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जम्बूस्वामी चरित्र
अकामी कामिनां मध्ये स्थितो वारिजपत्रवत् । अहो ज्ञानस्य माहात्म्य दुर्लभ्य महतामपि ॥ १६१ ॥
कभी वह एक उपवास करके पारणा करता था, कभी दो दिनके पीछे, कभी एकपक्ष, कमी एक मासका उपवास करके माहार करता था । वह शुद्ध प्राशुक माहार, बहुधा जल व चावल लेता था। जिसमें कृत व कारितज्ञा दोष न हो ऐसा माहार हदवर्म मित्र द्वारा भिक्षासे लाया हुआ ग्रहण करता था। (नोट-ऐसा मालूम होता है दृढ़वर्म मित्र भी क्षुल्लक होगया था। वह भिक्षासे भोजन काता था। उसे ही दोनो ग्रहण करते थे । एक या अनेक घरोंसे लाया हुभा भोजन लेना क्षुल्लकों के लिये विधिरूप था। कहा है
प्राशुकं शुद्धमाहारं कृतकारितवर्जितम् । आदत्त भिक्षयानीतं मित्रण दृढवर्मणा ॥ १६३॥
उस कुमारने घरमें रहते हुए भी तीव्र तपकी अमिमें काम, क्रोधादिको ऐसा जला दिया था कि ये भाग गए थे, फिर निष्ट नहीं भाते थे। इस तरह शिवकुमार महात्माने पापसे भयभीत होकर चौसठ हजार वर्ष ६४००० वर्ष तप करते हुए पूर्ण किये। मायुका मन्त निकट देखकर वह नग्न दिगम्बर मुनि होगया। उसने इन्द्रियोंको जीतकर चार प्रकारके माहारका त्याग कर दिया। इस तपके करनेसे शुभोपयोग द्वारा बांधे हुए पुण्यके फलसे वह छठे ब्रमोचर स्वर्गमें मणिमादि गुणोंसे पूर्ण विद्युन्माली नामका इन्द्र उत्पन्न हुमा। इसकी दश सागरकी भायु हुई । अब उसके पास बेचार महादेवी