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जम्बूस्वामी चरित्र
शिवकुमारने मित्रसे अपना गूढ़ हाल कह दिया कि हे मित्र ! मैं संसारके भोगोंसे भयभीत हुमा हूं। मैं नाना योनियोंके मावर्तसे भरे हुए महा भयानक इस दुस्तर संप्तार समुद्रसे पार होना चाहता ई। उसके अभिप्रायको जानकर हढवयंने चक्रवर्तीको सर्व वृत्तांत कह दिया कि महाराज ! शिवकुमार तप करना चाहता है।
शिवकुमारको वैराग्य। हे महाराज ! यह निकट भव्य है, शुद्ध सम्यग्दृष्टी है, यह राज्यसम्पदाको अपने मनमें तृणके समान गिनता है, यह भाज बिलकुल विरक्त चित्त है, सर्व भोगोंसे यह उदासीन है, इसका जरा भी मोह न धनमें है न जीवनमें है । यह अपने आत्माके स्वरूपका ज्ञाता है, तत्वज्ञानी है, विद्वानों में श्रेष्ठ है । यह जैन यतिके समान सर्व त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्यको जानता है । इसका मन मेरु पर्वतके समान निश्चल है, यह परम दृढ़ है। किसीकी शक्तिनहीं है जो रागरूपी पवनसे इसके मनको डिगा सके। इसको इस समय पूर्व जन्मके संस्कार से वैराग्य होगया है। इसका भाव सर्व जीवोंकी तरफ रागद्वेष शल्यसे रहित सम है, यह संशय रहित जिनदीक्षा लेना चाहता है।
चक्रवर्ती इन कठोर बनके घातके समान वचनोंको सुनकर चित्तमें मतिशय व्याकुल होगया। इसका मोहित हृदय विंध गया। मांखोमेसे बलपूर्वक भांसकोंकी धारा बह निकली। गदगदू वचनोंको दीन भावसे कहता हुमा रुवन करने लगा। मेरा बड़ा दुर्भाग्य है !