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|| it || स्वपरसमयपारावारपारीण-शासनसम्राट्तीर्थरक्षकतपागच्छाधिराज भट्टारकाचार्य-विजयनेमिसूरिभगवद्भयो नमः
॥ श्रीगजसारमुनिप्रणीतं ॥ ॥ दण्डकप्रकरणम् ॥
1887
॥ संस्कृतानुवाद-शब्दार्थ-विस्तरार्थ--यन्त्र -परिशिष्ट--टिप्पण्यादिविभूषितम् ॥
॥ स्वोपज्ञावचूर्णि रूपचन्द्रमुनिप्रणीतनृत्यलङ्कृतञ्च ॥ ॥ तदर्थावबोधकप्राचीनस्तवनोपशोभितञ्च ॥
--: संयोजकः :--
तपागच्छाधिपति सूरिचक्रचक्रवर्तिभट्टारकाचार्यश्रीविजयनेमिसूरीश्वर पहालङ्कार-सिद्धान्तवाचस्पतिन्यायविशारद-आचार्य श्रीविजयोदयसूरिः ॥
तश्च
प्राग्वाट वणिग्वंशावतंस धर्मकर्मधुरीणश्रेष्ठिवर्य मनसुखभाईतनुजनुर्माणेकलाल भाईश्रेष्ठिमव रेणस्वद्रव्ययेन प्रकाशितम् ॥
आ पुस्तक थी जैन एडवोकेट प्री० प्रेसमां वाडीलाल बापुलाल शाहे छाप्युं घीकांटा वाडी-अमदावाद.
प्रथमावृत्तिः
अमूल्यम् ।
सने १९२७.
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॥ श्री ॥ ॥ स्वपरसमयपारावारपारीण - शासनसम्राट्तीर्थरक्षकतपागच्छाधिराज भट्टारकाचार्य - विजयने मिसूरि भगवद्भ्यो नमः ॥
॥ श्रीगजसारमुनिप्रणीतं ॥ ॥ दण्डकप्रकरणम् ॥
॥ संस्कृतानुवाद- शब्दार्थ-विस्तरार्थ यन्त्र-परिशिष्ट- टिप्पण्यादिविभूषितम् ॥
॥ स्वोपज्ञावचूर्णि - रूपचन्द्रमुनिमणीत वृश्यलङ्कृतञ्च ॥ ॥ तदर्थावबोधकप्राचीनस्तवनोपशोभितञ्च ॥ -: संयोजकः
-:
तपागच्छाधिपति सूरिचक्रचक्रवर्तिभट्टारकाचार्यश्री विजयने मिसूरीश्वरपट्टालङ्कार - सिद्धान्तवाचस्पतिन्यायविशारद - आचार्य श्री विजयोदयसूरिः ||
प्रकाशक
ग्रन्थप्रकाशकसभानाओनररी--सेक्रेटरी. वाडीलाल बापुलाल शाह--अमदावाद.
नकल १०००,
प्रथमावृत्ति:
विक्रम सं० १९८२
वीर सं० २४५१.
सन्ने ९९२५,
मूल्य रु १,
शुद्ध शुद्ध शुद्ध शुद्ध शुद्ध शुद्ध शुद्ध शुद्ध शुद्धः शू
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आ पुस्तक-" श्री जैन एडवोकेट " प्रीन्टींग प्रेसमां बाडीलाल बापुलाल शाहे छाप्यु, घीकांटा जेशींगभाइनी वाडी
अमदावाद.
mommmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwne प्रकाशके छापवा छपाववा विगेरे तमाम इको १८६७ ना
२५ मा एक्ट मुजब स्वाधीन राख्या छे.
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॥ परमोपकारि पूज्यपाद सद्गुरु श्रीमद्विजय
नेमिसूरीश्वरेभ्यो नमोनमः ॥ ॥ श्रीदण्डक विस्तरार्थः ॥
में प्रस्तावना
( शार्दूलविक्रीडित छंद.) जेनो उत्तम बोध शोध करतो तत्त्वार्थना तत्त्वनी, एकी साथ प्रशंसना मतिधनो जेना करे सत्त्वनी; पाम्यो हंश्रतबोध योग विधिने जेना प्रसादे करी, वढं 'श्रीगुरु नेमिसूरि ' चरणे ते उपकारो स्मरी ॥१॥
सर्वज्ञ शासनरसिक प्रियबंधुओ ? निष्कारण जगबंधुभावकरुणासिंधु-आसन्नोपकारि-श्री महावीरप्रभुनो-अतीत भावि वर्तमान समस्ततीर्थपतिना वचनने अनुसरनार-अचल सिद्धान्त ए फरमावेछे के- संसारि जीवोने कोनो बंध या मोक्ष पोतानी अध्यवसायपरिणतिने आधीन छे.- तात्पर्य ए के- अशुभ अध्यवसायोना योगे कर्मोनो बंध अने तेथी विपरीत अप्रतिपाति उत्तम अध्यवसायोना योगे मोक्ष थायछे. एज रहस्यने प्रकट करता पूज्यपाद महोपाध्याय न्यायाचार्य श्रोमयशोविजयजी म.. हाराज प्रतिपादन करेछे के-'मन एव मनुष्याणां,कारण बन्ध मोक्षयोः ॥' तेवा प्रकारनो विशिष्ट कर्मबंध पण चउद गुणस्थानको पैकी दशमा सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानक सुधीज होयछे. परंतु तेथी अग्रेतन उपशान्त मोहादि चार गुणस्थानकोमा ते संभवतो
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नथी. कारण ते स्यले कषायोदयनी अभाव छे. पथी एसिद्ध थयु के- कषायोदय अवस्थामा विद्यमान आत्मपरिणति विशिष्ट कर्मबंधमां हेतु थइ शके. एन रहस्य पश्चम कर्मग्रन्थनी टीकापां अध्यवसायनी व्याख्या करतां श्री देवेन्द्रसूरिमहाराजाए जणाव्यु छे के “अध्यवसामान्यध्यवसायाः, ते चेह कषायजनिता जीवपरिणामविशेषाः " यद्यपि उपशांतमोहादि त्रण गु. गस्थानकोमा शातावेदनीयनो बंध वर्ते छे, तो पण तेने (ते बंधने ] अध्यवसायनिमित्तक स्वीकारेल नथी. कारणके श्री. पंचसंग्रहादिमां तेनी द्विसमय मात्र अल्पस्थिति प्रतिपादन करेल छे. बंधपरत्वे करेल आ संक्षिप्त विवेचन एन जणावेछे केजीवाजीवादि नवतत्वो पैकी पांचमा आश्व तत्व अने आठमा बंध तत्वना फलरूपे मंसारिजीवो शुभाश्रवद्वारा करेल शुभ कर्मवंधना प्रतापे शुभ दंडकोषां एटले देव मनुष्यना दंडकोमा अने अ. शुभाश्रवद्वारा करेल अशुभ कर्मबंधना प्रतापे नरकनियंचोना अशुभ दंडकोमा उत्पन्न थायछे. ज्यां उत्पन्न थया पछी विशिष्टमंज्ञावाला वे ते देवादि जीवोने ए प्रश्नो प्रादुर्भवे छे, जे-आ आत्माए - चोवीश दंडको पैकी कया कया दंडकोमा कयाकया हेतुओथी केवी केवी स्थिति अनुभवी ? अनुत्तरदेवो पण जेनी निरंतर अभिलाषा करी रह्या छे, अने जे निर्वाणपदनुं परम साधन छे, एवा मनुष्यभव रूप उच्च कोटोनुं स्थान विद्यमान छतां पण कया कया हेतुओथी आ जीव ते स्थान मेळववामां मंदभाग्य थयो?,कदाच पाम्यो, तोपण कया कया साफल्य प्रतिबंधकहेतुओथी यथार्थलाभ मेलववा असमर्थ थयो ? अने निगोदादिमां अनन्त कालसुधी रह्यो ? हवे पछी एवा कया कया उत्तमसाधनो सेववा जोइये ? के जेथी दीर्घकाळ सुधी अनुभवेल क्लिष्ट दुःखमय स्थिनिने न पामे ! इ. त्यादि अनेकप्रश्नो रूपी ग्रीष्मकाळनी तृषाने शांत करवामां
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अमृत समान आ'श्रीदण्डकविस्तरार्थ' नामनो अपूर्व ग्रन्थ छ, ए वात आहेतसिद्धान्तना रहस्यना अभिज्ञमानवोने रहेजे जणाइ आवशे. ते उपरांत आ ग्रंथ सम्यग्द्रष्टिने ओळखवाना पांच साधनो पैकी उपशम १. संवेग २. निर्वेद ३. आ त्रण गुणोनो आविर्भाव करवामां तेमज परंपराए मोक्ष प्राप्तिमा पण असाधारण कारण छे. आटलाज विवेचन परथी ' नवतत्व पछी दंडकपकरणचें अध्ययन करवामां शुं प्रयोजन ? ए प्रश्नना समाधानद्वारा प्रस्तुन प्रकरणY -मुद्रण प्रयोजन पण सहज समजाय तेम छे. यद्यपि प्रस्तुत प्रकरण सामान्यतः शब्दार्थरूपे अनेक संस्थाओद्वारा प्रकट थएल छे, तो पण तेवा सामान्य संक्षेपमात्रथी तार्किक-तत्त्वजिज्ञासुओने संपूर्ण अर्थलाभजन्य संतोष बीलकुल प्राप्त थतोज नथी. कारण के- ज्यारे तेओ ते ते मुद्रित प्रकरणना अर्थने जाणेछे, त्यारे तेओना हृदयमा स्वभावेज आ प्रमाणे तर्कणि प्रादुर्भवे छे. जे - १ - दंडक ए कयो पदार्थ छे ?. २-अधिक वा न्यून न स्वीकारता चोवीश ज दंडको मानवानुशुं कारण ?. ३-भुवनपतिना दश दंडकोनी माफक सात नारकीयोना सात दंडको न मानवामां शुं प्रयोजन ?. ४अमुक दंडकना अमुकजीवोने कहेल शरीरादिथी अधिक शरीरादि केम न होइ शके ?. ५-देवोए उत्तरवैक्रिय रूपे बनावेल छतां औ. दारिक जेवा देखाता सिंहादि औदारिक केम न कहेवाय. ?. ६वनस्पतिनी साधिक सहस्र योजननी अवगाहना कइ अपेक्षाये ?. ७-तेइंद्रिय जीवोनी त्रण गाउनी अवगाहना कया जोवनी अपे. क्षाए घटे ?. ८-अवगाहनाद्वारमा वर्णवेल अवगाहना कया क्षेत्रमा कया काले संभवे?.९-कया कया देवादि कया कया हेतुथी उत्तरवैक्रिय बनावे ?. १०-देवोए बनावेल उत्तरवैफियनी स्थिति अर्धमासथी अधिक होय के नहि?. तैजस काययोग नहि स्वीकारवानुभुंकार
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ण १. ११-ज्यारे अहीं देवोने संघयण न होय एम कीधुसो पछी श्री जीवाभिगमादिमां प्रथम संघयण मान्यु तेनु शुसमाधान ?. १२-लेश्या कयो पदार्थ ?. १३-शु चारे गतिना जीवोने एक सरखोज लेश्या होय ?. १४-शुं छद्मस्थनी अने सर्वज्ञनी शुक्ल लेण्या स्थितिनी अपेक्षाए एक सरखीज होय १. १५-समुद्घात शुं पदार्थ ?. १६-तेने करवानु शु कारण १.१७-कया कया जीवो कया कया समये कइ कइ समुद्घात करे ? १८-एक काले एकथी वधारे समुद्घात होय के नहि ?. १९-एक ठेकाणे स्थावरोने मि. ध्यादृष्टि कीधा त्यारे अन्यत्र सास्वादन दर्शन मान्यु तेनु शुं कारण ?. २०-पर्याप्तावस्थामां विकलेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि के मि. थ्यादृष्टि ?. २१-विग्रहगतिमां पण अचक्षुदर्शन होय के नहि ?. २२-चक्षुदर्शननो व्यापार क्यारे होय ?. २३-शरुआतथीन प. रमाधार्मिको सम्यग्दृष्टि होय के नहि ?. २४-विभंगज्ञानिने अवघिदर्शन होय के नहि ?. २५-तिर्यचपंचेन्द्रियने अपर्याप्तावस्थामां अवधिज्ञान वा विभंगज्ञान होय के नहि.२६-स्थावरोमां ज्ञान अने अज्ञान पैकी बे मतभेद कइ अपेक्षाए छे ?.२७-सास्वादनदर्शनकाले ज्ञान के अज्ञान ?. २८-समकाले एक जीवने ज्ञानलब्धि केटली . होय ?. २९-अमुक दंडके कहेल योगो करतां अधिक योगो नहि होवानुं शुं कारण ?. ३०-उत्तर वैक्रिय अने आहारकना प्रारम्भ अनुक्रमे वैक्रियमिश्र अने आहारकमिश्र योग होय के औदारिकमिश्रयोग होय?. ते वखते-अमुकज योग होय तेमां , कारण?.३१शुं बधाए वायुजोवोने वैक्रियहोय ?. ३२-प्रत्येक मनुष्यादिने लब्धिरुपे केटला उपयोग केवी रीते होय ?. ३:-अमुक दंडकना जीवने कहेल उपयोगोथी अधिक उपयोग केम न होय ?.३४कहेल आयुःस्थिति कया जीवनी अपेक्षाए घटे ?. ३५-शुं सर्व देवलोकोमा देवीयोनो सद्भाव होय ?. ३६-इन्द्रोनुं आयुष्य ज.
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घन्य भांगे के उत्कृष्ट भांगे होय ?. ३७-फया देवलोक सुधी इन्द्रा. दि व्यवस्था होय ?. ३८-सर्वज्ञोने संज्ञान होय तेनु शुं कारण ? ३९-अन्यदर्शनकारी भवान्तर विषयक गत्यागति इश्वरेच्छा अने तेनी प्रेरणाथी माने छे त्यारे जैनो कर्मद्वारा माने छे. तेनु शुं समा. धान ?. ४०-देवोने श्रीभगवतीसूत्र अने श्रीविचारसप्ततिमा ५ पर्याप्तिओ अने श्री नवतच भाष्यादिमां ६ पर्याप्तियो कीधी तेनु शुं कारण ?. ४१-अनुत्तरविमानवासि देवोने शब्दोच्चारना अभावे वचनयोग केम घटे ? जो ते न होय तो भाषापर्याप्ति केवीरीते घटे ?. इत्यादि ॥
जो तेओना ते व्याजबी तोंर्नु पण समधान दीर्घकाल सुधी न थाय तो ए पण तों चिरस्थायि थतां तेओनुं सम्यग्दर्शन पोतानी पूर्वस्थिति साची शकशे नहि. ? कारणके जिज्ञासाजन्य तर्क पण कालान्तरे एवा संशयरूपे परिणमे छे, के- जे तर्क-श्रद्धाने पण अंशे अंशे घटाडनार नीवडे छे. आभाव- वर्तमानजमानाना अनेक दृष्टान्तोद्वारा अनुभवगोचर थइ शके तेम छे. तेमज पदार्थ तस्वोनो संगीन बोध पण प्रकट ययेल ताना समाधाननेज आधीन छे, जेथो तार्किक भव्यसमाजने सानन्द समाधान मलवा पूर्वक संगीनबोध संपादन कराववो, ए पण आ प्रस्तुत प्रकरणर्नु बीजु मुद्रण प्रयोजन छे.
हवे-१-प्रस्तुन प्रकरणने वीजा कोइपण शब्दथी न ओळखावतां दंडक शब्दथी ओळखाववानुY कारण ?, २. कर्ताए आ प्रकरणने स्तुतिग्रन्थनी माफक स्वतंत्र पद्धतिए रच्यु के के सिद्धान्तपतिए ? जो सिद्धान्तपदतिए तो कया कया सिद्धान्तोने अवलंबीने रच्यु ? ३ ते ते सिद्धान्तोमा दंडकोर्नु स विस्तरवर्णन छतां पण पृथक् रचनानुं शुं प्रयोजन ? आ प्रश्नोनुं समाधान करवू व्याजबी छे-ते संक्षेपमा आ प्रमाणे
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१ जीवने स्वकर्मजन्य फलानुभव योग्य कया कया स्थानको छ ? ए जणाववा माटे प्रस्तुत प्रकरणने दंडक पदथी ओळखावेल छे. २ आ दंडकोर्नु मुख्यत्वे करी आपणा परमपूज्यतम पश्चमांग श्री व्याख्याप्राप्ति ( श्री भगवती ) सूत्र तथा चतुर्थोपांग श्री प्रज्ञापना सूत्रमा सविस्तर वर्णन करेल छे. जेथी अहीं संज्ञाकमादि पण प्रायः तदनुसारेज राखेल छे. ३ तेओन सार्वजनिक अध्ययन नहि होवामां बे प्रयोजनो छे. जे १ मूल प्राकृतभाषानो अपरिचय तथा वृत्तिग्रन्थोनी संस्कृत भाषानुं काठिन्य. २ जिनाज्ञाधारि साधुओने पण अध्ययननिमित्ते योगोदहन क्रियानी आवश्यकता. तेथी सार्वजनिक उपकार करवा माटे कर्तार आ मूल प्रकरण बनावेल छे..
___सज्जनो ! जाणमांज हशे के "परिचय ए प्रवृत्तिनुं कारण है" तेथी आ श्रीदडकविस्तराध केटला भागमां केवी रीते व्हेंचा. येल छे ? आ बाबत पण टुंक परिचय कराववो व्याजबीज छे. त्रण विभागे व्हेंचाएल आ ग्रन्थना कर्ताए
१. प्रथमविभागे-मंगलाचरणादि करवापूर्वक चोवीश दंडकोना नामो, तथा भेद प्रभेदतुं सविस्तरवर्णन, तेमां उपयोगी प्रश्नोत्तरो, चोवीशे द्वारोनुं सविस्तर स्वतंत्रवर्णन करवा पूर्वक चोवीशे दंड. कोमा ते द्वारो समजावी, पर्यन्ते श्री परमात्मापासे स्तुतिद्वारा मोक्षपदनी प्रार्थना करी तथा स्वपरिचय करावी ग्रन्थसमाप्ति करैल छे. २ द्वितीय विभागे-दंडकार्य विषयक बेस्तवनो तेमां
१--प्रथम स्तवन श्रीउत्तमविजयजी महाराजना शिष्य पण्डित श्रीपद्मविजयजीगणिएभावनगरमां रचेल छे. जेमा २४ दंडकोमा २९ द्वारो टुंकमां समजावेल छे. तेमां २४ द्वारो उपरांत १ नामद्वार जेमां २४ दंडकोना नामो दर्शावेल छ.२ संपदाद्वार.जेमां १४ चक्रवर्तिना रत्नो तथा तीर्थंकरादि १. सर्वमली २३ संपत्तियो कहेल छे. ३
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धम बनावेल
विस्तारया मल प्रकरण तातिछिन जिनाजसा
धर्मद्वार-जेमां दरेक दंडकपत्ये विरतिधमनी विचारणा दर्शावेल छे. ४ जीवयोनिद्वार-जेमां दरेक दंडकना जीवने केटली केटली योनियो होय ए भाव जणावेल छे. ५ कुलद्वार-जेमां दरेक दंडकना जीवने केटली केटली कुलकोटीयो होय, ए अर्थ प्रतिपादन करेल छे. एम पांच द्वारो वधारे जणावेल छे.
