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तृतीय भाग
( १६९)
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जनक-प्रिये तुम चिन्ता न करो ! तुम्हारा पुत्र बहुत सुख से है । वह कहीं न कहीं पर अवश्य वृद्धी पा रहा होगा । में तुम्हें उससे यनश्य मिलाउंगा। इस पुत्री को ही पुत्र मान कर धैर्य धारण करो।
विदेहा का गाना किस तरह धीरज धरूं, जब पुत्र ही मेरा नहीं । गाय को बछड़े विना क्या चैन पाती है कहीं ॥ नौ महीने कष्ट सह कर लाल पा कर खो दिया । होगये दोनों अलग हैं वो कहीं और मैं कहीं। जान सकती हैं व्यथा मेरी वही बस नारियां ॥ पुत्र जिन ने एक पाकर खोदिया अब रो रहीं । जन्म लेता ही नहीं तो धीर मुझको थी यही ॥ किन्तु हो करके उदय वो छिप गया जा कर कहीं॥
पर्दा गिरता है
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अंक प्रथम-दृश्य छटा ( हाराजा दशरथ का दार । राम लक्ष्मण भी बैठे हैं)