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जम्बूस्वामी चरित्र विधमान हैं । वही विद्युन्माली यहाँपर स्वर्गमें इंद्रके समान शोभ रहा है। यह सम्यग्दृष्टी है । इस सम्यग्दर्शनके पतिशयसे इसकी क्रांति मलीन नहीं हुई। (नोट-इससे सिद्ध है कि मिथ्यादृष्टी देवोंकी ही माला मुरझाती है, शरीरकी शोमा कम होती है, आभूषणोंकी चमक घटती है, परन्तु सम्यग्दृष्टी देवोंकी शोभा नहीं घटती है; क्योंकि उनके मनमें वियोगका दुःख व शोक नहीं होता है। सम्यक्तीको वस्तु स्वरूपके विचारसे इष्ट वियोगका व मरणका शोक नहीं होता है । ) कहा है-.
सोऽयं प्रत्यक्षतो राजन राजते दिवि देवराट् । नास्य कांतिरभूत्तुच्छा सम्यक्त्वस्यातिशायितः ॥१६९॥
सागरचन्द्र मुनिने भी व्रतमें तत्पर रहकर समाधिमरपूर्वक शरीर छोड़ा । उसका जीव भी छठे स्वर्गमें जाकर प्रतीन्द्र हुभा । वहां भी पंचेन्द्रिय सम्बन्धी नाना प्रकार सुखकी इच्छापूर्वक विना बाधाके दीर्घ कालतक भोग किया।
धर्मके फलसे सुख होता है, उत्तम कुल होता है, धर्मसे ही शील व चारित्र होता है। धर्मसे ही सर्व सम्पदाएं मिलती हैं, ऐसा जानकर हरएक बुद्धिमानको योग्य है कि वह प्रयत्न करके धर्मरूपी वृक्षकी सदा सेवा करे । कहा है
धर्मात्सुखं कुलं शीलं धर्मात्सर्वा हि संपदः । इति मत्वा सदा सेव्यो धर्मक्षा प्रयत्नतः ।। १७२ ।।