२. बीस्तवन- श्रीविजयहर्षवाचकना शिष्य श्री धर्मचन्द्रमुनिए जेसलमेरमा १७२९ नी सालमां दीलीपर्वना दिवसे बनावेल छे. जेपी श्री पार्श्वनाथभगवाननी स्तुति करवा द्वारा गत्यागतिना बे डारो विस्तारथी वर्णवेल छे.
३-तृतीय विभागमा - मूल प्रकरण तथा ते उपर स्वोपज्ञ अवचणि छे, प्रकरणकार जिनसमुद्रसूरिना पट्टपतिष्ठित जिनहंसमु. नीश्वरना राज्यमा वर्तमान-श्रीधवलचन्द्रगणिना शिष्य गजसारगणि छे. तेमणे आ जिनविज्ञप्तिरूप दंडक प्रकरण जे तेमनाथी पूर्व समयमां पत्र उपर यन्त्ररूपे लखेल हतुं. ते सुगमताने माटे एटले बालजीवो अल्पशब्दोमां अर्थलाभ लइ शके, ए हेतुथी पाटणमा विक्रम संवत् १५७९ नी सालमां सूत्ररूपे गुंथ्यु. तेमणे अवचूर्णिमां मूल सूत्रनो आशय संक्षेपमा सारी रीते समजावेल के जेपांना केटलाएक कंठस्थ करणीय ज्ञेयमुहाओ ए के जे१ स्वकीय क्षायोपशमिक ज्ञानद्वारा रागादिभाव शत्रुओने हठाववामां यथाशक्ति प्रवृत्तिपरायण सम्यग्दृष्टि जीवने दृष्टिवादोपदेशकी सज्ञा होय. .
२ लन्धिद्वारा उत्तरवैक्रियकारक जीव ते शरीरमा अन्तर्मुहूर्त कालयी वधु अवस्थान न करी शके. कारण तेटलो काल बीत्या बाद ते जीव औदारिक शरीरमा स्वस्थ बनेछे.
३.कार्मग्रन्थिक मते देवोने तथा नारकोने संहनननो प्रतिषेध तथा सैद्धान्तिकमते तेनो सद्भाव होयछे.
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४ - १० संज्ञाओ उपरांत केटलाएक मनुष्योने श्री आचारांग सूत्रमां कहेल १ मोक्ष २ धर्म ३ सुख ४ दुःख ५ जुगुप्सा ६ शोक ए ६ संज्ञाओ पण होय छे. परन्तु तेवा जीवो अल्प होवाथी मूलसूत्रमां आ अधिकार ग्रहण करेल नथी. ५ वायु विगेरेना ध्वजादि संस्थानो श्रीभगवतोसूत्रमा आधारे दर्शावेल छे. ६ ' सव्वे वि चउक्साया' आ वचन प्रथपना अगीआर गुणस्थानकोना जीवने उद्देशीने कहेल छे. ७ सामान्यथी सात नरकस्थानकोni त्रण लेश्याओ कहो. विशेषथी दरेक नरकस्थाने एकज अवस्थित लेश्या होय ते आ प्रमाणे, पहेलो बीजी नरकमां का पोतलेश्या, श्रीजी नरकमां उपरना प्रस्तटोमां कापोतलेश्या, नीचेना प्रस्तटोमां नीललेश्या, चोथी नरकमां नीललेश्या, पांचमीमां उपरना प्रस्तटोमां नीललेश्या, नीचेना प्रस्तटोमा कृष्णलेश्या. छुट्टी सातमी नरकमां कृष्णलेश्या अने तेवी रीते देवलोकमां पण सामान्यथी ६ - लेश्याओ कही. विशेषथी भुवनपति तथा व्य न्वरोमां पहेली - ४ - लेश्याओ तथा ज्योतिषि तथा सौधर्मेशान देवलोकमां तेजोलेश्या, ३-४-५मा देवलोकमां पद्मलेश्या होय. आगळं अनुत्तरविमानसुधीना देवस्थानोमा शुक्ललेश्या होय. ८ पृथ्वी - जल - वनस्पतिमां कार्ममन्थिकमते वे अज्ञान अने सेडान्तिकमते औपशमिक दर्शनने वमतां तथा ते त्रण दंडकोमां उत्पन्न थतां - ईशानसुधीनां देवोने स्वीकारेल सास्वादनदर्शनना योगे अन्तर्मुहुर्त काल सूधी अपर्याप्त अवस्थामां वे ज्ञान पण होय.
तथा अवचूर्णिकारना समयथी पश्चाद्भाविसमयमां विद्यमान वृत्तिकार श्रीरूपचन्द्रजी महाराज — जं- श्री होरसूरिजी महाराजना शिष्य उपाध्याय भानुचन्द्रगणिना शिष्य उदयचंद्रजोना शिष्य हता. तेमणे विक्रम संवत् १६७५ना जेठ सुद ६ गुरुवारे ५३६ लोक प्रमाण - अवर्णिने अनुसरनारे आवृत्ति बनावी. एम प्रशस्ति
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ना श्लोकोद्वारा जणायछे.जेमांना केटलाएक कंठस्थ करणीयमुद्दाओ आ प्रमाणे-१-प्रथमना६ समुद्घातोनी स्थिति अंतर्मुहर्त अने ७. मा केवलीसमुद्घातनी स्थति समय ८.२-श्रीसर्वज्ञमहाराजाने त्र. ण संज्ञाभो पैकी एक पण संज्ञा न होय. कारण-कर्मना क्षयोपशमजन्य संज्ञाओ छे. ते क्षायोपशमिक भाव सर्वज्ञने न होय. ३-अवेयक अने अनुत्तरविमानवासि देवो-सामर्थ्य छतां पण प्रयोजनना अभाव उत्तरक्रिय रचना न करे. ४-देवोर्नु उत्तरवैक्रिय शरीर-उंचाइमा चतुरंगुलहीन लक्षयोजन. कारण-तेओ जमीनथी चार अगुल अस्पृष्ट रहेछे. तथा मनुष्यो तेवा नहि होवाथी चार अंगुल अधिक लक्षयोजन प्रमाण उत्तरवैक्रिय रचना करे. ५-मतान्तरे-वायु जीवो. ने एक वैक्रिय शरीरज होय एर. श्री अनुयोगद्वार वृत्तिमां कहेल छे ६ संमूछिम पंचेन्द्रियतिर्यचने सैडान्तिकमते सेवासंहनन अने कामपन्थिकमते छ ए संघयण होय. ७-परमाधार्मिक देवोने एक कृष्ण लेश्याज होय, ८ श्रवण नेत्रने कामेच्छा शेषत्रणने भोगेच्छा. ९-ज्यां केवल मनुष्योज उत्पन्न थइ शकेछे एवा आनतादि देव लोकना देवो एकसमयमा संख्याताज च्यवे तथा उपजे, कारणतेओनी उत्पत्ति संख्याता एवा गर्भज मनुष्योमांज होइ शके छे. १०-कर्मनायोगे श्रोताओने कदाच बोध न थाय तोपण अनुग्रह. बुद्धिथी उपदेशकने घणी निर्जरा थायज.
अनन्तर जणावेल काभग्रन्थिक अने सैडान्तिकना बे मतभेद पैकी अमुकज मत साचो छ,एवो निर्णय छद्मस्थ जीवो न करी शके. कारण-ए मतभेद वाचनाभेदजन्य छे. वाचना भेद थवा कार
छे-क्षयिकज्ञानवाला पूज्यपाद त्रिकालभावि सकलतीर्थपति महागजाओनो तो मूलथी एकजमत छे. कारण-अतीत अनन्त तीर्थंकरोमांना एक पण श्रीमान तीर्थंकरमहाराजाए अर्थदेशनाद्वारा एवो शब्दप्रयोग नथी कर्यों जे आ- परमाणु आदि पदार्थना
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स्वरूपने हुँ पोतेज प्रतिपादन करुं छ परन्तु एज प्रतिपादन कर्युछे के जेम अतीत अनंता तीथकगेए जे पदार्थभाव जेवारूपे प्ररूप्यो अने भावि अनन्ता तीर्थंकरो जे पदार्थभावने जेवारूपे प्ररूपशे, तेनेज अनुसरीने हु आ विवक्षितपरमाणु आदि पदार्थना स्वरूपने निरुपण. करूंछ. अने तेज हेतुथी अविच्छिन्न प्रमावशालि-त्रिकालाबाधित भवोभव चाहना करवालायक-जैनेन्द्रशासननी लो. कोत्तरता सिद्ध थायछे. जेमां त्रिकालभावि सर्वधर्मोपदेशकोमा प्र. रूपणा भेद होइ शकेज नहि. एज प्रणालिकाना विरहथी अन्यद. र्शनकारोने निरुपाये कहेवू पडयु के
__ श्रुतिविभिन्ना स्मृतयो विभिन्ना, नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणं । (मतं न भिन्नमित्यप्यन्यत्र)
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥१॥
कालान्तरे सूत्रार्थविषयक विस्मृति आदि हेतुओना संनिधानथी वाचनाभेद थयो.आ भाव ढुंकामां श्रीजंबुद्धीप प्रज्ञप्ति टीकामां वर्णवेल छे. तेमज परोपकारधुरीण आचार्य श्रीमलयगिरि महाराजाए पण श्री ज्योतिष्करण्डक नामना प्रकीर्णकनी वृत्तिमा कांछे के-जैनेन्द्रशासनभावि श्री स्कन्दिलाचार्यना समयमां पांचमा दुःषम आराना प्रतापे दुर्भिक्षकाल प्रवयों. जेथी साधुओ. मां सिद्धान्तवाचनादि प्रवृत्ति मंद थवा लागी. दुष्काल वीत्या बाद सुभिक्षकाल समये १-चलभीपुर [ वळा ) २-मथुरा एम बे स्थले संघ भेगो थयो, जेमां सूत्रार्थनी संयोजनाना समये अतीतदुष्कालना प्रतापे सूत्रार्थनी विस्मृति थएली होवाथी-वाचना. भेद थयो. ते अवसरे संसारमा अनन्तकाल सुधी भ्रमणकरावनारी प्रवचनाशातनाथी भय पामनार-कदाग्रहरहिन-तथा अव.
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ध्यादि प्रत्यक्ष ज्ञानरहित-अने तेज हेतुथी अमुकज वाचनापाठ सस्य छे.एवो निश्चय करवो अशक्य जाणनार संघनायक पूज्यपाद-श्री देवाडिगणि क्षमाश्रमण महाराजा विगेरे आचार्य महाराजाओए ते ते वाचनाओना पाठो परस्पर अविसंवादपणे स्मरणने अनुसारे तदवस्थन पुस्तकारूढ कर्या, जेथी आज मुधी पण तेज परति तदवस्थभावे दृष्टिगोचर थायछे जेमां अवसाने 'आ बे अर्थमां सत्य अर्थ कयो ? ते केव लिगम्य छे एवो उल्लेख देखायछे.
आ श्रीदंडकपकरणनो अनुवाद-छूटा शब्दार्थ मास्तर. चंदुलाल नानचंदे लखेल छे. अने प्रकरणना विषमस्थलोने सैद्धान्तिक सरलशैलीए स्पष्ट विवेचन टिप्पणी यन्त्रादि साथे समजावनार-मारा परमोपकारिशिरोमणि- चारित्रादिगुणोने वृद्धि पमाडनार- उत्तम ब्रह्मचर्यादि लोकोत्तर सद्गुणोने धारण करनार--जंगमकल्पतरु -कलिकाले श्री गौतम गुरुसमान-श्री जैनेन्द्रशासनतीर्थरक्षणपरायण--परोपकारशील-भावकरुणाजलनिधि-पूज्यपाद-प्रातःस्मरणीय-भावाचार्य पुरंदर-श्रीस्थानांगोक्त पञ्चातिशयधारक-तपोगच्छाचार्य श्रीपरम गुरुवय श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरभगवत्पपूर्वांचलनभोमणिसदाचारशीलवैराग्यगुरुभक्तिपरायण, वासीचंदननी माफक भव्य जीवोने श्रुतादिना अध्यापनादिद्वारा कृतार्थी बनावनार-मारा श्रुनादिपाठक, सत्कृतिसांनिध्यकारक-परमोपकारी गीतार्थ मुख्यसिद्धान्तवाचस्पति-न्यायविशारद पूज्यपाद श्रीमद्विजयोदयसूरिजी महाराज छे. जेथी तेओश्रीनो आ अनहद आभार अनाग्रहीगुणग्राही तत्वरसिक भव्यजीवोने अविस्मरणीय छ, पयन्ते भव्यजीवो आ ग्रंथना अध्ययन-अध्यापन-मनन-अने निदिध्यास. नद्वारादंडकोर्नु यथार्थ स्वरूप समजी, शुभ दंडकोने सुवर्णनी बेडी समान, अने अशुभ दंडकोने लोहनी बेडी समान गणी, पोताना
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दंडकस्थानो दूर करी, दश भावनाना ध्यानरूप पवनना झरा. साथी अष्टकमरूप वादळाने हठात्री-पोनाना अव्यावाध निरुपाधि शाश्वत सचिदानन्द सूर्यने प्रकट करो-अने ते द्वारा लोकालोकना भाव जाणी-स्वपरोपकार करवापूर्वक मुक्तिपद पामे. एम हार्दिक निवेदन करी, हवे हुँ आ टंक प्रस्तावनाने संक्षेपी लइश. कारणके श्रीवीतरागविंबर्नु संक्षिप्त वर्णन पण प्रभुदेवपा रहेला लोकोत्तर गुणोनु भान कराववाद्वारा भेदज्ञानिमीवने तत्स्वरूपे लीन थवा. मां निबंधनभूत थायज छे. तथा छमस्थ जीवोने आवारक कर्मोना प्रतापे अनाभोगजन्यस्खलनायो दुनिवार्यछे यतः
अवश्यं भाविनो दोषाः, छद्मस्थत्वानुभावतः ॥ समाधि तन्वते सन्तः, किनराश्चात्र वक्रगाः ॥ १॥
तेथी आ ग्रंथमां गुणयाही-विज्ञवाचक वर्गने दृष्टिदोषजन्प या मुदणजन्य. जे कोइ योग्य भूलचूक जणाय, तेने महाशयो सुधारीने वांचशे. अने कृपा करी जणाववा तस्दो लेशे, तो बीजी आवृतिमा सुधारो पण थइ शकरो. इत्यलंगवस्तरेण भूयाद्र श्री श्रयणसंघस्य.
निवेदक
श्री गुरु नेमिसूरीश्वरचरणकिंकर
& मुनि पद्मविजयः।
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॥ ओं. अर्ह नमः ॥ ॥स्वपरसमयपारीण-विश्वोपकारधुरीण-चारुचारित्र-तपोगच्छाधिपति
आचार्यश्रीविजयनेमिसूरिसद्गुरुभ्यो नमः ॥
॥ अथदंडकविस्तरार्थः ॥
HERECTSAYESHRENDRTOISSES
॥ यंत्रादिविभूषितः ॥
नत्वा श्रीमन्महावीरं, नेमिसूरि गुरुं तथा । दण्डकाख्यस्य शास्त्रस्य, विस्तरार्थ तनोम्यहम् ॥१॥ ___ अवतरण-आ पहेली गाथामां मंगलाचरण करवा पूर्वक दंडकरूप पदवडे श्रीऋषभदेव वगेरे २४ भगवाननी स्तुति स्वरूप दंडकपकरण अपरनाम विचारछत्रीशी अथवा लघुसंग्रहणि ग्रन्थ सांभळवामां भव्योने सावधान करे छे.? . . नमिउं चउवीसजिणे-तस्सुत्तवियारलेसदेसणओ। दंडगपएहिं ते च्चिय-थोसामि सुणेह भोभव्वा ? ॥१॥
( संस्कृतानुवादः) नत्वा चतुर्विंशतिजिनान्-तत्सूत्रविचारलेशदेशनतः । . दंडकंपदैः तांश्चैव, स्तोष्यामि श्रुणुध्वं भो भव्याः ? ॥१॥
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(२)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
॥ शब्दार्थः ॥
नमि- नमस्कार करीने. चवीस-चोबीश. जिणे - जिनेश्वरोनेतेस्ततेमना सिद्धांतनो
वियार - विचार - स्वरूप.
लेस- लेशमात्र- किंचित्देसणओ - दर्शाववाथी.
दंडगपएहि - दंडकनां पदोवडेते - तेओने (- श्रीजिनेश्वरोने)
चिंय- निश्चय. थोसामि- स्तवीश
सुणेह - सांभळो. भो-हे.
भव्वा - भव्यजनो !
गाथार्थः चोवीश जिनेश्वरोने नमस्कार करीने तेमना सिद्धान्तनुं स्वरूप लेशमात्र देखाडवा पूर्वक (२४) दंडक + पदोवडे ( - दंडकनां स्थानवडे ) निश्चय तेमनी ( - जिनेश्वरोनी) स्तुति करीश ते हे भव्यो सांभळो !
विस्तरार्थः - आ ग्रंथमां अभिधेय ( - विषय) २४ प्रभुनी स्तुति करवानी छे, हवे ते स्तुति प्रभुना गुणनुं वर्णन - प्रभुनी कायनुं वर्णन - प्रभुनां वचनोनुं वर्णन इत्यादि द्वारा अनेक प्रकारे प्रभु स्तुति थइ शके छे, त्यां आ ग्रंथकर्ता 'गजसार मुनि' आ ठेकाणे सिद्धान्तरूप प्रभुनां वचनोना वर्णनरूपे प्रभु स्तुति करे छे, माटे मूळ गाथामां कह्युं छे के " तस्मुत्तवियारलेसदेसणओ-तेमना सिद्धान्तनुं स्वरूप लेश मात्र देखाडवा पूर्वक ( चोवीश दंडकपदोवडे ) हुं तेमने स्वीश. " वळी ए प्रमाणे जे स्तवना करवी ते पण हेलो नमस्कार कर्या बाद थाय छे माटे प्रथममां प्रथम " चोवीश जिनेश्वरने नमस्कार करीने " एम कहां ले. चालु पद्धति पण एज के के भगवानने प्रथम नमस्कार कर्या बाद तेमनी स्तुति बोलाय छे एज पडति आ गाथामां दर्शावी ले. हवे तेमना सिद्धान्तनो विचार लेश मात्र देखाडवाने जे स्तवना कर
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॥ चतुर्विंशतिदंडकवर्णनम् ॥ (३) वी छे, ते सिद्धान्तनो विचार तो नयवर्णनथी-निक्षेपवर्णनयीद्रव्यानुयोगना वर्णनथी-गणितानुयोगना वर्णनथी. इत्यादि अनेक प्रकारे थइ शके छे तो अहिं कया प्रकारनो विचार दर्शावी स्तवना करवी छ ? ते जणाववाने माटे कहे छ के-'दंडगपरहि'-दंडकनां २४ स्थान ते वडे स्तवना करवानी छे. अहिं जंटला भगवाननी स्तुति करवी छे तेटलांज दंडकनां स्थानोवडे सिद्धान्तनुं पण किंचित् स्वरूप दर्शाववानुं छे. माटे हे भव्यो तमे सांभळो..
