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( २१८ ) श्री जैन नाटकीय रामायण
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मारे मारे फिरल हैं, जैसे नट विन पांय || राम - माता ! आप सीता को समझाओ कि वो घर रह जावें ।
कौशल्या - पुत्री ! अपने पतीका वचन मानकर मेरे चित्त को शांति देती हुई घर पर रहः ।
सांता - यह नहीं हो सकता कि पत्ती के बिना मैं घर रहूं । गाना
चाहे लाख मुझे कोई कहे, संग पती के जाऊंगी । दुख सहते भी पती संग में, कभी नहीं घबराऊंगी ॥ चा० बनकी महिमा देख देखकर, सुन सुन पक्षीगण के बोल पूछ पूछकर बात अनेकों, मनमें हर्ष मनाऊंगी ॥ चा० सेवा करूं पती की बनमें, पाऊँ सेवा फल अनमोल | बांध पती को प्रेम पाशमें, मन चाहा सुख पाऊँगी ॥ चा०
कौशल्या - पुत्र ! सीता पती प्रेम में पागल हो रही है । वह तुम्हारे बिना नहीं रह सकेगी । क्यों कि नारीके हृदय की व्यथा नारी ही जान सकती हैं । तुम इसे बनमें अपने साथ ले जाओ बड़ी चतुराई से रखना |
लक्ष्मण ( आकर ) ( स्वगत ) केकई ने अधर्म पूर्वक