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जम्बूस्वामी चरित्र
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अधिक दुःख मृगांक बलकी प्रशंसा सुनने से व उसके मिथ्या महंकारसे हो गया । कहा है- जो गुण रहित है वह गुणीको नहीं यह मान सक्ता है । गुणवान गुणीको जानकर ईर्षाभाव कर लेता है । बास्तवमें इस जगत में महान गुणी भी विरले हैं व गुणवानों के साथ प्रीति करनेवाले भी विरले हैं । हे व्योमगति विद्याधर ! तू बुद्धिमान है, तुझे ऐसे घृषा वचन नहीं कहने चाहिये । कहीं आकाश के फूलों से बंध्या के पुत्र का मुकुट बन सक्ता है । मेरी सेना बढेर पराक्रमी योद्धा से भी नहीं जीती नासक्ती थी, उसको केवल स्वामी जंबूकुमारने ही जीती हैं। यदि यह एक वीर योद्धा संग्राम में नहीं होता तो मैं क्या कर सक्ता था सो तुम देख लेते । अभी भी यदि 1 मृगांकको गर्व है तो वह आज भी मेरे साथ युद्ध कर सक्ता है । हम दोनों यहां ही पर विद्यमान हैं । कुमार इस बीचमें माध्यस्थ रहे । केवल तमाशा देखने लगे कि क्या होता है ।
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मृगांक व रत्नचूलका युद्ध ।
रत्नचूळके वचनोंको सुनकर मृगांकको भी क्रोध आगया । ईंधनों को रगड़ने से घूमां निकलता ही है। कहने लगा- हे रत्नचूल ! जैसा तू चाहता है वैसा ही हो । काला भी सुवर्ण अझिसे भिड़ने पर शुद्ध होजाता है । अब तू विलम्ब न कर । ऐसा कह कर युद्धके लिये तैयार होगया । कुमारने रत्नचूक्रको छोड़ दिया। दोनोंमें परस्पर युद्ध छिड़ गया । कुमार मौन से बैठे हुए तमाशा देखने लगे । कुमारने विचार किया कि बीचमें बोलना ठीक नहीं होगा । माध्यस्थ ૨૯
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