अर्थात् आ दंडक प्रकरण ते २४ जिनेश्वरनी स्तुतिरूपे र.. चायलं छे, अने ते स्तुति प्रभुना गुण वगेरेनी नहिं पण प्रभुनां सिद्धान्तगत वचनोनी छे.
भरत अने अरवतक्षेत्रमा प्रति उत्सर्पिणी अवसर्पिणीमा २४-२४ ज तीर्थंकरो थाय छे माटे चोवीशनी स्तवनाथी अतीत अनागत वर्तमान तमाम चोवीशीओ ( अनन्त चोवीशीओ) नी स्तवना थइ ! आ प्रकरणमा करेली स्तुति ते नमस्कार आशीः इ. त्यादि स्वरूप कोइ नही पण विज्ञापनारूप छे, जे माटे प्रकरणने अन्ते पोतेज ग्रन्थकार 'गजसार मुनि' ते आशय व्यक्त करे छे. "दंडतिय विरइ सुलहं, लहुं मम दितु मुक्खपयं.”
॥प्रथम गाथा तात्पर्याथ. ॥ मंगलाचरण, दंडकपदे करी अभिधेय, भवा एपदे करी भव्यजीव अधिकारी, संबन्ध तथा फल अर्थपत्तिथी मूचव्यां छे. (१),
अवतरण-आ गाथामां प्रकरण वक्तव्यतानो उद्देश करवा २४ दंडकनां नाम दर्शाये छे. नेरइया असुराई, पुढवाइ बेन्दियादओ चेव । गाभयतिरियमणुस्सा, वंतर जोइसिय वेमाणी ॥ २ ॥
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॥ पं० पचवि० प्रणीतं ॥
(१६३)
गोध प्रमुख पंखी त्रीनी लगे, सिंह प्रमुख चोयी जाय. नरक० ॥३॥ पांचमी नरके सीमा सापनी, छही लगे स्त्री जाय: सातमी नरके माणस माछलां, उपजे गर्भन आय. मरक० ॥४॥ नरकथकी आवे बोहं दंडके, तीर्यच के नर थाय: ते पण गर्भन ने पर्यावा, संख्यातेज सुहाय. नरक० ॥५॥ नारकियाने नरकथकी निकळ्या, जे फळ प्राप्ति होय: उत्कृष्ट भांगे करी ते कहुं, पण निश्चे नहीं कोय. नरक० ॥६॥ प्रथम नरकथकी चवी चक्रवति होये, बीजी हरी बळदेव: त्रीजी लगे तीर्थकर पद लहे, चोथीए केवल हेव. नरक० ॥७॥ पांचमा नरकनो सर्वरिति लहे, छठीए देशविरत; सातमो नरकथकी समकीत लहे, न होवे अधीक निमित्तन०॥८॥
ढाल ३ जी. करम परोक्षा करण कुमर चल्यो रे, ए देशी. मानव गति विण मुक्ति होवे नहिरे, एहनो पह अधिकार; आयु संख्याते नर सहु दंडकेरे, आवी लहे अवतार. मानव० ॥१॥ तेउ वाउ दंडक बेनजीरे, बीजा ते बावीश; तिहांथी आव्या थाये मानवीरे, सुख दुःख पुन्य गरिष्ट. मा० ॥२॥ नर तिर्यच असंख्ये आयुषेरे, सातमी नरकना तेम: तिहाथी चवीने मनुज होने नहिरे, अरिहंते भाष्यो एम. मा० ॥३॥ वासुदेव बलदेव तथा वली रे, चक्रवर्ति अरिहंत स्वर्ग नरकना आया ते होवे रे, नर तिर्यंच न होवंत. मा० ॥४॥ चौविह देव थकी चवी उपजेरे, चक्रवर्ति ने बलदेवः वासुदेव तीर्थकर ते होवे रे, वैमानिकथी हेच. मा० ॥५॥
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(४) ॥. दंडकविस्तरार्थः ।।
(संस्कृतानुवादः) नैरयिका असुरादयः पृथ्व्यादयो द्वीन्द्रियादयश्चैव । गर्भजतियग्मनुष्या, व्यन्तरो ज्योतिषिको वैमानिकः ॥ २ ॥
॥ शब्दार्थः ॥ नेरइया-नारक.
गम्भय-गर्भज. असुराई-असुरकुमार वगेरे (१०) तिरिय-तिर्यच.
मणुस्सा-मनुष्यो. पुढवाइ-पृथ्विकाय वगेरे (५)
वंतर-व्यन्तर. बेन्दियादओ-दीन्द्रिय वगेरे(३) जोइसिय-ज्योतिषी. चैव-निश्चय.
वेमाणी-वैमानिक. गाथार्थः-सात नारकनो १-असुरकुमार वगेरे १०-पृथ्वीकायवगेरे ५-द्वीन्द्रिय वगेरे ३-गर्भजतिर्यंचनो १-गर्भज मनुष्यनो १-व्यंतरनो १-ज्योतिषीनो १-ने वैमानिकनो १ (एम २४ दंडक छे.) ( अहिं चेव ए शब्दमां चकार समुच्चयवाचक ने एव निश्चयवाचक गाथा पूर्त्यर्थ छे )
विस्तरार्थः-आ गाथामां २४ दंडकनां नाम कयां छे, त्यां 'नेरइया'-साते प्रकारना नारकनो १ दंडक गणेलो छे, ते ७ नारकनां नाम-रत्नप्रभा पृथ्वीमा नारक, शर्कराप्रभाना नारक, वालुकामभाना नारक, पंकप्रभाना नारक, धूमप्रभाना नारक, तमः प्रभाना नारक ने तमस्तमःप्रभाना नारक. तथा 'असुराइ'-असुरकुमारादि १० भवनपसिना १० दंडक, तेनां नाम-असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, ने द्वीपकुमार (आ अ
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॥ चतुर्विंशतिदंडकवर्णनम् ॥ (५) नुक्रम तत्वार्थनो छे.) अहिं १५ 'परमाधार्मिकदेवो अमुरकुमारनिकायना छे. तथा 'पुढवाई-पृथ्वीकाय विगेरे ५ दंडक तेनां नाम
-पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय, ने वनस्पतिकाय तथा 'बंदियादओ'-दीन्द्रियादि ३ दंडक तेनां नाम-दीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय, ने चतुरिन्द्रिय ए ३ विकलेन्द्रिय पण कहेवाय छे. तथा 'ग
भयतिरिय'-गर्भज तिर्यचनो १ दंडक, तेमज (गन्भय) 'मणुस्सा'गर्भज मनुष्यनो १ दंडक, तथा व्यन्तर ८ प्रकारना अथवा १६ प्रकारना अथवा १०५ प्रकारना तेनां नाम-भूत-पिशाच-यक्ष --राक्षस--किन्नर-किंपुरुष--महोरग--ने गंधर्व ए आठ मूळव्यन्तर छेतथा व्यन्तरनी बीजी वाणव्यन्तर नामनी जातिना पण ८ भेद छे तेनां नाम-अणपन्नि--पणपनि ऋषिवादि-भूतवादि--कंदित-- महाकंदित--कोहंड-ने पतंग ए प्रमाणे ८ मळी १६ प्रकारना व्यन्तर कह्या, अने ए सर्वना उत्तरभेद मळीने १०५ प्रकारना व्यन्तर देवो छे तेनां नाम
१० किन्नर. । १० किंपुरुष. | १० महोरग. १२ गांधर्व. १ किन्नर १ पुरुष १ भुजग १ हाहा २ किंपुरुष २ सत्पुरुष २ भोगशाली ३ किंपुरुषोत्तम ३ महापुरुष ३महाकाय ३ तुंबरु ४ किन्नरोत्तम ४ पुरुषवृषभ ४ अतिकाय ४ नारद ५ हृदयंगम ५ पुरुषोत्तम ५ स्कंधशाली ५ ऋषिवादिक ६ रूपशाली ६ अतिपुरुष ६ मनोरम भूतवादिक ७ अनिन्दित ७ मरुदेव ७ महावेग ७ कादंब ८ मनोरम । ८ मरुत ८ महेष्वक्ष ८ महाकादंब
१ अंब- अंबरीव-शबल श्याम-रौद्र-उपरौद्र-असिपत्र-धनुकुंभ-महाकाल-काल-वैतरणी वालुक-महाधोष-खरस्वर- ए नामना १५ परमाधार्मिक देवो असुरकुमार निकायना छे.
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(६)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
९ रतिप्रिय ९ मेरुपम ९ मेरुकान्त' । ९ रैवत १० रतिश्रेष्ठ १० यशस्वत् १० भास्वन्त ... १० विश्वावसु
११ गीतरति
१२ गीतयश १३ यक्ष. । ७राक्षस. | ९ भूत. । १६ 'पिशाच १ पूर्णभद्र १ भीम
१ सुरूप
१ कुष्मांड २ माणिभद्र
२ महाभीम २ प्रतिरूप | २ पटक ३ श्वेतभद्र ३ विघ्न ..३ अतिरूप
३ जोष ४ हरिभद्र
१ विनायक ४ भूतोत्तम ४ आन्हक ५ सुमनोभद्र ५ जळराक्षस ५ स्कंदिक ५ काळ ६ व्यतिपाति- ६ राक्षसराक्षस ६ महास्कंदिक ६ महाकाळ
कभद्र | ७ ब्रह्मराक्षस ७ महावेग | ७ चोक्ष ७ सुभद्र
८ प्रतिच्छन्न ८ अचोक्ष ८ सर्वतोभद्र
९ आकाशग | ९ तापिशाच ०. मनुष्ययक्ष
१० मुखरपिशाच १० वनाविपति
११ अधस्तारक ११ वनाहार १२ रूपयक्ष
१३ महादेह १३ यक्षोत्तम
१४ महाविदेह १५ तूष्णिक
१६ वनपिशाच तथा १० तिर्यगजुंभक नामना व्यन्तरजातिना देव छे तेनां नाम-अन्नजभक--पानजंभक-वस्त्रजुंभक--- ३मजुंभक--शय्याभक--पुष्पमुंभक--फलजुभक---पुष्पफलजुभक---विबाजुभक--ने अव्यक्तनँभक ए १० प्रकारना देवो तीर्खालोकमां
१ श्री द्रव्यलोकप्रकाशे देह-महादेह ने विदेहपूर्वक १६ . पिशाच गणाव्या छे, अने श्रीतस्वार्थ भाष्यमां देहने महावि. देह ॥ बे भेदपूर्वक १५ पिशाच कह्या छे.
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॥ चतुर्विशतिदंडकवर्णनम् ॥ (७) चित्र-विचित्र-यमक- समक-कंचनगिरि-वैतादयः वक्षस्कार विगेरे वर्वतोमा वसे छे अने अनादि पदार्थोमा रसादिकनी हीनाधिकता करवानी जूभना--चेष्टावाला होवाथी तिर्यगजभक कहेवाय छ. ए प्रमाणे ( १०-१०-१०-१२-१३-७--९-१६-१० ) उत्तरभेदो ९७ तथा ८ मूळभेदो मळी १०५ प्रकारना व्यन्तर देवो कहा. तथा ५ प्रकारना अथवा १० प्रकारना ज्योतिपी देवो छे तेनां नाम-चंद्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र-ने तारा ए ५ मूळ ज्योतिषी देवो छे, ते पण दरेक २॥ द्वीपमा चर-चालता छ, ने २॥ द्वीप बहार स्थिर छे. माटे चर अने स्थिर ए बे भेदवडे गुणतां १० भेद थया. दरेक चंद्र इन्द्रनी आज्ञामां रहेनार अने पाछळ पाछळ चालनार अथवा साथे रहेनार दरेक चंद्रना ८८ ग्रह-२८ नक्षत्र-ने ६६९७५ कोडा कोडि तारा छे, अने सर्व चंद्र तथा सर्व मूर्य असंख्य असंख्य छे. छतां जातिभेदे ५ अथवा १० गणाय छे. पुनः ए ८८ ग्रह विगेरे जे चंद्रनो परिवार कह्यो तेज सूर्यनो परिवार पण छे, परन्तु सूर्य इन्द्रनो परिवार जुदो नथी, अर्थात् एक जातना परिवार उपर बे इन्द्रोनी आज्ञा छ, अथवा बे इन्द्रोनो भेगो एकन परिवार छे. तेमां पण मूर्य इन्द्र करतां चन्द्र इन्द्र मोटो महडिकने पुन्यवान् बळवान् गणाय छे, माटे.सामान्य रीते ग्रहादि चन्द्रनो परिवार के एम विशेष प्रसिद्धि छे.
तथा 'वेमाणी-वैमानिक देवोना मूळ कल्प अने कल्पातीत एम बे भेदो छ, उत्तरभेदो २६ अथवा ३८ भेद छे-तेमां १२ कल्प ने १४ कल्पातीत देवो मळो २६ भेदनां नाम
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( ८ )
१२ कल्प.
१ सौधर्म. २ ईशान.
३ सनत्कुमार ४ माहेन्द्र.
५ ब्रह्म.
६. लांतक..
७ शुक्र.
८ सहस्रार.
९ आनत.
१० प्राणत.
११ आरण.
१२ अच्युत.
॥ दंडक विस्तरार्थः ॥
१४ कल्पातीत.
१ सुदर्शन,
२ सुप्रतिबद्ध
३ मनोरम.
४ सर्वभद्र.
५ विशाल,
६ सुमन. ७ सौमनस.
८ प्रियंकर.
९ आदित्य
१ विजय.
२
वैजयंत.
३ जयन्त.
४
अपराजित. ५ सर्वार्थसिद्ध.
( आ ९ ग्रैवेयक देवो कहेवाय छे. )
(आ पांच अनुत्तर विमा नवासीदेवो कहेवाय छे.)
तथा ब्रह्मदेवलोकने अन्ते रहेनार ९ लोकान्तिक देवो
तथा ३ किल्लिपिक देवो छे, ते आ प्रमाणे
९ लोकान्तिक.
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३ किल्बिविक.
१ सारस्वत.
१ सौधर्म अने ईशान
१ लोकांतिकना सर्व देवो २४४५५ ने मतान्तरे २२६३७७ े. ते सर्व एकावतारी अथवा मतान्तरे ७-८ अवतारी ब्रह्मदेवलोकना, त्रीजा पाथडे आठ कृष्णराजीओना मध्यमां रहेला नव विमानोमा रहेनारा छे.
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॥ चतुर्विंशतिदेडकवर्णनम् ॥ (१) २ आदित्य. ३ वन्हि.
कल्पनी नीचे रहेनारा. ४ अरुण. ५ गर्दतोय.
२ सनत्कुमार अने माहेन्द्र ६ तुषित. ७ अव्याबाध.
कल्सनी नीचे रहेनारा. ८ मरुत. ९ अरिष्ट,
३ लांतक कल्पनी नीचे रहेनार. एप्रमाणे २६ अने १२ मळीने वैमानिकना ३८ भेद पण थाय छे. सर्व देव संख्या. १० भुवनपति
ए प्रमाणे "श्री द्रव्यलोकप्रकाशमा" देव१५ परमाधामी १०५ व्यन्तर । ना भेद १७८ गणान्या छे ते प्रमाणे अहीं १० ज्योतिषी । पण गणाच्या. ३८ वैमानिक १७८ ( इति चतुर्विशति दंडकभेदप्रभेदवर्णनम्.) ___ शंका- २४ दंडकोमा ७ नारकीनो भेगो १ दंडक गण्यो अने १० भुवनपतिना जुदा जुदा १० दंडक गण्या तेनु कार• ण ? तथा सम्मूच्छिम तिर्यच अने सम्मूच्छिम मनुष्यनो दंडक केम न गण्यो ?
उत्तर-आ दंडकपकरणना रचनार ग्रन्थकारे दंडकनी सं. ख्या सिद्धान्तने अनुसारे राखी छे, अने सिध्धान्तोमा सर्वत्र पू. वर्वोक्त रीतेज संख्या गणावी छे, तेनुं यथार्थ कारण श्री बहुश्रुतगम्य छे, परन्तु प्रायः एम समजाय छे के संख्या बांधवी ए वक्तानी इच्छाने आधीन छे माटे सात नारकीनो एकज ने १० भुवन
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(१०)
॥ दंडकविस्तरार्थः ।
ना १० दंडकनी संख्या राखी अने सम्म० तिर्यंच तथा सम्मू० मनुष्यने कंइक वस्वत. तिर्यंच-तथा मनुष्यना दंडकमां अंतर्गत करेल छे. छतां दरेक द्वार वर्णन प्रसंगे हुए बन्ने भेदमां पण स्पष्ट समजाय तेवी रीते जुदो द्वारावतार करीझ.
तथा जेने विषे जीव स्वकृतकर्मनो दंड पामे ते 'दंडक कहे
१ एकार्थक सरखो पाठ जेनी अंदर आवे ते दंडक कहेवाय छे. जेम ' उख, नख, णख, वख, मख इत्यादि गती' ए दंडक धातु कहेवाय छे. तेम प्रायः साते नरकमां सरखा पाठ आळावा : नेरइया ' शब्दे करी सिद्धान्तोमा घणुं करी देखाय छे. माटे ते एक दण्डक जाणवो अने दश भुवनपतिओमां घणुं करी । असुरकुमारा ''जाव थणियकुमारा' इत्यादि शब्दो बडे अलंग अलग आलावाओ सूचव्या छे. माटे ते दशदण्डको समजाय छे. तेज रीते एकेन्द्रियना अधिकारमा घणे भागे 'पुढविकाइया ' इत्यादि शब्दो बडे अलग अलग आलावाओ आवे छे. माटे तेना पांच दण्डको अलग जणाय छे. धळी गुरुसम्प्रदायथी ए पण एक हेतु समजाय छे जे रत्नप्रभा तथा शर्फराप्रभानी वच्चे तेना आधार भूत घनोदधि-घनवात-तनुवात आकाशनुं अन्तर छे पण असुरकुमार अने नागकुमारनी वच्चे जेम नरकना पाथडानुं अने नारकी जीवोनुं अन्तर छ तेवू कोइ अन्तर नथो तेवीज रीते साते नरकमां पण एक बीजानी वच्चे बीजु कांइ अन्तर नथी माटे ते साते नारकीना जीवो अव्य. वहित गणाय छे. जेथी तेओनो एक दण्डक छे. अने भुवनप. तिमां एक बीजानी बच्चे नरकना पाथडानुं अन्तर होवाथी दरेकना अलग अलग मळी दश दण्डको जाणवा, आज कार
थी व्यन्तरोना अनेक प्रकारो होवा छतां पण तेमां एक बी. जाने अन्तर नही होवाथी एकज दण्डक छे. तेमज वैमानिको. ना कल्प-कल्पातीत-लोकान्तिक-किल्बिषिक इत्यादि अनेक भेदो होवा छतां पण अन्तरनो अभाव होवाथी ते वैमानिक एकज दंडक कहेबाय छे. ( सू. च. से. उ. ग.)
