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चतुर्थ भाग
(२३५ )
मनु०-वेदा प्रकाश ! जरा सा पानी तो ले था ।
नारी-वो कोई तुम्हारा नौकर थोड़े ही है । खुद जाके पी लो, मेरे लिये भी एक गिलास में लेते आना।
मनु०--तो क्या तुम्हारा और इसका ये भी सहारा नहीं, कि एक गिलास पानी भी पिलादो ?
नारी---सहारा नहीं, सहारा नहीं करते हो। रोटी कोई दूसरी करके खुला देती होगी। बड़े आये सहारा चिल्ल ने वाले ?
प्रकाश-यावृजी सहारा हिन्दुस्तान में थोड़े ही है वो तो अफ्रीका में है । अगर आपको सहारा देखना हो तो अफ्रीका
जाइये?
मनु०---अच्छी बात है, अब से मैं तनखा का एक पैसा भी तुम्हें लाकर नहीं दूंगा।
नारी--तुम होते कौन हो न देने वाले । ये धौंस किसी और को ही दिखाना ! घर में नहीं घुसने दूंगी । और दफतर में जाकर भड़ाभड़ जूते लगाऊंगी। लालाजी सारा दाल घाटे का भाव भूल जायेंगे।
मनु०-मैं तो इससे भरपाया । नारी-तो मैं भी तुमसे भरपाई (सेने लगती है) म०--क्यों मेरी प्यारी ! रोने लग गई। तुम्हें तो मैं