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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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हृदय से चाहता हूं।
ना०-- चाहते होते तो भरेपाया न कहते । मेरी तो तकदीर उसी दिन से फूट गई जिस दिन से इस घर में पाई। पहले वो सासू थी । वह नोच २ खाय थी। अब ये ऐसी ऐसी कहें जो उठाई जांय न घरी जाय ।
म०-तो क्या तुम एक दम इतनी नाराज होगई । लो तो मैं भी अब जाता हूं। . ( चला जाता है )
ला०-~-प्रकाश जा बेटा ! सुनार को बुला ला । उसे सोना मंगा कर एक जोड़ी कानों की बिजली बनवाऊंगी। प्रकाश-अच्छा अम्मा जाता हूं।
(चला जाता है बो भी चली जाती है)
अंक प्रथम-दृश्य तृतिय ' (दंडक बनमें रामचन्द्र लक्ष्मण और लीला बैठे हुवे हैं)
राम--लक्ष्मण ! देखो यह दंडक बन कैसा शोभायमान है इसकी छटा कैसी निराली है । ये नर्मदा नदी कैसी गम्भीरता से बह रही है। अनेकों उपाय करने परे भी राज महलों में रहते हुवे यह शोभा देखने को नमिलती।
लक्ष्मण---भाई साहब, आप मुझे आज्ञा दीजीये कि मैं इसको दूर तक देखकर भाऊँ । '