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मयूस्वामी चरित्र मैंने विचार कुछ किया था, देवके उदयसे कुछ और ही होरहा है। 'जैसे कमलके बीच में सुगंधकी इच्छासे बैठा हुआ भ्रमर हाथीद्वारा कमल मुखमें लेनेपर प्राण खो बैठता है। वह कहने लगा किहे पुत्र ! तुझको यह शिक्षा किसने दी है ? तेरी यह बुद्धि विचारपूर्ण नहीं है। कहां तेरी बाल अवस्था व कहां यह महान मुनिपदकी दीक्षा ? यह कार्य असंभव है, कभी नहीं होसक्ता है। इसलिये है पुत्र ! इस साम्राज्यको ग्रहण करो जिसमें सर्व राजा सदा नमन फरते हैं । देवोंको भी दुर्लभ महाभोगोंको भोगो !
. शिवकुमारका उपदेश। इत्यादि पिताके वचनोंको सुनकर उसने घरमें रहना स्वीकार किया तथा कोमल वाणीसे कहने लगा-हे तात ! इस संसाररूपी बनमें प्राणी कोंके उदयसे चारों गतियोंमें भ्रमण करते रहते हैं। कहीं भी निश्चल नहीं रह सक्ते। कभी यह जीव नारकी होता है। फिर कभी पशु होजाता है फिर मनुष्य होजाता है। कभी आयुके क्षयसे मरके देव होता है। इसी तरह देवसे नर व तिर्यच होता है । हे तात ! न कोई किसीका पुत्र है न कोई किसीका पिता है। जैसे समुद्र में तरङ्ग उठती व बैठती हैं वैसे इस संसारमें प्राणी जन्मते व मरते हैं।
हे पिता! यह लक्ष्मी भी उत्तम वस्तु नहीं है। महा पुरुषोंने भोग करके इसे चंचला जान छोड़ दी है। यह रक्ष्मी वेश्याके समान चंचल है। एकको छोड़कर दूसरेके पास चली जाती है । इस लक्ष्मीका