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॥ चतुर्विशतिदंडकेचतुर्विशतिद्वारवर्णनम् ॥ (११) वाय, अथवा दंडक शब्द ते ते जीवोनो समुदाय ग्रहण करवा माटे छे (एम श्रीदंडकवृत्तिमां कडं छे.)
पुनः आ प्रकरणमा सूक्ष्म अने अपर्याप्त जीवोनो अधिकार पण प्रायः नयी-(श्रीदंडक वृत्तिः )
अवतरण--आ बे गाथाओमां ( २४ दंडक उपर उतारवा) माटे २४ द्वारनां नाम कहेवाय छे. संखित्तयरी उ इमा, सरीरमोगाहणा य संघयणा। सन्ना संठाण कसाय, लेसिन्दिय दुसमुग्धाया ॥३॥ दिट्ठी दंसणनाणे, जोयुवओगोववाय चवणठिई । पज्जत्ति किमाहारे, सन्निगइ आगई वेए ॥४॥
(संस्कृतानुवादः) संक्षिप्ततरा त्वियं, शरीरमवगाहना च संहननानि । संज्ञासंस्थानकषाय-लेश्येन्द्रियद्विसमुद्घाताः ॥३॥ दृष्टिदर्शनं ज्ञानं, योग उपयोग उपपातश्च्यवनं स्थितिः। पर्याप्तिः किमाहारः, संज्ञिर्गतिरागतिर्वेदः ॥ ४॥
॥शब्दार्थः ॥ सखित्तयरी-अति संक्षेपवाळी. | संघयण-संघयण (६) उ-वळी.
सन्ना-संज्ञा (४) इमा-आ (२४ द्वाररूपसंग्रहणी.) संठाण-संस्थान (६) सरीरं-शरीर (५)
कसाय-कषाय (४) ओगाहणा-अवगाहना..
लेस-लेश्या (६)
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(१२) ॥ दंडकविस्तरार्थः ॥ इंद्रिय-इन्द्रिय (५) चवण-च्यवन-(मरण). दुसमुग्घाया-समुद्घात. ठिई-स्थिति-(आयुष्य) दिहि-दृष्टि (३)
पज्जत्ति-पर्याप्ति (६) दसण-दर्शन (४)
किमाहारे-कइ दिशिनो आहार ? नाणे-ज्ञान (८)
सन्नि-संज्ञा (३) जोग-योग (१५) गइ-गति. उवओग-उपयोग (१२)
आगइ-आगति. उववाय-उपपात-(जन्म). ए-वेद (३) __गाथार्थः-अति संक्षेपवाळी ( २४ द्वाररूप संग्रहणी) आ (प्रमाणे छे.)-शरीर-अवगाहना--संघयण--संज्ञा--संस्थान--कपाय--लेश्या--इन्द्रिय-बे समुद्घात--दृष्टि-दर्शन-ज्ञान- अज्ञान--- योग--उपयोग--उपपात-जन्म-मरण--आयुष्य- पर्याप्ति- कइ दिशिनो आहार--संज्ञिप[---(संज्ञा)--गति--आगति---अने वेद ( ए २४ द्वार छे.)
विस्तरार्थः-२४ दंडकोमा २४ द्वारोनो अवतार मात्र ४४ गाथामांज करेलो होवाथी 'संखित्तयरी उ इमा'-आ २४ द्वाररूप संग्रहणी--( संग्रहन स्त्रीलिंग संग्रहणी ) अति संक्षिप्त छे. ते २४ छारोनुं किंचित् स्वरूप कहेवाय छे.
॥ १ शरीरडार.॥
शीर्यते--विनाश पामे ते शरीर पांच प्रकारना है. ते आ प्रमाणे-१ उदार--( विशाळ-प्रधान ) गुणवाळा एवा. श्री ती. थैकर--गणधर--सर्वज्ञ--सर्व विरति--चक्रवर्ति- वासुदेव--प्रतिवासुदेव
१. मूळ गाथामां. अज्ञानद्वार कह्यं नथी कारणके ज्ञानद्वारमां अज्ञानद्वारने अंतर्गत गणेल छे, ते अंतर्गत अज्ञानद्वारने छुटू पाडतां अहिं २४ द्वार थाय.
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॥ प्रथमशरीरद्वारवर्णनम् ॥ (१३) -बळदेव--इत्यादिने प्राप्त थतुं होवाथी, अथवा मोक्षरूप उदारगुण अथवा अनंत लब्धिरूप उदारगुण ए शरीर घडेज प्राप्त थतो होवाथी अथवा उदार एटले स्थूल पुद्गलोर्नु बनेलं तिर्यंच--अने मनुष्योनुं शरीर औदारक कहेवाय छे. १
२ तथा विविधप्रकारनी क्रियाओवाढं एटले एक होइने अनेक थाय, अनेक होइने एक थाय, भूमिचर होइने आकाशचारी थाय, आकाशचारी होइने भूमिचारी थाय, नाना होइने मोटा थाय, मोटा होइने नाना थाय, हलकुं होइने भारी थाय, ने भारी होइने हलकुं थाय, दृश्य होइने अदृश्य थाय, अने अदृश्य होइने दृश्य थाय इत्यादि अनेक प्रकारनी क्रियावालं अथवा शक्तिवाडं जे शरीर ते वैक्रियशरीर सर्व देव-सर्वनारक--केटलाएक गर्भज मनुष्य--केटलाएक गर्भजतिर्यच अने केटलाएक बादरपर्याप्ता वायुकायने होय छे. २
३ आमाँषधि आदि लब्धिवाळा १४ पूर्वधर मुनि महाराज श्रीजिनेश्वरनी ऋधि देखवाने अथवा सूक्ष्मशंकानुं निराकरण करवाने १ हाथ प्रमाणनु नवु शरीर बनावी श्री विहरमान तीर्थकर पासे मोकले ते 'आहारक शरीर कहेवाय.आ शरीरना परमाणुओ वैक्रिय शरीरना परमाणुओथी तद्दन भिन्न तथा सूक्ष्म होवाथी अने केटलाएक गुण वै० शरीरथी जुदा होवाथी ए शरीर वैक्रियान्तर्गत न गणाय.
४ आहार पचाववामां, तेजोलेश्या मूकवामां, ने शीतलेश्या
१ आखा भवमां वर्ततां चारवार आहारक शरीर बना. वे एक. भवमा उत्कृष्ट बे वारज बनावे. आहारक शरीरनो जघन्य विरह काल १ समय, उत्कृष्ट छ मास अथवा मतान्तरे वर्षपृथक्त्व विरहकाळ छे.
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॥ दंडकविस्तरार्थः ॥ मूकवामां जे कारणरूप शरीर ते तैजस शरीर सर्व संसारी जी. वने होय. ४
५ कर्मपुद्गलोथी बनेल ते कामण शरीर, केटलाएक आठ कर्म परमाणुओना समुदायरूप-(१५८ प्रकृतियोना समुदाय)ने कहे छे. पण ते उचित समजातुं नथी. कारण कार्मण शरीर नाम कर्मना भेदरूप, बोरने कुंडानी जेम सर्व कर्मनो आधार छे. ते कामंण शरीर पण सर्व संसारी जीवने होय छे. आ शरीर जीवने परभवमां लइ जनार होय छे. ५ ॥इति प्रथमं शरीरद्वारम्॥१॥
॥ २ अवगाहनाहार. ॥
कया जीवनुं शरीर केटलं मोटुं होय, एम कहेवू ते अवगाहनाद्वार कहेवाय. ॥ इति द्वितीयमवगाहनावारम् ॥२॥
॥३ संघयणहार. ॥
हाडकाना समूहनुं बंधारण ते संहनन कहेवाय. तेना ६ भेद आ प्रमाणे-१ संधिने स्थाने हाडना बे छेडा एक बोजाने परस्पर आंटी मारीने वांदरीना बच्चानी पेठे वळगी रहेला होय, ने ते बन्ने छेडा उपर मध्यमां हाडकाना पाटो वौंटायळो होय, अने ते उपरथी चारे अंगने एटले प्रथम पाटाने, तेनी नीचे संधिगतहाडने, तेनी नीचे संधिगत वीजा हाहने, ने तेनी नीचे पाटाने
१ सर्व शरीरनी उत्पत्तिमां, भवान्तर जवामां, प्रथम स. मये आहार पुद्गलो लेवा विगेरेमां कारणरूप छे.
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॥ संहननद्वारवर्णनम् ॥ (१५) (ए चारने) मेदीने हाडकानी खीली आरपार नीकळी होय, एवा प्रकारनी संधीना हाडकानी मजबुताइनुं नाम वज्रर्षभनाराच (-वज्र-खीली, ऋषभ-पाटो, नाराच-मर्कटबंध ) संहनन कहेवाय: १
२ हाडकानी खीली सिवाय पूर्वे कहेली संधिगतहाडनी मजबु. ताइ, के जेमां ऋषभ-पट्टो, ने नाराच-मर्कटबंध बेज होय ते ऋषभनाराच संहनन कहेवाय. २
३ पूर्वोक्त रीते एकलो मर्कटबंध होय ते नाराच संहनन. ३
४ पूर्वोक्त मर्कटबंध हाडकानां वन्ने छेडाना परस्पर हतो तेम नहिं होतां मात्र एक छेडो बीजा छेडाने मर्कटबंध रीते वळगेलो होय ने बीजो छेडो सीधो होय, तथा तेना मध्यमांथी हाड खीली पण आरपार थइ होय तो तेवी संधि रचनानुं नाम अर्ध नाराच कहेवाय. ४
५ तथा हाडना. बे छेडा एक उपर एक सीश चढेला होय ने वचमां खीली आरपार थइ होय तो तेवी संधिरचनानुं नाम कीलिका संहनन कहेवाय. ५
६ तथा हाडनो एक छेडो खोमण (-स्हेज खाडा) वाळो होय अने तेमा हाडनो बीजो छेडो अडकीने रहेलो होय, तेवी संधिर चनानु नाम छेदपृष्ठ संहनन कहेवाय, आ संहननमां बे छेडा सामासामी आवीने स्पर्शला होय पण एक बीजापर चडेला होता नथी, अने खीली होती नथी माटे कोइ हाडने खेचतो खोभणमांथी बहार नीकळी जतां " हाडकुं उतरी गयुं " कहेवाय अने बे हाडकांने एवा प्रकारनो आंचको लागतां खोभणमांथी नीकली एक बीजापर चढी जाय त्यारे " हाड• चढी गयुं " कहेवाय. तथा तैलादि मसल्वारूप सेवा वडे आत एटले पीडायलं (-ते वडे दृढ रहेना5) होवाथी एनुं बीजु नाम सेवास पण छे. ६ "संह
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(१६)
। दंडकविस्तसर्थः॥
न्यन्ते-दृढी क्रियन्ते. शरीरपुद्गला येन तत् अथवा संहन्यन्ते संहति (शक्ति) विशेष प्राप्यन्ते शरीरावस्थावयवा यैस्तानि संहननानि" (-जेनावडे शरीर पुद्गलो संहन्यन्ते एटले दृढ कराय अथवा जेना पडे शरीरमा रहेला अवयवो शक्ति विशेष पामे ते संहनन एवो व्युत्पत्यर्थ छे.) ॥ इति तृतीयं संहननद्वारम् ॥३॥
॥४ संज्ञाहारम. ॥
बेना वडे 'संजानाति एटले जाणे छे ते संज्ञा ते ज्ञानरूप अने अनुभवरूप एम वे प्रकारनी छे त्यां मति-श्रुत-इत्यादि आठ ज्ञानरूप संज्ञा छे, अने बीनी अशाता वेदनीयादिकर्मना उदयथी उत्पन्न थयेली आहारादिकनी अभिलाषात्मक अनुभवरूप संज्ञा ४-१०-ने १६ प्रकारनी छे. ते आ प्रमाणे
१ क्षुधारूप अशाता वेदनीयकर्मना उदयथी आहार ग्रहणनी जे इच्छा ते आहारसंज्ञा.
२ भयमोहनीय कर्मना उदयथी उत्पन्न थयेल त्रास उपजवा. रूप ते भयसंज्ञा.
३ वेद मोहनीयना उदयथी उत्पन्न थयेल विषयाभिलाष ते मैथुनसंज्ञा.
४ लोभ मोहनीयना उदयथी उत्पन्न थयेल तृष्णा ते परिग्रहसंज्ञा.
ए चारे संज्ञाओ सर्व संज्ञि जीवोने प्रगट अनुभवरूप छे अने एकेन्द्रियादि सर्व असंज्ञि जीवोने अस्पष्ट अनुभवरूप छे. तथा ए चार संज्ञाओमां चार कषायरूप ४ संज्ञाओ अने लोक तथा ओघ
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॥ चतुर्थसंज्ञाद्वारवर्णनम् ॥
(१७)
संज्ञा मेळवतां १० संज्ञाओ पण कही छे. त्यां मतिज्ञानावरणना क्षयोपशमथी शब्द अने अर्थना विषयवाळी सामान्य अवबोधरूप क्रिया ते ओघसंज्ञा १ अने शब्द तथा अर्थनो विशेषावबोधक्रिया ते लोकसंज्ञा, २ (इति प्रव० सारो० वृत्ति). अथवा दर्शनोपयोग ते ओघसंज्ञा अने ज्ञानोपयोग ते लोकसंज्ञा (इति ठाणांग वृत्ति.) अथवा वल्लीनुं जमीन छोडीने भींत वंडी या वृक्ष इत्यादि पर चढवू इत्यादि ओघसंज्ञा, अने पुत्ररहितने सद्गति न होय, कूतरा ते यक्ष छे, ब्राह्मण ते देव छ, कागडा ते पूर्वज छे, मयूरीने मोरनी पांखना वायुथी अथवा मयूरनां आंसु चाटवाथी गर्भ रहे छे इत्यादि लोकोए स्वच्छंदमति कल्पनाथी उपजावेली कल्पना
ओ ते लोकसंज्ञा (इति आचारांग वृत्ति). ए १० संज्ञाओ कही. ____ तथा मोह-धर्म-सुख-दुःख-जुगुप्सा-ने शोक ए ६ संज्ञाओ श्री आचारांगजीमां कहेली होवाथी पूर्वोक्त १० साथे मेळवतां १६ संज्ञाओ पण थाय. जीव जे संज्ञी अथवा असंज्ञी कहेवाय छे ते ए ४-१० वा १६ संज्ञाओवडे नहिं, पण आगळ कहेवाती दीर्घकालिकी आदि संज्ञाओवडे संज्ञि असंज्ञिपणु कहेवाय छे. ___ एकेन्द्रिय जीवोमा बादर प्रत्येकवनस्पतिने अंगे १० संज्ञाओ लिंगरूपे नीचे प्रमाणे कही छे
१ वृक्षने जळनो आहार होय छे माटे एकेन्द्रियने आहारसंज्ञा.
२ लज्जालु नामनी वनस्पतिने हाथ अडाडवा जइए तो सं. कोचाइ जाय छे माटे एकेन्द्रियने भयसंज्ञा.
वेलडी पोताना तंतुओवडे वृक्षने वींटी लेछे तेथी ते एकेन्द्रियने परिग्रहसंज्ञा.
४ कुरुवक नामर्नु वृक्ष स्त्रीना आलिंगनवडे फळीभूत थाय के माटे एके०ने मैथुनसंज्ञा..
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(१८)
। दंडक विस्तरार्थः ॥
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५ कोकनद नामनो कंद हुंकारो करे ? माटे क्रोधसंज्ञा.
६ रुदंती वेलना रसना स्पर्शथी सुवर्णसिद्धि थाय छे, अने ते वेलमाथी रसनां टपका झरतां रहे छे, जे परथी मानसंज्ञानुं अनुमान थाय छे. अर्थात् हुं होते छते जगत्मां गरीबाइ केम होय? एवा अभिमानथी आंसु टपकावे छे ए हेतुथी मानसंज्ञानुं अनुमान थयेलं छे.
७ वेलडी पोतानां फळोने ढांकी देछे माटे मायासंज्ञा.
८ बीली अथवा धोळो खाखर प्रायः दाटेला निधान उपर उगे छे अने पोतानां मूळ ते निधानपर फेलावी वींटी लेछे माटे लोभसंज्ञा.
९ कमळो रात्रे संकोच पामे छे माटे लोकसंज्ञा. १० वेलडी जमीनमार्ग छोडीने भींत या वृक्षपर उर्ध्व चडे छे. माटे ओघसंज्ञा.
ए प्रमाणे बादर वनस्पतिने १० संज्ञाओनां लक्षण कयां, अने ते प्रमाणे बीजा दरेक जीवोमां कोइमां स्पष्ट तो कोइमां अस्पष्ट पण ए संज्ञाओ रहेली छे. (४) ॥इतिचतुर्थ संज्ञाद्वारम्॥४॥
॥ ५ संस्थानद्वारम् ॥
सामुद्रिकशास्त्रोक्त प्रमाणसहित वा प्रमाणरहित अवयवोनी रचनाथी थयेलो शरीरनो शुभाशुभ आकार ते संस्थान कहेवाय. ते ६ प्रकारनां छे, तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे. शरीरना सर्व अवयवो प्रमाणसर होय ते समचतुरस्र सं
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॥ पञ्चमसंस्थानद्वारवर्णनमः ॥ (१९) स्थान कहेवाय. आ संस्थानवाळो मनुष्य पर्यकासने बेठेल होयतो तेना डाबा ढींचणथी जमणा खभा सुधीन माप, जमणा ढींचणथी डाबा खभानु, अने पर्यकासनना मध्यथी नासिकाग्रसुधीनुं माप एक सरखं होय छे माटे सम-सरखा छे. चतुः-(बे खभाने बे टींचणरूप)चारे अस्र खूणा ते जेमां ते समचतुरन संस्थान कहेवायः
२ तथा न्यग्रोध एटले वडनी पेठे नाभिथी उपरना अवयवो प्रमाणसर होय ने नाभिथी नीचेना अवयवो प्रमाणथी न्यूनाधिक होय ते न्यग्रोध संस्थान.
3 तथा आदि एटले पगना तळीयाथी नाभि सुधीना प्रथम अंगाधना अवयवो प्रमाणसर होय ने उपरना अवयवो प्रमाण रहित होय ते सादि संस्थान (अहिं केटलाएक आ संस्थानने साचि एटले शाल्मली वृक्ष सरखा आकारवाल एम पण कहे छे.)
