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चतुर्थ भाग
(३०३)
मेरे दुष्कर्म का फल मुझे नरकों में जाकर मिलेगा। __लक्ष्मण-बोल क्या सोचता है ? यदि अब भी अपना जीवन चाहता है तो सीता लौटा दे । तू सुख पूर्वक राज्यकर वरना याद रख ये नारायण तेरे मारने के लिये खड़ा हुआ है । अब तक मैं साधारण मनुष्य था किंतु अब चक्र हाथ में आने से चक्रवर्ती कहलाता हूं।
रावण —ओ अभिमानी लक्ष्मण ! जरा से चक्रको पाकर तू क्यों इतना फूल रहा है. रावण तेरी इन गीदड़ भभकियों से डान वाला नहीं, अपने मुंह से यदि त नारायण वासदेव और चक्रवर्ती बनता है तो बन, किंतु मैं तुझे कुछ नहीं समझता। तुझे चक्र मिल गया तो क्या हुआ । मेरी भुजायें ही चक्रों का काम करेंगी। __ लक्ष्मण -ओ मान के पुतले ! ले सम्हल, यदि तेरी यही इच्छा है तो चक्र के वार को रोक । (लक्ष्मण चक्र चलाते हैं। रावण के वह लगकर फिर लक्ष्मणके पास आजाता है, रावण पृथ्वी पर गिरकर
मर जाता है । लोग जै बोलते हैं।) विभीषण-(रोता है ) आह, भाई भाई, मैंने तुम्हें कितना समझाया था तुमने एक न सुनी, लाखों को जीवन प्रदान करने