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दशवां अध्याय |
जंबूस्वामी विद्युच्चर वार्तालाप |
( श्लोक १५९ का सारांश | )
मोहरूपी महायोद्धाको जीतनेवाले मल्लिनाथकी तथा सुत्रतों को बटानेवाले मुनिसुव्रत तीर्थकर की स्तुति करता हूँ ।
विद्युवरका समझाना व कथा कहना ।
अब विद्युचर मामा के रूपमें श्री जंबूकुमार स्वामीको कोमल बचनों से समझाता हुआ कहने लगा- हे कुमार ! तुम बड़े भाग्यवान ! हो, ऐश्वर्यवान हो, कामदेवक समान तुम्हारा रूप है । वज्रधारी इन्द्र के समान बलवान हो, चंद्रमाकी किरण समान यशस्वी व शांत हो, मेरु पर्वत के समान धीरवीर हो, समुद्र के समान गंभीर हो, सूर्यके समान तेजस्वी हो, कमलपत्र के समान नम्र स्वभावधारी हो, शरणा
की रक्षा करनेको बलवान हो । जो जगत में दुर्लभ भोग सामग्री है सो पूर्व बांधे हुए पुण्यके उदयसे तुमने प्राप्त की है । किनही को दुर्लभ वस्तु मिल आती है, परन्तु वे भोग नहीं कर सक्ते हैं, जैसे भोजन सामने होनेपर भी रोगी खा नहीं सक्ता । किसीको भोजनक्की शक्ति तो है, परन्तु भोगादि सामग्री नहीं मिलती है। जिसके पास मनोज्ञ भोग सामग्री भी हो व भोगने की शक्ति भी हो, फिर भी वह भोग न करे तो उसको यही कहा जायगा कि वह देवसे
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