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श्री जैननाटकीय रामायण
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अंक तृतिय-दृश्य पंचम (राजा दशरथ शोक की अवस्था में बैठे हुवे हैं।
दशरथ-इस संसार की लीला निराली है। मनुष्य जो चाहता है वह उसके विरुद्ध देखता है। कहां मैंने रामको राज्य देना विचारा था और कहां एक दम बनमें जाने को आज्ञा दी जो पुत्र मेरी आंखों का तारा था आज वही बनको जा रहा है। इस संसार से प्रीती करने वाले मूर्ख हैं, मैं किसके लिये शोक करूं ? क्या पुत्र के लिये ? नहीं, इस संसार में न कोई मेरा पुत्र है न कोई नारी है । सब जीतजी का झगड़ा है । मैं बन में जाकर अपनी आत्मा का कल्याण करूंगा।
(कौशल्या और सुमित्रा आती है।) कौशल्या-नाथ ! अब मेरे लिये इस जग म कौन सहारा है। श्राप दीज्ञा धार रहे हैं और रामचन्द्र और सीता दोनों लक्ष्मण सहित बन को चले गये हैं।
सुमित्रा हे प्रभो ! आप किसी प्रकार भी उन्हें लौटा लाइये । दुख रूपी समुद्र में डूबते हुवे परिवार को बचाइये ।
दशरथ-मेरे हिसाब चाहे कुछ भी हो । मुझे किसी से कुछ सरोकार नहीं है, मैंने अपने बचन का पालन किया है और जो कुछ युक्त समझा सो किया है । अच्छा हुआ जो लक्ष्मण भी राम के साथ चला गया, बड़े भाइयों का छोटे भाई के राज्य