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अनुस्वामी चरित्र करना चाहिये, ऐसा विचारकर वह एक रात्रिको अपने पिताके ही महल में धीरे २ चोरकी बरह गया। बड़ी बुद्धिमानीसे बहुत मूल्य रत्न उठा लिये । उन रत्नों का बड़ा भारी प्रकाश था। जब वह लौटने लगा तब उसको किसीने देख लिया। इस दर्शकने सबेरा होते ही राजाके सामने कुमारकी चोरीका वृत्तांत कह दिया । सुनकर दाजाने उसे उसी समय बुलवाया। कर्मचारी दौडक्षर उसको ले
आए । वह वीर सुभटके समान धैर्य के साथ सामने भाकर खड़ा होगया। तब राजाने मीठी वाणीसे पुत्रको समझाया-है पुत्र ! चोरीका काम बहुत बुग है। तूने यह चोरी किसलिये भी यदि तु भोगोंको भोगनेकी इच्छा करता है तो मेरी क्या हानि है। तु अपनी स्त्रियों के साथ इच्छित भोगोंको भोग । जो बस्तु कहीं नहीं मिलेगी सो सब मेरे घाई सुलभ है | जो तुझे चाहिये सो गृहण कर ले, परन्तु इस चोरी कर्मको तू न कर। यह बहुत निघ है, इसलोक व परलोक में दुःखदाई है, सर्व संतापका कारण है, तू तो महान विवेकी है, ऐसे कामको कभी न कर ।
पिताके ऐसे उपदेशपद वचनोंको सुनकर भी उसको शांतिम मिली। जैसे ज्वरसे पीड़ित प्राणीको शकरादि मिष्ट पदार्थ नहीं सुहाते हैं। वह दुष्ट चोरीका प्रेमी अपने पिताको उत्तरमें कहने लगा कि महाराज! चोरी कर्म व राज्यमें बहुत बड़ा भेद है। राज्यमें कक्ष्मी परिमित होती है। चोरी करनेसे अपरिमितका लाभ होता है। इन बोलोंमें समानता नहीं है। इसलिये चोरीके गुणको ग्रहण करना