४ मस्तक-ग्रीवा-हाथ-ने पग ए ४ अंग प्रमाण सर होय अने शेष अवयवो प्रमाण विनाना होय ते वामनसंस्थान.
५ मस्तक-ग्रीवा-हाथ-ने पग ए ४ अंग प्रमाणरहित होय अने बीजा अवयवो (प्रायः) प्रमाण सर होयतो कुब्जसंस्थान.
६ प्रायः सर्व अवयव प्रमाण रहित होय ते हुंडकसंस्थान ॥ इति पञ्चमं संस्थानद्वारम्. ॥ ५ ॥
॥ कषायहारम. ॥
कप एटले संसारनो आय एटले लाभ जनावडे थाय ते क. पाय कहेवाय, ते क्रोध-मान-माया-ने लोभ ए चार प्रकारना छे.
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(२०)
॥ दंडकविस्तरार्थः ।।
बीजा पण १६ अथवा ६४ प्रकार ग्रन्थान्तरथी जाणवा. ॥इति षष्ठं कषायद्वारम्. ॥६॥
॥ ७ लेश्याहारम. ॥
"श्लिष्यते कर्मणा सह जीव आभिरिति लेश्याः"-जेनावडे आमा कमवडे श्लिष्यते-संबंधवाळो थाय ते लेश्या कहेवाय. तेना ट्रव्यथी अने भावथी एम बे भेद छे, त्यां आन्माना योगपरिणाम रूप हेतुथी प्राप्त थतां अमुक प्रकारनां पुद्गलो ते द्रव्यलेश्या. द्रव्यलेश्यारूप पुद्गलोथी यतो जे आत्मपरिणाम ते भावलेश्या.
ए बन्ने लेश्या कृष्ण-नील-कापोत-तेजो-पम-ने शुक्ल एम ६ प्रकारनी छे. तेमां कृष्णादि प्रथमनी ३ लेश्या अशुभपरिणामरूप छे, अने तेमो आदि उपरनी ३ लेश्या शुभ परिणामवाळी छे, पुनः अशुभ ३ लेश्यामां पण कृष्णलेश्या अत्यंत अशुभ परिणामवाळी, नीललेश्या तेथी अल्प अशुभ परिणामवाली, ने कापोतलेश्या तेथी पण अल्प अशुभ परिणामवाळी छे, तेवीज रीते तेजोलेश्या अल्पविशुद्ध परिणामवाळी, पद्मलेश्या अधिक विशुडिवाळी, अने तेथी शुक्ललेश्या अधिक विशुद्धिवाळी छे. पुनः कृष्णलेश्या असंख्य अध्यवसायवाळी छे, ने ते अध्यवसाय( आत्म परिणाम )मां पण प्हेला अध्यव०थी बीजो अध्यव० अतिविशुद्ध तेथी त्रीजो अधिक विशुद्ध ए प्रमाणे असंख्य अध्यवमायो अनुक्रमे अधिक अधिक विशुद्ध छे, ए प्रमाणे नीललेल्यातथा कापोतलेश्याना पण असंख्य अध्यवसायो अनुक्रमे अधिकाधिक विशुद्ध जाणवा. तोपण ए सर्व अध्यवसायो उपरनी त्रण
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॥ सतमलेश्याद्वारवर्णनम्॥ (२१) लेश्याना शुद्ध अध्यव०नी अपेक्षाए अशुभज गणाय छे. तथा तेजो आदि प्रणे शुभ लेश्यामां पण असंख्य अध्यवसायो अनुक्रमे अधिक अधिक विशुद्ध जाणवा. ___ तथा प्रथमनी ३ (द्रव्य)लेश्याओनो वर्ण-गंध-रस-स्पर्श अशुभ छे, ने उपरनी ३ द्रव्यलेव्याओनो वर्ण-गंध-रस-स्पर्श शुभ छे.
तथा मनुष्य अने तिर्यंचनी द्रव्यलेश्याओ दरेक अन्तर्मुहूर्त बदलाया करे छे, अर्थात् कृष्णलेश्यानां पुद्गलो ते अन्तर्मु० बाद नीलादि ५ मांथी कोइपण लेश्यारूप थइ जाय छे, एज प्रमाणे नीलादि सर्व लेश्यानां पुद्गलोनो वर्ण-गंध-रस-स्पर्श अन्तर्मुः बाद अन्य लेश्याना वर्णादिरूपे थइ जाय छे. माटे मनुतिर्यनी लेश्याओ वस्त्र समान कही छे, कारणके वस्त्रने रंगमां बोळतां जेम सद् रंगमय थइ जाय छे, तेमां कृष्णद्रव्यो ते नीलद्रव्यना संबं. धथी नीलरूप थइ जाय छे. पुनः देव अने नारकनी द्रव्यलेश्याओ स्फटिकवत् कही छे, कारणके स्फटिक जेम भिन्नवर्णना पुष्पादिकना संयोगथी साशे स्वरूप त्याग कर्या विना ते रंगवाडं देखाय छे, पण स्वरूपनो त्याग नथी करतुं. माटे देवनारकोनी द्रव्यलेश्या अवस्थित छे. पुनः भावलेश्याओ तो चारे गतिवाळाने अन्तमू० बाद बदलाया करे छे. चालु दंडक प्रकरणना अधिकारमां द्रव्यलेश्यानोज अधिकार छे. ॥इति सप्तमं लेश्याहारम् ॥७॥
॥ ८ इन्द्रियहारम् ॥
इन्द्र एटले आत्मा तेनु जे चिन्ह ते इन्द्रिय, अथवा इन्द्र एटले आत्माने ज्ञान थवा जे द्वार ते इन्द्रिय ते स्पर्शन-रसनाघाण-चक्षु-ने श्रोत्र एम पांच प्रकारनी छे, त्या स्पर्शनादि ५
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(२२)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
इन्द्रियो द्रव्येन्द्रिय अने भावेन्द्रियरूप बे प्रकारे छे, तेमां पण स्पर्शन सिवायनी रसनादि ४ द्रव्य इन्द्रियो अभ्यन्तरनिति अने बाह्यनिति-( अंतरंग आकार ने बहार देखातो आकार ) एम बे प्रकारनी छे, त्यां जीव्हा-नाक इत्यादि जे दृष्टिगोचर थाय छे ते बाह्यनिति छे, अने ए बाह्य आकारोनी अंदर विषय ग्रहण करवानी शक्तिवाळां, अने दृष्टिथी नहिं देखी शकाय एवां सूक्ष्म परिणामी पुद्गलो कदंबपुष्पादि आकारे गोठवायला छे ते अभ्यन्तरनिवृति कहेवाय छे. तथा ए बन्ने द्रव्येन्द्रियोमा स्वस्वकार्य करवारूप रहेली जे शक्ति ते अभ्यन्तर तथा बाह्य उपकरणन्द्रिय कहेवाय छे, ए प्रसिद्ध सिद्धान्त छे, अने आचारांगजीमां तो इ. न्द्रियस्थाने गोठवायला स्वच्छतर आत्मप्रदेशो ते अभ्यन्तरनिईति, अने विषयग्रहण शक्तिवाळां स्वच्छतर सूक्ष्मपुद्गलो के जे कदंबपुष्पादि आकारवाला छे ते बाह्यनिति कहेल छे, अर्थात् प्रज्ञापनादिमां जेने अभ्यन्तरनिति मानी छे तेने श्रीआचारांगजी वृत्तिमां बाह्य निति मानी छे, ए प्रमाणे द्रव्येन्द्रियना भेद कह्या. हवे भावन्द्रिय आ प्रमाणे
लब्धि अने उपयोग एम भावेन्द्रिय बे प्रकारनी छे, त्यां मतिज्ञानावरणादिना क्षयोपशमथी इन्द्रियद्वारा विषय ग्रहण करवानी जे आत्मशक्ति ते लब्धि भावेन्द्रिय दरेक जीवमात्रने समकाळे पांचे इन्द्रियरूप होय छे, अने प्राप्त थयेली अभ्यन्तरनितिरूप द्रव्येन्द्रियद्वारा विषय ग्रहणमा प्रवर्तवू ते उपयोग भावेन्द्रिय ते एक भवमा कोइ जीवने एक, कोइने बे यावत् कोइने पांचे जुदे जुदे वखते होय छे.
जीव एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय इत्यादि कहेवाय छे, ते द्रव्येन्द्रिय प्राप्तिनो अपेक्षाए छे, नहिंतर लब्धिरूप भावेन्द्रियनी अपेक्षाए सर्वे
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॥८-९ इन्द्रियसमुद्घातद्वारवर्णनम्॥ (२३.) जोव पंचेन्द्रिय, अने उपयोगरूप भावेन्द्रियनी अपेक्षाए सर्वे जीव एकेन्द्रिय गणाय. इत्यादि इन्द्रिय संबंधि घणुं विवेचन नवतत्त्वविस्तरार्थमां करेल होवाथी अहिं लखायु नथी. ॥ इत्यष्टममिन्द्रियद्वारम् ॥ ८॥
॥ ९ समुद्घातहारम् ॥
सम्-एकी भावे-( एकदम-शीघ्र ) उत्-प्रबळतावडे-(आस्माना अतिप्रयत्नवडे ) घात-कर्मपरमाणुओनो विनाश करवो ते समुद्घात, वेदना-काय-मरण-वैक्रिय-तैजस-आहारक-- अने केवलिक ए प्रमाणे ७ 'प्रकारनी छे. ते दरेकन किचिंत् स्वरूप आ प्रकारे-(१) समुद्घातस्वरूप
१ अत्यन्त वेदनावडे व्याकुळ थयेलो आत्मा तीव्र प्रयत्नथी
१ गाथामां दु समुग्घाया-बे समुद्धात ते एक जीव समुद्घात ने बीजी अजीव समुदघात, ए बेमांथी अहि जीवनो अधिकार चालतो होवाथी मात्र जीवनीज ७ समुद्घातोनु व. र्णन कर्यु छे, अने अचित्त महास्कंध नामनी पुद्गल वर्गणानो एक स्कंध तथा विध विश्रसा-( स्वाभाविक) प्रयोगे अथवा विश्रसा परिणामे परिणत थयो छतो आगळ कहेवाती केवलि समुद्घातनी पद्धतिए प्रथम समये दंड, बीजे समये कपाट, त्रीजे समये मंथान, चोथे समये मंथानान्तरपूर्ति करी लोकमां सर्व व्यापी थइ पांच मे समये अन्तर संहरण, छठे समये मंथान संहरण, सातमे समये कपाट संहरण, ने आठमे समये दंड संहरण करी स्वभावस्थ अंगुलनी.. असंख्यातमा भागनी अवगाहनावाळो थाय, ए अचित्त महास्कंध संबंधि अजीव समुरातन अत्रे प्रयोजन नहिं होवाथी अर्थ प्रसंगे का नथी.
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(२४) ॥ दंडकविस्तरार्थः ॥ पोताना केटलाएक आत्म प्रदेशोने शरीर बहार काढी मुखादिकनां विवर अने खभादिकनां अन्तर पूरी शरीरनी उंचाइ ने जाडाइ जेटलो एक सरखो दंडाकार रची अशातावेदनीयनां घणां कर्म पुदूगलोनो उदीरणा करणवडे उदयावलिकामां लावी घात करे--(निजरे ते वेदना समुद्घात. _____ २ अत्यन्त कषायवडे व्याकुळ थयेलो आत्मा केटलाएक आ. स्मप्रदेशोने शरीर बहार काही मुखादिकनां पोलाण अने खभादिकनां अंतर पूरी पूर्वोक्त रीते स्वदेहप्रमाण आत्मप्रदेशोनो दंडाकार रची कषायमोहनीयकर्मनां घणां कम पुद्गलोने उदीरणा करणवडे उदयावलिकामां लावी घात करे-( भोगवीने निर्जरे ) ते कषाय समुद्घात. . ___३ मरणना अन्त अवसरे मरणथी व्याकुळ थयेलो आत्मा मरणथी अन्तर्मुः हेलां पोताना आत्म प्रदेशोने शरीर बहार काढी ज्यां उत्पन्न थवानो छे ते स्थान सुधी आत्म प्रदेशोने लंबावी स्वदेह प्रमाण स्थूळ ने उत्पत्तिस्थान सुधी ( उ० असंख्ययोजन ) दीर्घ दंडाकार रची अन्तर्मु० सुधी तेवीज अवस्थाए रही आयुष्यकर्मनां घणा पुद्गलोनो उदीरणा करणवडे उदयावलिकामां लावी घात करे ते मरण समुद्घात.
४ वैक्रिय लब्धिवाळो आत्मा पोताना आत्मपदेशोने शरीर बहार काढी जे स्थाने वैक्रिय नवं रूप रचवान छे ते स्थानथी उ. थी संख्यातयोजन प्रमाण दीर्घ अने स्वदेह प्रमाण स्थूळ दंडाकार रची पूर्वे बांधेला वैक्रियनामकर्मनां पुद्गलोने पूर्वोक्त रीते उदयमां लाववा साथे वैक्रिय शरीर वर्गणानां पुद्गलो ग्रहण करतो जाय ने उत्तरदेहनी रचना करे ते वैक्रियसमुद्घात.
५ तेजोलेश्यानी लब्धिवाळो आत्मा पोताना आत्मप्रदेशोने
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॥ तैजसआहारककेवलिसमुद्घातद्वारवर्णनम् ॥ (.२५) शरीर बहार काढी जे स्थाने तेजोलेश्या ( अथवा शीत लेश्या) मूकवानी छे ने स्थान सुधी ( उ० थी संख्यातयोजन ) दीर्घ अने स्वदेह प्रमाण स्थूळ एवो दंडाकार रची पूर्वोपार्जित तैजस परमाणुओनो पूर्वोक्त रीते घात करवा पूर्वक तेजोलेश्या ( अथवा शीतलेश्या) मूके ते तैजस समुद्घात.
६ आहारक लब्धिवाळा चौदपूर्वधर मुनि श्रीजिनेश्वरनी ऋद्धि देखवाने अथवा सूक्ष्मसंदेह निवारवाने इत्यादि कारणथी स्वशरीर प्रमाण स्थूळ अने उत्कृष्टथी संख्यात योजन दीर्घ दंड करी पूर्वोपार्जित आहारक नामकर्मनां पुद्गलो पूर्वोक्त रीते निजरखा पूर्वक आहारक देहयोग्य पुद्गलो ग्रहण करी आहारकशरीर रचे ते आहारकसमुद्घात.
७ जे केवलिने नाम-गोत्र-अने वेदनीय ए प्रण कर्मनी स्थिति पोताना आयुष्यनी स्थितिथी अधिक रही होय तो ते त्रणनी स्थितिने आयुष्यस्थिति जेटली सरखी करवा माटे अन्तर्मु० प्हेला जेणे आवजिकरण कयु होय छतां कर्मस्थिति अधिक रही जाय तो तेनुं समीकरण करवा माटे जेओर्नु अन्तर्मु० जेटलं आयुष्य बाकी रह्यं होय एवा केवलि भगवान् पोताना आत्मप्रदेशोने शरीर बहार काढी प्रथम समये लोकना नीचेना छेडाथी उपरना. छेडा सुधी दीर्घ, ने स्वदेहप्रमाण स्थूळ दंडाकार करी, बीजे समये ते दंडाकारमाथी आत्मप्रदेशोने स्वदेह प्रमाण जाडाइ कायम राखी उत्तर दक्षिण लंबावी कपाट-(कमाड) आकारे रची, त्रीजे समये पूर्व पश्चिम लंबावी मंथान-( रवैयानो ) आकार रची, चोथे स. मये चारे आंतरा पूरी समग्र लोकमां व्याप्त थाय, तदनंतर पांचमे समये आंतरामा रहला आत्मप्रदेशो संहरो मंधाना करी, छट्टे समये मंथानाकार संहरी कपाटकार करी, सातमे समये कपाटकार संहरी दंडाकार करी, आठमे समये दंड सहरी देहस्थ थाय. ते केवलि समुद्घात.
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(.२६)
॥ दंडकविस्तरार्थः॥
आ आठ समयना प्रयत्नथी त्रणे कर्मोनी स्थिति आयुष्य तुल्य थाय, अने ते साथे दरेक समये रसघात पण थाय छे, एमां त्रीजे चोथे ने पांचमे समये अनाहारक तथा कार्मण काययोगी होय, हेलेने आठमे समये औदा. योगी होय अने बीजे छ ने सातमे औदा. मिश्र योगी होय.
(१) काळनियम-केवलि समु० ८ समय प्रमाण, अने सर्व अन्तर्मु. प्रमाण छे.
(२) ग्रहणवजननियम-वेदनीय मरणने केवलि समु० मां कर्मपरमाणुओनो विनाश छे, पण नवं ग्रहण नथी, कषाय समु०मां कषायमोहनीय कर्मपुद्गलोनो विनाश, अने तेथी बीजा अधिक कषाय पुद्गलोर्नु ग्रहण पण थाय छे, ने जो तेम न थाय तो सर्वथा कर्मनो अभाव थवाथी वीतरागपणुं प्राप्त थवानो प्रसंग आवे.-तथा वै०-०-ने आहा० समु०मां ते ते नामकर्मनां पुद्गलोनो विनाश छे, ने ते ते देह वर्गणाना पुद्गलोर्नु ग्रहण छे.
(३) आभोगानाभोगनियम-वेदनाकषाय-ने मरण ए ३ समुद्रात स्वाभाविक थाय छे, पण जीव जाणी जोइने करवा जाय तोज बने एम नथी माटे अनाभोगिक, अने शेष चारे समुद्धात जीवना विचार पूर्वक थाय छे माटे आभोगिक, तथा दरेक समुद्घातमा आत्मप्रदेशो शरीरथी जे बहार नीकळे छे ते सर्व प्रदेशो बहार नीकळता नथो पण केटलाएक प्रदेशो शरीरमा पण होय ने बीजा केटलाएक बहार नीकळे छे, जेथी शरीर आत्मप्रदेश रहित थाय नहि. इत्यादि समुनु विशेष स्वरूप सिद्धान्तथी जाणवू. ॥इति नवमं समुद्घातद्वारम् ॥
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॥ दृष्टिद्वारवर्णनम् ॥
(२७)
॥ १० दृष्टिद्वारम.॥
दृश्यते अर्थानां सदसत्स्वरूपमनेनेति दर्शन-प्रदार्थोनुं सत् वा असत् स्वरूप जेनावडे देखाय-(जणाय)ते दर्शन अथवा दृष्टि सम्यग्-असम्यक् ने मिश्र एम त्रण प्रकार होवाथी सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-ने मिश्र एम ३ प्रकारनी दृष्टि छे. त्या पदार्थनु सत् स्वरूप कदी सत्रूपे ने कदी असतरूपे जाणे, असत् स्वरूपने कदी असत्रूपे ने कदी सरूपे जाणे ए रीते पदार्थना स्वरूपने य. थार्थ न जाणे ते मिथ्यादृष्टि, पदार्थना सत् स्वरूपने सत् स्वरूपे जाणे अने असत् स्वरूपने असत् स्वरूपे जाणे एम वस्तु स्वरूपने यथार्थ जाणे, ते सम्यग्दृष्टि, अने पदार्थना सत् स्वरूप बा असव स्वरूपने समकाळे केटलेक अंशे यथार्थने केटलेक अंशे अयथार्थ जाणे ते मिश्रदृष्टि ए त्रणे दृष्टिना उत्तर भेद आ प्रमाणे
१ सम्यकत्व-आत्मानो पदार्थने यथार्थपणे जाणवारूप सम्यक्वगुण रोकनार ३ दर्शन मोहनीय अने ४ अनंतानुवंधि ए ७प्रकृतियो उपशान्त थतां-(उदयथी रोकातां) आत्माने जे श्रद्धागुण प्रगट थाय ते उपशम सम्यक्त्व, अन्तर्मुहूर्त काळ मात्र टके छे. तथा आखा भवचक्रमां पांचवारज, अने एक भवमां बे वार प्राप्त थायछे.
