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( ३५२ )
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
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सुग्रीव-जो अाज्ञा । ( चला जाता है )
राम-मित्र हनुमान ! विभीषण ! 'विराधित ! आप लोग भी सुग्रीव के साथ जाकर सीता को ले श्राओ । '
हनूपान-जो आज्ञा । (तीनों चले जाते हैं)
अंक तृतीय-दृश्य द्वितीय
(साधु और ब्रह्मचारी आते हैं) ब्रह्मचारी---कहिये साधू महाराज कुछ देखा ? अब तो बहुत दिनो बाद दर्शन हुवे ।
साधु-मैंने सब कुछ देख लिया । और समझ लिया अभी तक मैं जैनियों को नास्तिक समझता था । किन्तु अब मेरे ध्यान में आगया । जितनी बातें तुम्हारे शास्त्रों में भरी पड़ी हैं उतनी हमारे शास्त्रों में कहीं भी नहीं हैं । तुम्हारे यहां जो कुछ है वो पूर्वापर विरोध रहित है। उसमें कहीं विरोध नहीं पा सकता।
७०-फिर भी बड़े दुःख की बात है कि हठी पुरुष अपनी हठ को नहीं छोड़ते । जैसा उन्होंने सुन लिया वैसा ही कहने लग जाते हैं । ये नहीं समझते कि इसमें कहां तक झूठ
और कहां तक सत्य हो सकता है। । सा०---सत्य है इसीसे आज हम लोगों का पतन हो रहा