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तृतिय भाग।
( १६५)
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सा०-मैं भी यही सोच रहा था कि यह बात सम्भव नहीं हो सकती । चलिये खेल शुरु होने दीजिये।
(दोनों चले जाते हैं)
अंक प्रथम-दृश्य चौथा (गुरुजी बालकों को पढ़ा रहे हैं। पहले स्वयं
बोलते हैं । फिर पालक बोलते हैं। कक्का कितना ही भय भावे, क्षत्री पुत्र नहीं धनरावे। खख्खा ख्याल प्रजा का राखे, स्वयं चाहे वो दुःख उठावे । गग्गा ज्ञान घरम नित पाले, झूठ बचन मुख से नहीं काले। घघा घर पर के नहीं जावे, पर नारी से शील बचावे । बच्चा चाहे जावें प्रान, जाय ना पर क्षत्री मान । छच्छा छोटों से रख प्रेम, पालन कर वृद्धों का नेम । जज्जा जीव दया नित पाल, दुष्टों से दुखियों को काल । झज्झा झूठा सब संसार, जीव दुखी हों बारंबार । रट्टा टूटें कर्म किवाड़, खुल जावे मुक्ती की भाड़ ! गुरु-अच्छा रामचन्द्र बताओ कि पांच पाप कौन से हैं ? रामचन्द्र-सुनिये! मन वच काया से जीवों को दुख देना हिंसा कहते ! माया रचना अप्रिय कहना झूठ बचन इसको कहते ! गुरु-लक्ष्मण अगाड़ी तुम बोलो ।