१ अर्थात् जेम मदिरा पीवाथी विवेकविकल थयेलो जीव माने मा कहे अने स्त्री पण कहे, स्त्रीने स्त्री कहे अने स्त्रीने मा पण कहे, पोते निधन होय छतां धनवान कहे, ने निधन पण कहे ए प्रमाणे सत्य अने असत्य बन्नेरूपे बोले तोपण विवेकशून्य होवाथी सत्य ते पण असत्य अने अमत्य ते पण असत्यज गणाय, तेम मिथ्यादृष्टि सत् ने कदी सत् जाणे ने फदी असत् पण जाणे छतां असत् ज्ञानज कहेवाय. ( प भावार्थ श्रीतत्वाभाष्यमां )...
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(२८)
।। दंडकविस्तरार्थः ।
___तथा ए ७ प्रकृतियोनो सर्वथा क्षय थवाथी आत्माने जे श्रडागुण प्रगट थाय ते क्षायिकसम्यक्त्व, आखा भवचक्रमां अथवा एक भवमा एकवार प्राप्त थाय छे. अने अनंतकाळ सुधी रहेछे, पण कोइ काळे विनाश पामतुं नथी. . तथा ए ७ प्रकृतियोमा ६ नो क्षयोपशम (वा प्रदेशोदय मात्र) अने सम्यक्त्व मोहनीयनो विपाकोदय वर्ततां आत्माने जे श्रद्धागुण प्रगट थाय ते क्षयोपशमसम्यकव, आखा भवचक्रमां असंख्यात वार, अने एकभवमा घणी हजारवार-(प्रायः ९००० वार) प्राप्त थाय छे, तथा जघन्यमां जघन्य अन्तर्मु० अने वधुमां वधु ए श्रद्धागुण ६६ सागरोपमथी पण अधिककाळ टके छे.
तथा उपशम सम्यक्त्वथी पडतां मिथ्यात्वे न पहोचे तेटलो वचमांनो काळ जघ० १ समय ने उ. ६ आवलिका प्रमाण जे श्रडान गुण होय ते पतित थतो श्रद्धागु । सास्वादनसम्यकत्व, ए पण आखा भवचक्रमां५ वारज अने एक भवमां बेवार प्राप्त थाय.
१५ प्रमाणे ५ प्रकार- सम्यकत्व जाणवू अथवा बीजी रीते पण १-२-३-४ ने ५ प्रकारनुं सम्यकत्व छे ते आ प्रमाणे. २ श्री सर्वज्ञोए कहेला तत्व उपर प्रतीति राखवी ते तत्पश्रहान रूप १ प्रकारनुं सम्यक्त्व कहेवाय. ____ गुर्वादिकना उपदेशादि प्रयत्न विना स्वाभाविक रीते कर्मनो विनाश थतां जे सम्यक्त्वगुण प्रगटे ते नैसर्गिकसम्य०, १ अने गुर्वादिकना उपदेश आदि सम्यक् प्रयत्नथी थयेलं सम्यकत्व अधिगम सम्य०२ एम बे प्रकारे अथवा सम्यक्त्वनी करणी देवपूजा-यात्रादि व्यवहारप्रवृत्ति के जे सम्यक्त्वगुणने उत्पन्न करवामां कारणरूप छे ते व्यवहारसम्य०१ अने ज्ञानादिमय आत्मानो विशुध्ध नैश्चयिकमम्य०२ एम बे प्रकारे अथवा सर्वज्ञे कयुं ते सत्य
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॥ दृष्टिद्वारवर्णनम् ॥ (२९) छे एम माने पण परमार्थ न जाणे तेने द्रव्यसम्य०,१ अने परमार्थ जाणवा पूर्वक श्रीसर्वज्ञर्नु वचन सत्य माने तेने भावसम्य०,२ एम बे प्रकारे अथवा सम्यकत्वमोहनीय पुद्गलना उदयथी प्राप्त थयेलं क्षयोप० सम्य० पौद्गलिक होवाथी द्रव्यसम्य०,१ ने उपशम तथा क्षायिक सम्य० भावपरिणतिरूप अपौद्गलिक होवाथी भावसम्य०२ एम बे प्रकारे, ए प्रमाणे बे प्रकारचं सम्यक्त्व, त्रण, अथवा चार आ रीते छे..
३ श्री सर्वज्ञोक्त सम्यकत्वनी करणीओ देवदर्शन-देव-पूनायात्रा-शासनप्रभावना इत्यादि करवाथी कारकसम्य०,१ क्रिया कंड पण न करे छतां सर्वज्ञोक्त तत्त्वपर प्रेम भाव होय ते रोचकसम्य०,२ ने पोताने श्रद्धा न होय छतां देशना लब्धि इत्यादिवडे बोजा जीवने सम्यकल पमाडे ते दीपकसम्य.३ अभविने पण होय, ए प्रमाणे ३ प्रकारचें सम्यक्त्व छे. अथवा उपशम-क्षयोपशम-ने क्षायिक एम ३ प्रकारनुं सम्य० प्रथमज का छे. ___ ४ तथा उपशमादि ३ मां सास्वादन गणतां ४ प्रकारनुं सम्य०,५ अने क्षयोपशमसम्यगदष्टिने क्षायिक सम्य० प्राप्त थतांक्ष. योपशमना अन्त्य समये वेदक सम्यक्त्व होय ते गणतां ५ प्रकारनुं पण सम्यकत्व थाय.
२ मिथ्यात्व--असत्य छतां असलथी एवात चाली मावी माटे सत्य एम मानवू ते अभिग्रह मिथ्यात्व,१ सर्वधर्म सत्य छे, कोइने सारो खोटो न कहेवाय एम मानवु ते अनभिग्रह मिथ्यात्व,२ में जे वात मानी तेज सत्य अथवा ते सत्यज छे एम मानवु ते अ. भिनिवेशिकमिथ्या०-( कदाग्रही मिथ्यात्व),३ सर्वज्ञोक्त वचनमां संदेह करवो-(जेम का छे तेमज हो के बीजी रीते हशे :त्यादि ) ते 'सांशयिकमिथ्या०,४. अने असंज्ञि जीवोने जे अ
। कोइ पदार्थमां जाणवानी जिज्ञासापडे जे तर्क थाय
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(३०)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
स्पष्ट मिथ्यात्व छे ते अव्यक्तमिथ्या०, अथवा अनाभोगमिध्या०५ ए प्रमाणे मिथ्यात्व - ( मिथ्यादृष्टिपणुं ) पांच प्रकारनुं छे. १३ मिश्र - जे पदार्थ जोयो- सांभळयो- के अनुभव्यो नथी ते पदार्थ उपर रुचि के अरुचि भाव न होय तेम सर्वज्ञोक्त तत्वपर जे रुचि अने अरुचि बन्ने न होय ते मिश्रदृष्टिपणुं ? ज प्रकारतुं छे. आ मिश्र० फक्त अन्तर्मु०ज रहे छे, त्यारबाद. जीव मिथ्यात्वे वा सम्यक्त्वे जाय छे. ॥ इति दशमं दृष्टिद्वारम् ॥ १० ॥
.
॥ ११ दर्शनद्वारम् ॥
दर्शन एटले सामान्य उपयोग अर्थात् घटादि पदार्थनो "आ कां के " एवो प्रथम जे सामान्यबोध थाय ते दर्शन, चक्षुअचक्षु अवधि - ने केवळ एम ४ प्रकारनुं छे ते आ प्रमाणे
९ चक्षु इन्द्रियद्वारा देखेला पदार्थनो जे सामान्य बोध ते चक्षुदर्शन.
२ चक्षु इन्द्रिय सिवाय शेष ४ इन्द्रिय अने मनथी थतो सामान्यबोध ते अचक्षुदर्शन, अथवा इन्द्रिय अने मन विना पण जीवनी जे दर्शनलब्धि छे ते पण अचक्षुदर्शन, ( आ बीजो अर्थ ग्रन्थोमां के सिद्धान्तमां स्पष्ट उपलब्ध नथी परन्तु जीवने पूर्वभ
मांथी आतां मार्गमा अने अपर्याप्तावस्थामां इन्द्रिय-मन विना पण उक्त प्रकारनं अचक्षु दर्शन गणेलुं छे, माटे अहिं तेवा प्रकारनो बीजो अर्थ पण लख्यो छे. ).
ते संशय न कहेवाय, कारणके तर्क, तथा संशय, शंका ए बे भिन्न छे तर्क जिज्ञासारूप ले, अने संशय ते अविश्वासरूप छे.
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॥ दर्शनज्ञानद्वारवर्णनम् ॥ (३१) ३ अवधिज्ञानीने अवधिज्ञानवडे प्रथम जे सामान्यबोध थाय ते अवधिदर्शन. सिद्धान्तमा विभंगज्ञानिने पण होय छे. __ ४ केवळ ज्ञानवडे प्रथम विशेष उपयोग थया बाद जे सामान्य उपयोग थाय ते केवळदर्शन. ___दरेक पदार्थमा सामान्य अने विशेष ए वे धर्मों रहेला छे, त्यां आत्मानो उपयोग गुण जे समये पदार्थना सामान्य धर्म उपर प्रवर्ततो होय ते समये आत्मा दर्शन उपयोगवालो गणाय अनें विशेष धर्म उपर प्रवर्ततो होय त्यारे ज्ञानोपयोग कहेवाय, ते आगळ ज्ञानद्वारमा कहेवाशे. पुनः घट पदार्थमां घटत्व-अने वर्णत्व ए सामान्य धर्म, अने अमुक स्थाननो, अमुकनो बनावेलो, अमुक व
नो, अमुक उपयोगमां आवनारो इत्यादि अनेक विशेष धर्मों छे. तथा आ दर्शननुं बीजुं नाम निराकार उपयोग पण छे. ॥इ. त्येकादश दर्शनद्वारम्. ११
॥ १२ ज्ञानहारम् ॥
आत्मानो पढार्थ प्रत्ये जे विशेष उपयोग ते ज्ञान, अथवा द. रेक पदार्थमा सामान्य धर्म अने विशेषधर्म ए बे धर्मों छे. त्यां आस्मानो उपयोग जे समये पदार्थना विशेष धर्म प्रत्ये प्रवर्ते ते समये आत्मा ज्ञान उपयोगवाळो कहवाय. तेमां छयस्थ जीवने प्रथम अन्तर्मु. सुधी सामान्य उपयोग ने त्यारबाद अन्तर्मु० ज्ञानोपयोग, अने श्री सज्ञने केवळज्ञान उत्पत्तिसमये केवळज्ञान अने बीजे सपये केवळाशन त्रीजे समये केवळज्ञान ४ थे समये केवळदर्शन ए प्रमाणे एकेक समयने अन्तरे दर्शनोपयोगने ज्ञानोपयोग परावर्समान थया करे छे पुन: अहिं ज्ञान ते सम्यगज्ञान ग्रहण करवू
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(३२) ॥दंडकविस्तरार्थः ।। पण विपरीतज्ञान नहि, कारणके विपरीत-अयथार्थ ज्ञान माटे तो १३ मुं अज्ञानद्वार आगळज कहेशे, त्यां सर्वज्ञोक्त तत्व उपर प्रतीतिपूर्वक सम्यग्दृष्टिनुं जे ज्ञान ते ज्ञान कहेवाय ते पांच प्रकारचें
आ प्रमाणे छे.. ? मन अने इन्द्रियोद्वारा थतुं अक्षरोपलब्धि रहित जे यथार्थ ज्ञान ते भतिज्ञान.
२.मन अने इन्द्रियोद्वारा यतुं अक्षरोपलब्धिरूप (अथवा अर्थपाचक.) यथार्थज्ञान श्रुतज्ञान,
३ मन अने इन्द्रियोनी अपेक्षाविना आत्मसाक्षात् थतु रूपी पदार्थ- यथार्थज्ञान ते अवधिज्ञान.
४ मन अंने इन्द्रियो विना आत्मसाक्षात् मनःपणे परिणमेला पु. द्गलोर्नु ज्ञान ते मनःपर्यवज्ञान ( आ ज्ञान यथार्थ ज होय छे.)
५ मन अने इन्द्रियो विना सर्व द्रव्य अने सर्व पर्यायनु एक समयमां जे ज्ञान थर्बु ते केवळज्ञान.
ए पांच ज्ञानमा प्रथम मतिज्ञानी द्रव्यमां सर्व द्रव्यने सा. मान्यथी जाणे छे, क्षेत्रथी लोक अने अलोक सर्व क्षेत्र (मां रहे. ला पदार्थोने ) सामान्यथी जाणे छे. काळथी त्रणे काळने सामान्यथी जाणे, अने भावथी अनंतमा भाग जेटला अनन्त पर्याय जाणे
श्रुतज्ञानी द्रव्यथी अभिलाप्य-(वचनगोचर ) द्रव्योने जाणे, अने देखे, क्षेत्रथी लोकालोक सर्व क्षेत्रने, काळथी त्रणे काळने, अने भावथी अभिलाप्य पर्यायो जे अनंतमा भाग जेटला अनंत छे ते सर्व जाणे--देखे ( अथवा कर्मग्रंथटीका वगेरेमा सर्व द्रव्य-सर्वक्षेत्र-सर्वकाळ-ने सर्व भाव जाणे देखे एम पण कर्तुं छे.)
अवधिज्ञानी द्रव्यथी सर्वरूपीद्रव्य, क्षेत्रथी असंख्य लोक
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॥ अज्ञानद्वारवर्णनम् ॥
( ३३ )
प्रमाण, काळी असंख्यकाळ, ने भावथी अनंतमा भाग जेटला अनंत पर्यायाने जाणे अने देखे.
॥ १३ अज्ञानद्वारम् ॥
अज्ञान एटले ज्ञाननो अभाव एवो अर्थ नयी पण अ एटले अयथार्थ - विपरीत ज्ञान ते अज्ञान ए अज्ञान मिथ्यादृष्टि जीवने माने लुं छे. कारणके मिथ्यादृष्टि जीव कोइपण पदार्थना स्वरूपने सर्वशोक्त वचनानुसारे जाणतो अथवा ओळखतो नथी पण स्वकल्पनावडे निर्णय करेला स्वरूपे ओळखे छे, अने पोते सर्वज्ञ नथी माटे कोइ पदार्थमां कोइ वरूप उलट रीते पण स्वीकाराय अने कोइ स्वरूप सम्यग् रीते पण स्वीकाराय छतां स्वकल्पितस्वरूप होवाथी बन्नेस्वरूपे स्वीकार करवो ते अयथार्थ छे माटे मिध्यादृष्टितुं ज्ञान ते अज्ञान है. जेमके नाडी परीक्षामां अनुभव विनानो वैद्य रोगनी यथार्थ चिकित्सा करी शके नहिं. तेम स्वकल्पितं स्वरूपवडे प दार्थनुं यथार्थ ज्ञान थाय नहिं, ते अज्ञान ३ प्रकारनुं छे ते आ प्रमाणे१ मन अने इन्द्रियोवडे यतुं ( अक्षरोपलब्धि विनानुं ) अयथार्थ ज्ञान ते मति अज्ञान
२ मन अने इन्द्रियोवडे थतुं अक्षरोपलब्धिरूप अयथार्थज्ञान ते श्रुतअज्ञान.
३ मन अने इन्द्रियो बिना आत्म साक्षादरूपी पदार्थनुं अयथार्थ ज्ञान ते विभंगज्ञान. अहिं पूर्वाचार्यो विभंगने अज्ञान शब्द नहि जोडतां ज्ञान शब्द जोडे छे तेनुं कारणके विभंग शब्दज अयथार्थ शब्दनी वाचक छे, अर्थात् विभंग एटले उलट भांगावाळु एटले अयथार्थ एवं (अवधि) ज्ञान ते विभंगज्ञान आ ज्ञान स्वरूपे अवधि अज्ञान छे.
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(३४) ॥ दंडकविस्तरार्थः॥ ____ अहिं अज्ञानी जीव घट पदार्थने देखी पट कहे अथवा ओ. लखे छे एम नथी पण घट पदार्थमां जेटला सत् धर्मों अने जेटला असत् धर्मों छे तेटला सर्व धर्मोए करीने युक्त नथी मानतो पण केटलाक धर्मोंने माने छे, वळी केटलाफ धर्म माने तेमां जे धर्म जे रूपे रहेलोछे ते रूपेज माने एवो पण नियम नथी. माटे घटने घट माने तोपण मिथ्यादृष्टिनुं ज्ञान अज्ञान गणाय छे. आ ३ अज्ञाननो द्रव्य-क्षेत्र-काळ-ने भाव ए चार प्रकारनो विषय अज्ञानमां ग्रहण थयेला द्रव्यादि जेटलो अनियमित प्रमाणे जाणवो. ॥ इति त्रयोदशमज्ञानद्वारम्. ॥ १३ ॥
॥१४ योगहारम् ॥
योग एटले आत्मानो पौगलिक व्यापार. ते ४ मनयोग ४ वचनयोग अने ७ काययोग मळी १५ प्रकारनो छे, त्यां सत्यअसत्य-मिश्र-ने व्यवहार ए नामे ४ मनयोग तथा ४ वचनयोग छ, अने औदा०-औदा०मिश्र-वैक्रिय-वैक्रियमिश्र-आहारक-- आहारकमिश्र अने तैजसकार्मण ए नामे ७ प्रकारनो. काययोग छे. तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे.. काययोगद्वारा मनोवर्गणानां पुद्गलो ग्रहण करी मन (चिंतवन)पणे परिणमावी अवलंबीने विसर्जन करवां ते मनोयोग. एमां मन ते पुद्गल द्रव्यनो समुदाय छे, अने ते पुद्गल समुदाय छे, अने ते पुद्गल समुदायने काययोगथी ग्रहण-परिणमन-अवलंबन-ने विसर्जनरूप व्यापार ते काययोग विशेषतुं नाम मनोयोग छे.
काययोगवडे भाश वर्गणानां पुद्गलो ग्रहण करी भाषापणे ग्मावी-अवलंबी-ने विसर्जन करवारूप आत्मानो व्यापार ते
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॥ योगद्वारवर्णनम् ॥ (३५) वचनयोग. आ पण काययोग विशेषज छे.
