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बम्वृस्वामी चरित्र थे जो चंद्रमा व सूर्यके समान शोभते थे। धीरे २ दोनों पुत्रोंने विद्याभ्यास करके वेदशास्त्र, व्याकरण, वैद्यक, तर्क, छन्द, ज्योतिष, : संगीत, काव्यालंकार मादि विषयों में प्रवीणता प्राप्त की। वे विद्या. रूपी समुद्र के पार पहुंच गए।
ये दोनों ब्राह्मण वाद-विवाद करने में बहुत प्रवीण थे, ज्ञानविज्ञानमें चतुर थे। दोनो भाइयोंमें ऐसा प्रेम था, जसा पुण्यके साथ सांसारिक सुखका प्रेम होता है। ये दोनो विना किसी उपद्रवके सुखसे बढ़कर कुमार वयको प्राप्त हुए । पूर्व पाप-कर्मके उदयसे उनके पिता महान व्याघिसे पीड़ित होगए । उसको कोढ़का रोग हो गया। शरीरभरमें कुष्टरोग फैल गया। कान, आंख, नाइ गलने लगे, अंग उपङ्ग सड़ने लगे, तीव्र वेदनासे वह ब्राह्मण व्याकुल हो गया । यह प्राणी अज्ञानसे पापकर्म बांध लेता है। जब उस फर्मका फर दुःख होता है तब उसको सहना दुष्कर होजाता है। जो कोई स्वादिष्ट भोजनको अधिक मात्रामें लालेता है, जब वह भोजन पचता नहीं तब वह दुःखदाई होजाता है, ऐसा जानकर बुद्धिमानको उचित है कि वह इन्द्रियोंके विषयोंको विषके समान कटुक ‘फलदाई जानकर छोड़ दे और विकार रहित मोक्षपदके देनेवाले धर्मामृतका पान करे। कहा है:
अज्ञानेनार्यते कर्म तद्विपाको हि दुस्तरः। स्वादु संभोज्यते पथ्य तत्वाके दुःखवानिव ॥ ८८ ॥ मत्वेति धीमता त्याच्या विषया विषसनिभाः। धर्मामृतं च पानीयं निर्विकारपदपदम् ।। ८९ ॥