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चतुर्थ भाग।
(२३७ )
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राम---जायो ! किन्तु सावधान रहना ।
(लक्ष्मण चले जाते हैं) सीता-नाथ ! वन में भी कितना सुखमय जीवन व्यतीत लेता है । यहां पर न क्रोध करने की आवश्याक्ता पड़ती है न मान माया लोभ श्रादि की ही आवश्यक्ता पड़ती है ।
राम-इसी लिये तो मुनि लोग बहुधा जंगलों में ही रहते हैं। जो वन में रहने का आनन्द लूट चुका हो । उसे नगर का रहना कभी भी अच्छा नहीं लगेगा । वनवास से दूसरी श्रेणी ग्राम चास की है । ग्रामों में भी लोग सुख पूर्वक रहते हैं।
सीता-नाथ ! इस बन की सुन्दरता पर मैं मुग्ध हूं। आपने मेरे ऊपर बड़ी कपा की, जो मुझे साथ में ले आये।
राम- यदि मुग्ध हो तो मुग्धता से भरा हुआ अपने इस मुखारविंदु से कोई आनन्दकारी गीत गाओ ।
सीता- गाना फूलों ने मोह लई, रंग दिखाय के । रंग दिखाय पिया, महक उड़ाय के ॥ फूलों ने. वन में खिले हैं, मन में बसे हैं। झुम झुम झूम रहे, इठ लायके ॥ फूलों ने.