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________________ (४८) भी जैन नाटकीय रामायण | - - सूर्यरज-पुत्र ! तुम्हारी पितृभक्ति से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ। जो मैं तुम्हें राज्य तिलक करता हूं। ( राज्यतिलक करता है) बेटा, सुग्रीव | तुम्हें मैं युवराज पद देता हूं। बाली, इस बात का सदा ध्यान रखना कि प्रजा किसी प्रकार दुख न देखे । तुम्हारे चाचा रक्षरज के पुत्र नल और नील उनको भी तुम अपना भाई समझ कर ही उनसे व्यवहार करना ! , सुग्रीव-पिताजी भाप हम लोगों को अकेला छोड़ कर जाते हैं इससे मुझे बड़ा दुख होता है। सूर्यरज-पुत्र इसमें दुःख की क्या बात है । यह तो हमारी परम्परा से चनी' भाई नीति है। मैं तो अपना मना करने जा रहा हूँ। संसार में रहते २ मैं थक गया हूं सो उससे विश्राम पाने के लिये बन में जारहा हूं। तुम अपने बड़े भाई बाली को अपना सब कुछ समझो । वह किसी प्रकार तुम्हारे ऊपर भापत्ति नहीं माने देगा। - - - 'वानी–पिताजी ! पाप हमें छोड़ कर धन में जा रहे हैं । इस समय हमें दुख और भानन्द बराबर होते हैं। बाली और सुग्रीव का गाना । जा रहे छोड़ कर हो बन. को, कुछ दुःख भी है आनंद भी है।
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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