औदारिकादि शरीरना आलंबनवडे आत्मानो जे व्यापार ते काययोग. (मनोयोगना ४ प्रकार )
१ मोक्षमार्गने अनुकूळ एवो मनोव्यापार ते सत्य मनयोग. २ मोक्षमार्गने प्रतिकूळ एवो मनोव्यापार ते असत्य मनोयोग, ३कंइक सत्य अने कंइक असत्य एवो मनोव्यापार ते मिश्र मनोयोग, ४अने मोक्षमागने अनुकूळ नहिं, तेम प्रतिकूळ पण नहिं एवो, अथवा जेमां चिंतवनना वस्तु स्वरूपनो निर्णयभाव न होय( अमुक आ रीते छे, अथवा आ रीते नथी एवा निर्णय विनान चितवन) ते असत्याऽमृषा अथवा व्यवहार मनोयोग छे.
ए प्रमाणे चारे अर्थ वचनयोगना संबंधमां उच्चार करवा पूर्वक विचारवा.(१)अहिं सत्यमनोयोग अने सत्य वचनयोगना १०-१० भेद छे तेनुं स्वरूप वचनयोगद्वारा (सुगम समजातुं होवाथी ) दर्शावाय छे
"जणवय सम्मय ठवणा, नामे रुवे पडुच्च सच्चे अ । ववहार भाव जोगे, दसमे ओवम्मसच्चे अ ॥१॥"
अर्थ:-जनपदसत्य, सम्मतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, भावसत्य, योगसत्य, अने १० मुं उपमासत्य.१त्यां जे देशमा जे भाषा बोलाती होय ते देशमा ते भाषाथी बोलायलो शब्द सत्य कहेवाय, जेम गुजरातमां पाणीने पाणी कहे छे, अने बीजा कोइ देशमां पाणीने पिच्च कहे के तो ते पाणीने ओळखावनार पिच्च शब्द असत्य नथी पण जनपद-(देश) सत्य छे.
२ अनेक वस्तुमां तेवा गुण होवा छतां पण पंडितजनोए अमुकनुज नाम अमुक ठराव्यु होय, जेम " पंक" एटले कादवमां
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॥ दंडकविस्तरार्थः ।।
"ज" एटले जन्मेली घास विगेरे अनेक वस्तु छतां कमळनेज "पंकज" नामथी ओळखवानो व्यवहार ठराव्यो छे ते सम्मतसत्य.
३ अमुक वस्तु सरखा चितरेला अथवा कोतरेला आकारवाळी बीजी वस्तुने पण ते वस्तु कहेवी. जेम चितरेला अथवा कोतरेला सिंहना आकारवाला काष्टादिने “ आ सिंह छे" एम कहेवू ते स्थापनासत्य. आ स्थापना सत्य अतदाकार वस्तुमां पण होइ सके छे, जेम घोड़ानो आकार नहिं छतां नाना बाळको लाकडीने "आ मारो घोडो छे" एम कहे छे ते पण स्थापना सत्य छ, पण असत्य नहि.
४ तेवा. गुण नहिं होबा छतां बीजी वस्तुने तेवा नामथी बोलाक्वी, जेम सिंहनो चाकर नहिं छतां सिंहदास माम पाडवू, निध. न छतां लक्ष्मीधर नाम कहेवू इत्यादि नामासस्य छे. .
५ तेवा गुणवालो नहिं छतां वेष उपस्थी तेवा नामे बोलावयो जेम साधुना गुण नहिं छतां साधुनो वेष पहेरेलाने “आ साधु छे" एम कहेवु ते रूपसत्य.
६ जे कथन अमुकनी अपेक्षाए कहे, जेम अनामिका आंगळी कनिष्टाथी मोटी अने मध्यमाथी नानी छतां मोटो या नानी कोई एफज अपेक्षाए कहेवी ते प्रतीत्यसत्य.
७ लोक रूढि प्रमाणे बोळवू ते जेम वासणमाथी पाणी झरवा छतांवासण गळे छे, पर्वतपर घास बळ्या छतांपर्वत बळे छे, ने कन्याने पेट होवा छतां गर्भ नहिं धारण करवानी अपेक्षाए अनुदरा (उदर विनानी) कहेवी इत्यादि व्यवहारसत्य..
८ कोइ वस्तुना संबंधथी अमुक वस्तुने ते वस्तुना संबड नामथी ओळखत्री जेम छत्र धारण करनारनी पांसे छत्र होय न होय
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॥ योगद्वारवर्णनम् ॥
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तोपण छत्री, दंड धारण करनारनी पांसे दंड होय न होय तोपण दंडी को इत्यादि योगसत्य कहेवाय.
९ बाहुल्यतानी अपेक्षाए कहेतुं ते जेमके पोपटमां पांचे वर्ण( भाव - वर्णादिपर्याय ) छे छतां लीलो कहेवो. भ्रमर पांचे वर्णयुक्त छे छतां काळो कहेवो इत्यादि अल्पत्वनी अविवक्षाए भावसत्य
१० केटलाएक सरखा धर्मवाळी वस्तु साथे बीजी वस्तुनी सरखामणी करवी. जेम मोटा तळावने समुद्र जेवडुं कहेवु, चंद्रमा सरखा कडक गोळ अने कान्तिवाळा मनुष्यना मुखने चंद्रमुख कहेतुं इ. त्यादि उपमासत्य. ए प्रमाणे १० प्रकारनां सत्य कहां.
(२) तथा ? क्रोधर मान ३माया४लोभ५ प्रेम ६ हास्य भय- अने८द्वेषथी उत्पन्न थयेली अस यभाषा ते क्रोध निःसृत, माननिःसृत इत्यादि कहेवाय. ९ अने बनावटी कथावार्ताओ करवारूप भाषा कथानिःसृत, १० अने खोडं कलंक आपवारूप उपघातनिःसृत ए रीते १० प्रकारना असत्ययोग छे.
३ पुनः मिश्रयोग १० प्रकारनो ते आ प्रमाणे - १ " आजे. आ नगरमा दशेक बाळक जन्म्या छे. " इत्यादि उत्पत्तिनी अनिश्चित 'संख्या की ते उत्पन्नमिश्रित २ दशेक मरण पाम्या छे इत्यादि विनाश संख्या कहेवी ते विगतमिश्रित, ३ दशेक जन्म्या, अने दर्शक मरण पाम्या इत्यादि उभयसंख्या कहेवी ते उत्पन्नविगत मिश्रित, ४ शंखादि वणा जीवता अने थोडा मरेला देखी सर्व समुदायमा "आ जीव राशि छे." एम कहेतुं जीवमिश्रित, ५ घणा मरेला अने थोडा जीवता देखीअ "जीवराशि " कहे ते अजीवमिश्रित, ६आ राशिमां आटला जीवता छे ने आटला मरण पाम्या छे एम आसरे संख्या कहे ते जीवाजीवमिश्रित, प्रत्येक ७ जीवमिश्रित साधारण वनस्पतिजीवराशिने साधारणराशि कहे छे ते साधारण
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( ३८ )
॥ डकविस्तरार्थ: ॥ मिश्रित, ८अनंतकायमिश्रित प्रत्येक जीवराशिने "आ प्रत्येक जी - वराशि छे" एम कहे ते प्रत्येकमिश्रित, ९रात्री छतां शीघ्रता माटे कहे के " जलदी उठ सूर्य उग्यो" इत्यादि अडामिश्रित, १०७तावळने अंगे दिवस वा रात्रिना एक भागने बीजो भाग कहीये जेम रात्रिनो प्रथम प्रहर छतां मध्यरात थइ कहे ते अडाडामिश्रित.
( ४ ) तथा असत्या मृषा एटले व्यवहार वचन योगना पण १२ भेद छे ते आप्रमाणे - १" हे देवदत्त ! " इत्यादि अन्यने बोलावा रूप आमंत्रणी, २"तुं आ कर " इत्यादि आज्ञा करवा रूप आज्ञापनी ३ "अमुक आप " इत्यादि मांगणी करवा रूप याचनी, ४प्रश्न करबो ते पृच्छिकी, ५ उपदेश आपका रूप प्रज्ञापनी, aats कार्य निवृत्त (प्रतिषेध) करवा रूप प्रत्याख्यानी, ७अनुमति ( मत - अभिप्राय ) जापवा रूप इच्छानुकूलिका, टकोड़ए अभिप्राय पूछवाथी " तने जे ठीक लागे ते " इत्यादि कहें ते अनभिगृहिता, ९ अमुकन करवुं, ने अमुक न करवुं इत्यादि निर्णयात्मक सलाह आपकी ते अभिगृहिता. १० द्वद्यर्थी वा अनेक अर्थी वचन बोलं के जेथी निर्णयात्मक भावार्थ न नीकळे ते सांशयिक, ११ प्रगट रीते जेनो अर्थ समजी शकाय तेवी अथवा स्पष्ट अक्षरो वाळी ( पण अर्थ शून्य ) भाषा बोलवी ते व्याकृत (- व्यक्त ) १२अने गंभीर अर्थवाळी अथवा अस्पष्ट अक्षरवाळी भा षा ते अव्याकृत, आ छैल्ली भाषा हीन्द्रियादि जीवोने होय छे अने रे-लोल-लाल इत्यादि कविताना अलंकारी अर्थ विनाना शब्दो तथा पारणं झुलावतां इत्यादि कार्यमा पथ हललल इत्यादि अर्थ विनाना बोलता शब्दों तो व्याकृत वचन योग
ए प्रमाणे सत्यना १०, असत्यना १०, मिश्रना १०, व्यवहार - ना १२ भेद मली ४२ मनोयोग ने ४२ वचनयोग थाय छे.
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॥ योगदारवर्णनम् ॥ (३९) तथा कायाना योग ते आ प्रमाणे-पूर्व भवमांथी परभवमां जवाने कार्मण शरीर कारण भूत छे, ने कार्मण शरीरनी साथे तैजस शरीर सदाकाळ रहेलं होय छे माटे कार्मण शरीरनी सहाय थी ( पूर्वभवथी परभवर्मा जवारूप) आत्मानो जे व्यापार ते कामंण काययोग, अथवा भवधारणीय शरीरव्यापारना अभावे मात्र तैजसकामण कायाद्वारा आत्मानो परभवगमन-परभवोत्पत्ति प्रथमसमये आहारग्रहण-तथा केवलिसमुद्घातना ३-४-५ समये प्रवर्तन रूप जे व्यापार ते,कार्मण काययोग अथवा तैजस का. मंण काययोग.
प्रश्नः--तैजस समुद्घात वखते, आहार पचन समये तैजस कायनो व्यापार प्रगट छे, ने कामणकायनो व्यापार छे नहिं तो ने वखते एकलो तैजसयोग केम न कहेवाय ? .
उत्तर-जे वखते तै० समुद्घातमां, अने आहार पचन व्यापारमा जीव वर्ते छे ते वखते आत्मानुं औदा० शरीर संपूर्ण रचायलं होवाथी औदा० शरीरना आलंबनथी तैजस परमाणुओ वडे पूर्वोक्त कार्य करे छे, माटे प्रयत्नमां औदारिक काय मुख्य छे,
प्रश्नः केवळी समु० ना ३-४-५ समये तै० का० काययोग वडे आत्मा शुं करे छे ? नथी परभवमा जतो, नथी आहार पचन करतो, के नथी आहार ग्रहण करतो, त्यारे तैजस वा का. मेण द्वारा आत्मा ते वखते कइ जातनो व्यापार करे छे ? के जेथी ते वखते तै० का० काययोग कही शकाय.?
उत्तर--सयोगी आत्मा सदाकाळ योग प्रवृत्ति वाळो छे, त्यां जे बखते जे शरीरनुं साधन मले ते वखते ते शरीरद्वारा योग प्रवृतिवाळो होय, अहि समु० वखते औदा० शरीरथी घणे अंशे छूटो पडी गयेलो आत्मा तैजस कामण वडे सर्वांशे व्याप्त होवा
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(४०) ॥ दंडकविस्तरार्थः ।। थी योग प्रवृत्तिमां ते वखते ए बे शरीरज आलंबन रूप छे, माटे ए काययांगतो ते वखते संभवे छे, अने ते योग कइ जातनों व्यापार करे छे ? ते संबन्धमां तो एज समजाय छे के कामण शरीर ना आलंबनथी आत्मा स्वप्रदेशोनी विचलतामा वर्ते छे, अने ते विचलता वडे कर्मप्रदेशोनुं ग्रहण करे छे, अथवा ते बे शरीरना
आलंबन वडे ज ते वखते मंथनकरण--अन्तरपूर्ति--अन्तर संहरणे रूप व्यापार करे छे. ॥ इति चतुर्दशं योगद्वारम् ॥ १४ ॥
॥ १५ उपयोगहारम.॥
उप एटले समीपमां युज्यते-जोडाय ते उपयोग, अर्थात् विषयदेशमा प्राप्त थयेला पदार्थोनी परिछित्तिमां (-वस्तु स्वरूपावलोकनमां ) जोडाय एवो आत्मानो गुण ते उपयोग. ते वे प्रकारनो छे, सामान्य उपयोग एटले दर्शन, अने विशेष उपयोग ते ज्ञान. त्यां दर्शनोपयोग चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन- अवधिदर्शनने केवळदर्शन एम ४ प्रकारे छे, तथा ज्ञानोपयोग पण बे प्रकारे छ. यथार्थ ज्ञानोपयोग अने अयथार्थ ज्ञानोपयोग. त्यां यथार्थज्ञानोपयोगनी पूर्वर्षिओए ज्ञान एवी संज्ञा राखी छे, अने अयथाथं ज्ञानोपयोगनी अज्ञान एवी संज्ञा राखी छे. त्यां ज्ञानना ५ प्रकार मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधिज्ञान-मनःपर्यवज्ञान-ने केवळज्ञान ए प्रमाणे छे, अने मतिअज्ञान-श्रुतअज्ञान-ने विभंमज्ञान (-व. स्तुतः अवधिअज्ञान ) ए प्रमाणे अज्ञान ३ प्रकारे छे, मनःपर्यव ज्ञान सम्यग्दृष्टिनेज (मुनिने ज) होय छे माटे मनः पर्यव अज्ञान होतुं नथी, अने केवळ ज्ञानीने तो अज्ञान न होय ए स्वभाविक जछे.
थ
तिज्ञान-
तिअज्ञान OM ३ प्रकार
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॥ उपयोगद्वारवर्णनम्.॥
(४१)
माटे ज्ञान पांच अने अज्ञान ३ छ, र प्रमाणे ५ ज्ञान-३ अज्ञानने ४ दर्शन मलीने १२ उपयोग छे, तेमां अवधिद्विक-मनः पर्यव -विभंग-ने केवळदिक ए ६ उपयोगमा आत्मा इन्द्रिय अने मननी सहाय बिना स्वतंत्र रीते प्रवर्ते छे, माटे प्रत्यक्ष अथवा साक्षात् उपयोग ६ छे. अहिं प्रत्यक्षमा प्रति-समीपे अने अक्ष-जीव ए. वो अर्थ होवाथी प्रत्यक्ष एटले आत्मसाक्षात् कहेवाय छे, अने. आत्मसाक्षात् नहिं ते परोक्ष उपयोग मति २-श्रुत २-चक्षुद०अचक्षुद० ए प्रमाणे ६ प्रकारे छे. ए ६ उपयोगमा आत्माने इन्द्रिय अने मननी सहाय अवश्य लेवी पडे छे अने इन्द्रियोद्वारा ज जाणी देखी शके छे, माटे ए ६ उपयोग आत्माने साक्षात् भावे नथी. जेम निरोग चक्षुवाळो पुरुष घटादि पदार्थने प्रगट रीते अन्य साधननी सहाय विना देखी शके छे, अने हीनतेजचक्षुवालो पुरुष चस्मा विगेरे अन्य साधनथी घटादि पदार्थ देखी शके छे तेम आत्मा इन्द्रियी अने मननी सहायथी देखी जाणी शके तो ते उपयोग परोक्ष उपयोग कहेवाय, अने इन्द्रियमननी सहाय विना स्वतंत्र देखी जाणी शेके तो ते उपयोग प्रत्यक्ष उपयोग कहेवाय. ए वास्तविक रीत कही, पण व्यवहार रूढीमां तो इन्द्रियोथी अनुभवेल घटादि स्वरूपने प्रत्यक्ष ज्ञान-( उपयोग ) कहे छे, अने अनुमानादिप्रमाणथी निर्णय करेला स्वरूपने फक्त मनोविषयिक ज्ञानने परोक्षज्ञान कहे छे, ए व्यवहार (प्रत्यक्षने) पण शास्त्रमा व्यवहारप्रत्यक्षना नामथी स्वीकारेल छे. अने अनुमानादि तो बन्ने रीते परोक्ष ज छे. अहिं १२ उपयोगर्नु स्वरूप प्रथम दर्शनद्वारमा ज्ञानद्वारमां कहेवाइ गयुं छे, माटे पुनः कहेवाशे नहिं. ॥ इति पञ्चदशमुपयोगद्वारम्. ॥ १६ ॥
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( ४२ )
॥ दंडक विस्तरार्थः ।।
॥ १६ उपपातद्वारम् ॥
कया. दंडके एक समयमां केटली जीव संख्या उत्पन्न थाय एम कहे ते उपपातद्वार, अने कया दंडकम केटलाकाळ सुधी कोइपण जीव आवी उत्पन्न थाय नहि ? एम कहेवुं ते उपपात विरह कहेवाय.
॥ १७ चयवनद्वारम्. ॥
कया दंडके एक समयमां केटला जीव मरण पामे तेनी संख्यानो नियम को ते च्यवनद्वार, अने कया दंडकमा केटला काळसुधी कोइपण जीव मरण न पाये ते संबंधि काळ नियम दर्शाववो ते च्यवनविरह कहेबाय. ॥
॥ १८ स्थितिद्वारम् ॥
कथा दंडके जीवोतुं केटलं आयुष्य होय ते आयुष्यकाळनो नियम दर्शावन ते स्थितिद्वार.
॥ ९९ पर्याप्तिद्वारम् ॥
पर्याप्ति एटले जीवनी आहार ग्रहण करवादिकनी शक्ति, अथवा ते शक्तिनी समाप्ति ते पर्याप्ति कहेवाय, ते पर्याप्त आहार - शरीर - इन्द्रिय- उच्छवास - भाषा ने मन ए प्रमाणे ६ प्रकारनी छे, तेनुं संक्षिप्त स्वरूप आ प्रमाणे
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॥ पर्याप्तिद्वारवर्णनम् ॥ (४३) आहारपर्याति--आहार ग्रहण करी आहारपणे परिणमावी खल-रस जुदां करवानी शक्ति आहारपयोसि आ पर्याप्ति उत्पत्ति स्थाने आवेला जीवने प्रथम समये जप्रगट थाय छे, अहिं ग्रहण करेल आहारनो केटलोक भाग देहपणे परिणमे नहिं एवो होय तेनो त्याग करे छे, अने देहपणे परिणमवा योग्य आहारने देडपणे परिणमावे छे, त्यां देहपणे परिणाम न पामे एवा आहारने खलरूप-(कूचारुप) कही शकाय, अने शेष आहारने रसरूप कही काय, अन्यथा म'ळ-मूत्रनेम खलरस मानीये तो वैक्रिय अने आहारकनी पर्याप्तिमां खलरस पृथक्करणनो असंभव छे, तो तेमां ए आहार पर्याप्तिनो अर्थ केम समीचीन थाय ? पुनः आ पर्याप्ति एकज समयमां समाप्त थाय छे.
