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पंचम भाग
( ३१९ )
सीता - देव ! मेरी इच्छा सिद्ध क्षेत्र भादि तीर्थों की वन्दना करने की है ।
राम-- देवी ! यह तुम्हारी अत्यन्त उत्तम इच्छा है। मालुम होता है तुम्हारे गर्भ में आये हुवे पुत्र मोक्षगामी होंगे। जिसके प्रभाव से तुम्हारे ऐसे भाव हो रहे हैं। मैं अवश्य ही तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा । तुम्हें सारे तीर्थों की बन्दना कराऊंगा ।
सीता - भापका मेरे ऊपर अपार प्रेम है । आपने मेरे लिये कितने कष्ट सहे । मेरे जैसी भाग्य वाली दूसरी न होगी जिसका पति ऐसा पुरुषोतम हो ।
राम - प्राणेश्वरी ! प्रेम प्रेम से ही उत्पन्न होता है । ये कोई बाजारू चीज नहीं है जो पैसा देकर मोल की जा सके । जितना प्रेम तुम्हारा मुझ से है उतना ही मेरा भी तुम से है । तुमने मेरे बिना किस प्रकार कष्टं सहा सो मैं जानता हूं । पतिव्रता से जग को प्रेम होता है । पतिव्रता ने एक भाकर्षण મૈં होता है जो मनुष्य को अपनी ओर खींचता है ।
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सीता - नाथ ! ये सब तो आप ही की कृपा है। भाप ही ने मुझे ये पाठ पढ़ाया है। मैं आपकी अर्धागिनी हूं |
राम - प्रिये, जगत जिसे प्रेम कहता है वो प्रेम नहीं । किन्तु प्रेमाभास है । ' प्रेम उसे कहते हैं जिसका बंधन दर्द हो ।