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जम्बूस्वामी चरित्र
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भाचार्योने भास्रवके निरोधको संवर कहा है। उसके दो भेद हैं-द्रमास्त्र और भावात्रव । जितने अंशमें सम्यम्हष्टियों के कषा-योका निग्रह है उतने अंश भाव समर जानना योग्य है। कहा है--
येनांशेन कषायाणां निग्रहः स्यात्सुदृष्टिनाम् । तेनांशेन प्रयुज्येत संवरो भावसंज्ञाः ॥ १२३॥
भावार्थ-भाव संवर के विशेष मेद पांच व्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह भावना, बाईस परीपह जय वषांच प्रकार चारित्र है।
रागादि भावोंके न होनेपर जितने अंश काँका मानव नहीं । होता है उतने अंश द्रव्यसंवर कहा जाता है । मोक्षका साधन संबरसे होता है। अतएव इसका सेवन सदा करना चाहिये। निश्चय से भाव संवरका भविनाभावी शुद्ध चैतन्य भावका अनुभव है सो सदा कर्तव्य है।
निर्जरा भावना। निर्जरा भी दो प्रकारको है-भाव निर्जरा और द्रव्य निर्जरा। द्रव्य निर्जरा सम्यग्दृष्टीसे लेकर जिन पर्यंत ग्यारह स्थानोंके द्वारा असंख्यात गुणी भी कही गई है । जिस मात्माके शुद्ध भावसे पूर्वबद्ध कर्म शीघ्र अपने रसको सुखाकर झड़ जाते हैं उस शुद्ध भावको भाव निरा कहते हैं। मात्मा के शुद्ध भांवके द्वारा तप मतिशयसे भी जो पूर्वबद्ध द्रव्यकोका पतन होना सो द्रव्य निर्जरा है।
जो धर्म अपनी स्थिति के पाक समयमें रत देकर झडते हैं वह सविधाक निर्जरा है। यह सर्व जीवोंमें हुमा करती है। यह
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