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जम्बूस्वामी चरित्र
गुणोंके सागर थे, वीतराग थे, गणके नायक थे, शत्रु मित्र, जीवन मरणमें समान भावधारी थे। काम अलाभमें व मान अपमान में विकार रहित थे, रत्नत्रय धारी थे, धीर थे, तप रूपी अलंकार से भूषित थे, संयम पाळने में निरन्तर सावधान थे, वैराग्यवान होनेपर भी प्रायः करुणा रससे पूर्ण होजाते थे। ऐसे मुनिराज माठ मुनियोंके संघ सहित वनमें विराजमान हुए। कहा हैसर्वसंग विमुक्तात्मा बाह्याभ्यंतरभेदतः । यथाजातस्वरूपोऽपि सज्जो गुप्तश्च गुप्तिभिः ॥ ९६ ॥ स्याद्वादी कुमतध्वान्ते तेजस्वी भानुमानिव । सौम्यः शशीव सर्वागे धीरो मेरुरिवोन्नतः ॥ ९८ ॥ (नोट - जैन साधुका ऐसा स्वरूप होना चाहिये । ) अवसर पाकर सुनिराजने दयामई जैन धर्मका उपदेश देना प्रारम्भ किया ।
मुनिराजका धर्मोपदेश ।
हे भव्य जीवो ! तुम सब श्रवण करो, यह धर्म उत्तम है । स्वर्ग तथा मोक्षका बीज है, शुभ है व तीन लोक के प्राणियोंका रक्षक है।
इस संसार में सर्वे ही प्राणी यहांतक कि स्वर्गके देव भी सब अपने२ कमौके उदयके वश हैं । उनको रंच मात्र भी सुख नहीं
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है । तौ भी मोहके माहात्म्यसे यह मूढ़ संसारी प्राणी ज्ञानके लोचनको बन्द किये हुए इन्द्रियोंके विषयोंमें व्यासक्त होकर सुख मान रहा है । यह शरीर अनित्य है, पुत्र-पौत्र मादि नाशवन्त हैं, संपदा,
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