो अन्नग, इस वोरता के भेष को । लक्ष्मण-समझो नहूं जंगली पशु, बन जाऊंगा तेरा शिकार ।
बाणों से तुमको छेदकर, दूंगा बहा मैं रक्तचार ।। बालक के आगे सरं झुकाने से प्रथम जाओ चले ।'
हिंसा न मुझको दो यदी, लगते तुम्हें निज तन भले ॥ म्ले क्ष सुन सुन के बात तेरी, मम कोध बढ़ रहा है।
आकर पड़ेगा नीचे क्यों इतना चढ़ रहा है। ! - ये धमकी दूसरों को ही दिखाना छोकरे कल के ।
खड़ा रहने न पायेगा तु सन्मुख बीरता के ॥ लक्ष्मण-अकेला ही मैं तुम सबको, यहीं पर दूं सुला क्षण में।