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जम्बूस्वामी चरित्र
समवशरणमें वंदनाके लिये पधारे। श्री वर्द्धमान भगवानके मुखकमलसे धर्मोपदेश सुना । सुनकर उसका मन भोगोंसे उदास होगया । अपने मनमें विचारने लगा कि यह संसार मसार है, चंचक है, धनादि सब जलके बुद बुदूके समान क्षणिक हैं । उसी दिन उस राजाने भाठ कर्मोको नाश करनेके लिये सर्व परिग्रह त्याग कर स्वर्ग व मोक्षमुखको देनेवाली निथकी दीक्षाको ग्रहण कर लिया। कुछ दिनों के पीछे सुप्रतिष्ठ मुनि सर्व श्रुतके परगामी होगए । तथा वर्द्धमान जिनेश्वरके ग्यारह गणघरों चौथे गणधर हुए। अपने पिता गणधरको एक दिन देखकर सौधर्मने भी कुमार वय वैगम्यवान हो, मुनिपदको स्वीकार कर लिया । वह फिर श्री वीर भगवानका पांचमा गणधर होगया। वहीं मैं तेरे सामने भावदेवका जीव सुधर्म नामका बैठा हू
और तु भवदेवका जीव है । ऐसा तु अपने पूर्व जन्मका वृतांत नान । हे वत्स | संसारी जीव कोके माधीन होकर अपने कर्म विनाशक वीतराग भावको न पाते हुए संसारमें भ्रमण किया करते हैं । तुम छटे स्वर्गमें विद्युन्माली देव थे, सो वहांसे भाकर सेठ महदासके सुखकारी पुत्र हुए हो। तेरी स्वर्गकी चारों देवियां भी वहांसे च्युत होकर सागरदत्त भादि श्रेष्ठियोंकी चारों पुत्रियां जन्मी हैं। उन चारोंके साथ तेरा विवाह होगा। वे पूर्व स्नेहवश ही तेरी चार भार्या होंगी।
जम्बूकुमारका वैराग्य। मुनिराजके मुखसे अपना भवांतर सुनकर अंबुस्वामी कुमारके