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द्वितीय भाग।
(१९९)
करने में क्या फल मिलता है। वीरों के लिये युद्ध से बढ़ कर प्रियवस्तु दूसरी नहीं है । हम रात्रण के अधिपत्य में हैं वह हमें अपना मित्र समझता है । मैं उसे मित्रता का पूरा साथ देकर दिखा दूंगा । वरुण को उसके चरणों पर न लेटा हूँ ! तो मेरा नाम भी पवनकुमार नहीं है।
(अन्जना को देख कर चलते से रुक कर )
हे पापिनी तूने मुझे रण में जाते हुवे अपनी सुरत दिखा कर अपशकुन किया है। (अजना खड़ो होजाती है पती की ओर देखती है।
प्रेम ले गद्गद होती है। __ ओ दुष्टा तू बड़े घराने को बेटी होकर भी ढीट बनती है। मेरे सामने से नहीं हटती। ____ अंजना-आज मेरे अहोभाग्य हैं कि आपने मुझे दर्शन दिये और मुझसे बोले । आप कैसे भी कठोर बचन क्यों न बोलें वही मेरे लिये अमृत रूप है । मैं आपकी दासी हूं। भाप मेरे पूज्य देवता हैं।
पवनकुमार-ओ कुल्टा नारी तुझे मुझको युद्ध में विलंब करते हुये लाज नहीं आती
अंजना-हे; प्राणनाथ, जब आप यहां विराजते थे तब भी मैं वियोगनी ही थी किन्तु आपके निकट होने से मेरे