SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जम्बूस्वामी चरित्र हिंसा प्राणिवधश्चेयं दुष्कर्मार्जनकारणम् । यागाथ श्रेयसे हिंसा मन्यते दुर्पियो द्विजाः ।। १११ ॥ इस काल में प्रगटरूपसे ब्रह्म अद्वैतवादी मत प्रगट होता है जो एक अद्वैत ब्रह्मको ही मानते हैं और अनेक द्रव्योंको नहीं मानते हैं। कितने ही एकांतमतवादी तत्वको सर्वथा नित्य ही कहते हैं, वे माकाशको व यात्मा मादिको सर्वथा नित्य मानते हैं। कितने ही क्षणिक एकांतवादी तत्वको सर्वथा क्षणिक ही मानते हैं जैसे शब्द व मेघादि। कितने ही कापालिक मतवाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पांच तत्वोंको ही मानते हैं। वे जीवको नहीं मानते हैं। उनके मतमें बन्ध व मोक्षकी अवस्था नहीं होसक्ती है : कितने ही अज्ञानी मोक्षका ऐसा स्वरूप मानते हैं कि वहां ज्ञानादि धर्माकी -संतानका सर्वथा नाश होजाता है। इन मतोंके भीतर बहुतसे भेदरूप मत इस हुंडावसर्पिणी कालमें ही प्रचलित होते हैं, और किसी मवसर्पिणी कालमें नहीं होते हैं। स्याद्वाद गर्मित श्री जिनेन्द्रकी वाणी द्वारा जैन सिद्धांत 'एकान्त मतोंका उसी तरह खंडन करता है जिसतरह वज्रयातसे पर्वत चूर्ण होजाते हैं। इन एकांत मतोका खंडन जागे कहीं करेंगे। वहां उनका कुछ स्वरूप मात्र कहा गया है। इस हुंडावसर्पिणी काल में नाना भेष धारी साधु प्रगट होते हैं। कोई त्रिशूलादि शस्त्र लिये रहते हैं, कोई जटाओंको बढ़ाते हैं, कोई शरीरमें भस्मको लपेटते हैं, कोई एक दंडी, कोई दो दंडी, कोई
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy