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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
लवण-अंकुश ! तुम जाओ । जाकर वनजंघजी से ! कहो कि सारी सेना तय्यार होजाय । हम लोग अयोध्या पर चढ़ाई करेंगे।
अंकुश-जो प्राज्ञा । ( चला जाता है।)
लवण --नारदजी ! आप कृपा करके मेरी माता के पास -चलिये।
नारद---जरूर, कहां हैं तुम्हारी माताजी ? लवण-चलिये इसी सामने वाले राज महल में हैं।
नारद---अच्छा तुम चलो मैं सामायिक से निवटकर अभी श्राता हूं तुम्हारी माता से मैं अवश्य भेंट करूंगा।
लवण-जैसी इच्छा । ( दोनों चले जाते हैं । ) ( पदी खुलता है। सीता बैठी हुई है।)
.. गाना प्राणों के नाथ ने मुझे, आहे युही भुला दिया । रंजमें अपने रात दिन, मुझको यु ही घुला दिया । भूलथी मुझसे क्या हुई, मैंने तो कष्ट थे सहे । रायणने हर के हायरे, दुखिया मुझे बना दिया ॥
लवण- आकर ) माताजो ! आप क्यों रो रही हैं ? मैं - आपको एक हर्ष समाचार सुनाने आया हूं।'