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जम्बूस्वामी चरित्र मनमें तीव्र वैराग्य बढ़ गया। विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगा कि मैं संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होगया हूं। आप मेरे विनाकारण परम बंधु । हैं। आप मेरा संसारसागरसे उद्धार कीजिये। कृपा करके मुझे निग्रन्थ दीक्षा प्रदान कीजिये, मेरी इच्छा भोगोंमें नहीं है, आत्माके दर्शनकी ही भावना है। कुमारकी वाणीको सुनकर महामुनि समाधानकारी बचन साग्य मुखसे कहने लगे । वह अवधिज्ञानके बलसे जान गए कि वह अति निकट भव्य है। भाषा समितिकी शुद्धिसे कोमल वाणी प्रगट करने लगे। हे वत्स ! तेरी अवस्था क्रीड़ा करने योग्य है। कहां तेरी वय और कहां तेरा यह कठिन दीक्षाका श्रम जो महान पुरुषोंसे भी कठिनतासे पालने योग्य है। यदि तेरे मन में दीक्षा लेनेकी तीव्र उत्कंठा है तो तू अपने घर जा। वहां बंधुवर्गोको पूछकर उनका समाधान करने परमर क्षमायाव करादे, फिर लौटकर , उस कर्म क्षयकारी निग्रंथ दीक्षाको ग्रहण कर । यही पूर्वाचार्योके द्वारा बताया हुक्षा दीक्षा लेनेसा क्रम है। . सौधर्मसूरिक वचनोंको सुनसर जंबुकुमार विचारने लगा कि यदि मैं अपने भीतरी हठले घर नहीं जाता हूं तो गुरुकी आज्ञाका लोप होना ठीक नहीं होगा। इससे मुझे शीघ्र ही अपने घर अवश्य जाना चाहिये। पीछे लौटकर मैं अवश्य इस दीक्षाको ग्रहण करूंगा। ऐसा मनमें निश्चय करके कुमारने सौधर्म गुरुको नमस्कार किया
और अपने घर प्रस्थान किया। घर पहुंचकरके कुमारने अपनी । माता जिनमतीको विना किसी गुप्त बातको रक्खे हुए अपने