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जम्बूस्वामी चरित्र
एक बस इसतरह छः प्रकार प्राणियोंके प्राणों की हिंसा करना छः ये हैं
स्वानुभूतिको धर्म कहते हैं। जिससे स्वानुभूतिमें मसावधानी होजावे उसको प्रम द कहते हैं। धर्मः स्वात्मानुभूत्याख्या प्रमादो नवधानता । यह फर्मास्रवका द्वार पन्द्रह प्रकारका है । चार विकथा स्त्री, भोजन, देश व राजा। उनके साथ चार कषाय व पांच इन्द्रिय निद्रा व सह । इनके गुणा करनेसे प्रमादके मस्सी भेद होते हैं। मन, वचन, वायती वर्गणाओं के निमित्तसे मात्माके प्रदेशों का परिस्पंद होना-हिलना, सो योग तीन प्रकारका है। इसके भेद पन्द्रह हैं-सत्य, असत्य, उभय, मनुभय, मनयोग तथा सत्यादि. वचन योग व सात प्रकार काय योग, औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र, माहारक, माहारक मिश्र, कार्मण । सब मिलके आस्रव भाव सत्तावन हैं। ५ मिथ्यात्व + १२ अविरत + २५ कषाय + १५ योग = ५७ इनका विशेष सरूप गोम्मटसारादि ग्रंथोंसे जानना योग्य है। कर्म स्वरूपसे एक प्रकार है। द्रव्य कर्म व भावधर्मके भेदसे दो प्रकार है। द्रव्यधर्म माठ प्रकार व एकसौ मड़तालीस प्रकार है या असंख्यात लोक प्रकार है। शक्तिकी अपेक्षा उनके भेद उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजधन्य । यह सब कथन परमागमसे जानना योग्य है।
संवर भावना। निश्चयसे सर्व ही आसत्र त्यागने योग्य हैं। आस्रव रहित एक अपना आत्मा शुद्धात्मानुभूति रूपसे ग्रहण करने योग्य है ।
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