शरीर पर्याप्ति-ग्रहण करेला आहारने शरीरपणे परिणमाववानी शक्ति ते दरेक जीवने अन्तर्मुहूर्तकाळे प्रगट थाय छे. ___ इन्द्रियपर्याप्ति-ग्रहण करेला :आहारमाथी इन्द्रिय योग्य पुद्गलोने अभ्यन्तर निर्दृत्ति इन्द्रियपणे परिणमावी इन्द्रियद्वारा विषय जाणवानी शक्ति प्राप्त थाय ते औदा० शरीरीने अन्तर्मु०काळे अने आहा० तथा वै० शरीरीने एक समये प्रगट थाय छे.
उच्छ्वास पर्याप्ति-श्वासोश्वास योग्य पुद्गलो ग्रहण करी, श्वासोच्छ्वासपणे परिणमावी, अवलंबीने विसर्जन करवानी शति. ते औदा० शरीरने अन्तर्मुहर्त अने आहा० वैशरीरीने १ समये प्रगट थाय छे.
भाषापर्याप्ति-भाषायोग्य पुद्गलो ग्रहण करी, भाषापणे परिणमावी-(भाषारूप बनावी) अवलंबोने विसर्जन करवानी शक्ति. तेनो काळ इन्द्रिय पर्याप्तिवत्.
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(४४) ॥ दंडकविस्तरार्थः॥ - मनःपर्याप्ति-मन योग्य पुद्गलो ग्रहण करी, मनपणे परिणमावीअवलंबीने विसर्जन करवानी शक्ति तेनो काळ इन्द्रिय पर्याप्तिवत् ___पर्याप्तियोमा जे जीवने जेटली पर्याप्तियो पूर्ण करवा योग्य होय छे, तेटली पर्याप्तियो ते जीव उत्पत्तिसमये समकाळे प्रारंभे छे, पण पूर्ण अनुक्रमे करे छे, कारणके प्रथमसमयगृहीत आहारना उपष्टंभथी-( आलंबनथी ) जीवने आहारपर्याप्तिरूप शक्ति सर्वाशे प्रगट थइ, अने शरीरपर्याप्त्यादिरूप शक्तियो देशांशे प्रगट थइ छ, र प्रमाणे प्रारंभ समकाळे अने समाप्ति अनुक्रमे होयछे.
तथा जे जीवने जेटली पर्याप्तियो छे, ते जीव तेटली पर्याप्तियो पूर्ण करे ज एवी लब्धिवाळो जीव लब्धिपर्याप्त कहेवाय. ते'लब्धिपर्याप्तपणुं भवना प्रथम समयथी भवना अन्त्यसमयपर्यन्त होय. एनुं आयु उ० ३३ सागर होय.
तथा जे जीवने जेटली पर्याप्तियो छे ते जीव तेटली पर्याप्तियो पूर्ण नहिज करे एवी लब्धिवाळा जीवो लब्धिअपर्याप्त कहेवाय, पलब्धि अपर्या०पणुं पण भवना प्रथम समयथी भवना अन्त्य समय सुधी होय छे. आ जीवोनुं आयु उत्कृष्ट अन्तर्मु० होय.
तथा जे जीवने जेटली.पर्याप्तियो छे, ते जीवे तेटली पर्याप्तियो ज्यां सुधी पूर्ण नथी करी पण करशे. एवो जीव करणअपर्याप्त, अने पूर्ण कर्या बाद करणपर्याप्त कहेवाय. त्यां करण अपर्याप्तपणुं भवना प्रथम समयथी अन्तम० पर्यन्त, अने करणपर्याप्तपणुं अन्तर्मुन्यून स्वस्वपर्याप्तायुष्य जेटला काळवाळ छे. पर्याप्ति संबंधि विशेष वर्णन प्रथम. नवतत्त्व विस्तरार्थमां विस्तार पूर्वक करेल होवाथी अहिं विशेष वर्णन कयु नथी.
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॥ किमाहारद्वारवर्णनम् ॥
(४५)
॥ किमाहारद्वारम.॥
किम् एटले कइ दिशिनो (दिशिथी आवेलो) आहार एटले आहार होय ? ते संबंधि जे निर्णय कहेवो ते किमाहार कहेवाय. त्यां लोकने अन्ते (किनारे) रहेला सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्व्यादि ५ तथा सूक्ष्मपर्याप्त पृथ्व्यादि ५ तथा बादरपर्याप्तवायु अने बादरअपर्याप्तवायु ए १२ जीवभेदने ३-४-५दिशिनो आहार होय, अने ए १२ सहित सर्व जीवभेदो जे लोकनी अंदरना भागमां-(लोकनो दशे दिशाए फरतो अन्त्य किनारो छोडीने अंदरना सर्व भागमां) रहेला छे तेओने सर्वने छ ए दिशिथी आवेलो आहार होय छे.
शंका:-जीव जे आकाश प्रदेशोमां अवगाह्यो छे तेज आकाश प्रदेशमा रहेला आहारने ग्रहण करे छे तो छए दिशाथी आवेलो आहार ग्रहण करे ते केवी रीते ?
उत्तरः-ए वात सत्य छे, परन्तु जीव जे आकाश प्रदेशोमां अवगाह्यो छे ते आकाश प्रदेशमा आहार ग्रहण समये ६ ए दिशिथी आवता पुद्गलोने ग्रहण करे छे, माटे ६ दिशिथी आवेला पुद्गलो ग्रहण करे एम कही शकाय.
ए आहार ग्रहण व्याघातभावी अने निर्व्याघातभावी एम बे प्रकारचें छे, त्यां अलोकाकाशवडे आहार पुद्गलोने आवतां.जे स्खलना थाय अर्थात् न आवी शके ते व्याघात कहेवाय अने ते व्याघातना कारणथी जीव सर्व दिशिथी आहार न ग्रहण करो शके पण ओछी दिशिथी आहार ग्रहण करे ते घ्याघातभावीआहार कहेवाय, प्रथम जे ३-४-ने ५ दिशिथी जे आहार ग्रहण कर्यु ते व्याघातभावी आहार ग्रहण जाणवू. अने तेवा व्याघातना
अभावे सर्वदिशिथी एटले. छए दिशिथी जे आहारनुं ग्रहण थाय ते निर्व्याघातभावीआहार कहेवाय.
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(४६)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
प्रश्न:-दिशाओ १० छतां ६ दिशिथी आहार ग्रहण केम कां?
उत्तरः-विदिशाने पडखे रहेली दिशामा अन्तर्गत गणतां ६ दिशा पण कही शकाय, माटे अत्रे ६ दिशिथी आहार ग्रहण का, पुनः वास्तविक रीते क्षेत्रविदिशा एकेक आकाश मदेशनी श्रेणिरूप होवाथी आहार्य पुद्गल स्कंध एक प्रदेशात्मक श्रेणिमां अवगाहे नहिं पण जघन्यमां जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटला क्षेत्रमा अवगाहे छे, अने तेटला अवगाहमां विदिशि प्रदेशो करतां दिशि प्रदेशो असंख्यगुणा संभवे छे, माटे विदिशिने दिशिमां अंतर्गत गणवापूर्वक ६ दिशिनो आहार कह्यो.
प्रश्न:-आ किमाहारद्वारमा आहार्य पुद्गलो कइ वर्गणानां अंगीकार करवां ? ___ उत्तर:-तेजस अने कामण वर्गणा वर्जीने शेष औदा०वैक्रिय-ने आहारक ए ३ भवधारणीय शरीर वर्गणाना पुद्गल स्कंधोनो अहिं आहार अंगीकार करवो, अने कार्मण. पुद्गलनो आहार तो जीवने सयोगिपणा सुधी प्रति समय होय छे, माटे आ किमाहार प्रसंगे ते तै० का० नो आहार अंगिकार न करवो. ए आहार्य पुद्गल स्कंध पण कमीमां कमी अभव्यथी अनंत गुण परमाणुओनो बनेलो होय छे, कारणके तेथी कमी परमाणुओवाळा स्कंधो जीव ग्रहण करी शकतो नथी. पुनः ग्रहण कराता आहारमांथी असंख्यातमा भाग जेटलो आहार आहारपणे परिणमे छे, ने बीजो सर्व आहार गाये ग्रहण करेला घासमांथी जेम केटलोक घास पडी जाय छे तेम तेज समये विनाश पामी जाय छे. अने आहारपणे परिणमता आहारमांनो अनंतमो भाग जीवना आस्वादनमां आवे छे, अने शेष भाग जीवने आस्वादनमां आव्या
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॥ किमाहारद्वारवर्णनम् ॥ (७) विनाज देहने-इन्द्रियपणे परिणमी जाय छे. वळी आ आहार सचित्त-अचित्त-ने मिश्र-एम ३ प्रकारनो, तथा ओज अने लोम एम बे प्रकारनो छे, ( अहिं कवलाहारने दिशिआहार साथे योग्य संबंध नहिं होवाथी कवलाहारने दिशिआहारमा गण्यो नथी, अने ए संबंधि शास्त्रमा उल्लेख नथी.) पुनः आभोगिकने अनाभोगिक एम भेद पण छे, ते भेदो संबंधि विशेष वर्णन ग्रन्थान्तरथी जाणवु.
तथा प्रसंगे निराहारीपणुं जीवने क्यारे होय छे ? ते पण कहेवाय छे. त्यां परभवमां वक्रगतिए जतां वे त्रण चार ने पांच समय लागे ते वखते हेलो ने छेल्लो समय वर्जी मध्य समयोमां अनाहारीपणुं होय छे, माटे बे समयनी एक वक्रगतिमां अनाहारीपणुं नथी पण त्रण समयात्मक दिवक्रगतिमां, चार समयात्मक त्रिवक्रगतिमां, ने पांच समयात्मक चतुर्वक्रगतिमां अनुक्रमे १-२-३ समग निराहार छे, ने केवलि समुद्घात वखते ३-४-५ नबरवाला समयोमा अनाहारीपणुं छे, ने अयोगी तथा सिद्धजीवो सदाकाळ अनाहारी छे. ॥ इति किमाहारद्वारम् . ॥२०॥
॥ २१ संज्ञाहारम्.॥
सं-सम्यक् प्रकारे ज्ञान-जाणवू ते संज्ञा. ३ प्रकारनी छे, त्यां प्रथम हेतु-कारण-निमित्त एटले दृष्ट अने अनिष्टनी प्राप्तिपरिहार रूपकारणना उपदेश-कथनवाळी. ते हेतूपदेशिकी संज्ञा. आ संज्ञा व्यक्त ( वा बुद्धिपूर्वक-अभिसंधिज) अने अव्यक्त (वा अनभिसंधिज) एम वे प्रकारनी छे, त्यां एकेन्द्रियोने अनभिसंधिज हेतूपदेशिकोसंज्ञा छे, कारणके तेओनी आहारादिकमां प्रवृत्ति स्पष्ट
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(४८)
दंडकविस्तरार्थः॥ जीवोनी कंइक बुद्धिपूर्वक इष्टमां प्रवृत्ति अने अनिष्टथी निवृत्ति हो. वाथी ए जीवो अभिसंधिज हेतूपदेशिकी संज्ञावाला छे, पण मनः पर्याप्तियुक्त नहिं होवाथी संज्ञीवत् अति स्पष्ट बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति निवृत्तिवाला नथी छतां पण हेतूपदेशिकी संज्ञावडे द्वीन्द्रियादि जी. वो संबी अथवा मनवाळा गणायछे, ने एकेन्द्रियो ( हेतु वडे ) असंशि-मनविनाना गणाय छे. परन्तु शास्त्रव्यवहारमांतो हेतूप० संज्ञावडे संझी एवा दीन्द्रियादिकोने पण विशिष्ट मनोविज्ञानमां कारणरूप मनःपर्याप्तिना अभावे असंज्ञिज गण्या छे. पुनः ए हेतूप० संज्ञा वर्तमानकाळ विषयिक छ, पण भूत भविष्यना विचारथी विकल-(रहित ) छे, ते कारणथी जेम हेतूप० संज्ञावडे संज्ञि छतां पण अल्पधनवाळो धनवान् न कहवाय, अने अल्परूपवाळो रुपवान् न कहेवाय तेम द्वीन्द्रियादि जीवो हेतूप० संज्ञावडे अल्प वि. चारवाळा छतां संज्ञि न कहेवाय.
तथा मनःपर्याप्तिद्वारा मनोवर्गणा ग्रहणे करी मनपणे परिणमान्याधी विशिष्ट मनोविज्ञान लब्धिवडे अतिव्यक्त अने त्रणे काळनी विचारशक्ति ते दीर्घकालिकी संज्ञा मनःपर्याप्त जीवने एटले गर्भज पर्या० तियेच गर्भज पर्या० मनुष्य सर्व देव अने सर्व नारक ने होय छे. शास्त्रमा संज्ञि असंज्ञिपणानो व्यवहार आ दीर्घकालिकी संज्ञाने अगेज प्रवर्ते छे, कारणके जे जीवो दीर्घका० संज्ञावाला होय ते संनि अने दीर्घका० संज्ञा विनानां जे जीवो होय ते सर्व असंज्ञि कहेवाय छे.
तथा दृष्टि-सम्यकदर्शनादि संबंधि वाद-कथन तेना उपदेश-अपेक्षावडे जे संज्ञा ते दृष्टिवादोपदेश संज्ञा. अर्थात् दृष्टिवादना एटले श्रुतज्ञानना उपदेशवडे-क्षयोपशमवडे जे सम्यगज्ञान ते दृष्टिवादोपदेश संज्ञा. तात्पर्य एछे के क्षयोपशमजन्य सम्मान
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॥ संज्ञाद्वारवर्णनम् ॥ (१९) युक्त एवो सम्यग्दृष्टिजीव दृष्टिवादोप० संज्ञावाळो गणाय के, पण विशिष्ट श्रुतज्ञानना क्षयोपशमरहित एवा नारक-देव-मनुष्योने तिर्यचो सम्यग्दृष्टि छतां पण दृष्टिवादसंज्ञावाला गणाय नहि. कारणके जो के केटलाएक देवोमां अने तीर्थकर थनारा नारकोमा अने कचित् ग० तिर्यंचोमां विशिष्ट श्रुतज्ञान सद्भावे दृष्टिवादो ५० संज्ञा हसे छतां ते ज्ञान विशेषतः हितमा प्रवृत्ति अने अहितमां निवृत्तिवाळु नहिं होवाथी तेओने अहिं दृष्टिवादो० संज्ञा न गणी होय तेम संभवे छे, (केटलोक भावार्थ श्रीनंदिसूत्रमांयी कह्यो छे.)
जेने हेतूप० संज्ञा छ तेने दीर्घका० ने दृष्टिवादो० संज्ञा नथी, जेने दीर्घका० संज्ञा छे तेने हेतू० संज्ञा नथी, अने दृष्टिवादो० संज्ञा होय ने न पण होय. अने जेने दृष्टिवादो० संज्ञा छे तेने हेतू० नयी पण दीर्घ संज्ञा अवश्य छे. श्रीसर्वज्ञने ए त्रणमांनी कोइपण संज्ञा न होय. ॥ इति संज्ञासंवेधः ॥
॥ २२ गतिद्वारम.॥
. अमुक दंडकमांनो जीव मरण पामीने कया कया दंडकमां जाय-( उपजे ) ए संबंध कहेवो ते गति. ॥ इति गतिकारम् ॥
॥ २३ आगतिहारम.॥
अमुक दंडकमां कया कया दंडकना जीवो मरण पामी आवोने उत्पन्न थाय ए संबंध कहेवो ते आगति.॥इत्यागतिद्वारम्.॥
अहिं गति-आगतिने प्रसंगे जीवोने परभव गमननो विधि
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(५०)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
कहेवाय छे.-जीवो परभवमा जतां वे प्रकारनी गति करे छे, त्यां रमण समुद्घातपूर्वक उपजनार जीवनी इलिकागति होय छे, कारणके येळ जेम शरीरना अग्रभागने आगळ फेंकया बाद शरीरना पश्चात् भागने उपाडी आगळ फेंके छे, तेम मरण समुद्घातने प्राप्त थयेलो जीव उत्पत्ति स्थाने आत्मप्रदेशो फेंकथा बाद अन्तर्मु० काळे पूर्वभवसंबंधि शरीरमांथी आत्मप्रदेशो संकोची लइ उत्पत्ति स्थाने लावी मूके छे, आ इलिकागति वा मरणसमुद्घात ऋजुगतिए अने वक्रगतिए पण होय छे, त्यां जीवनुं उत्पत्तिक्षेत्र समश्रेणिए होय त्यारे ऋजुगति थाय छे, अने विषम अणिए होय त्यारे वक्रगति थाय छ, तथा दडो अथवा तोपमांथी छूटेलो गोलो जेम सर्वपिंडात्मकरूपे चाल्यो जाय छे तेम शरीरमांथी छुटेलो आत्मा पिंडितरूपे-(दीर्घ श्रेणिरूपे नहिं ) परभवमा चाल्यो नाय ते कंदुक-(दडासरखी) गति कहेवाय. आ कंदुक गति प्रायः ऋजुगतिमां संभवे छे. ने वक्रगतिमां होय छे के नहि ते श्री बहुश्रुतथी जाणवू.
तथा मस्तक भागमांथी निकळेलो आत्मा देवलोकमां जाय, उदरथी निकळेलो आत्मा मनुष्यगतिमां जाय, पगथी निकळेलो आत्मा नरकगतिमां जाय, अने सर्वांगथी निकळेलो आत्मा मोक्षे जाय.
॥ २४ वेदहारम् ॥ वेद एटले नोकषायमोहनीयकर्मना उदयथी उत्पन्न थयेल विषयाभिलाष ते पुरुषवेदादि भेदे ३ प्रकारनो छे. त्यां पुरुषको ( स्त्रीप्रत्ये) विषयाभिलाष ते पुरुषवेद, स्त्रीनो (पुरुषप्रत्ये ) जे विषयाभिलाष ते स्त्रीवेद, तथा नपुंस कनो ( स्त्री ने पुरुष उभय प्रत्ये ) विषयाभिलाष ते नपुंसक वेद कहेवाय. एमां पुरुष पणु
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॥ पर्याप्तिद्वारवर्णनम् ॥
(५१) स्त्रीपणुं ने नपुं० पशुं निर्वृत्यादि भेदे त्रण त्रण प्रकारनुं छे, ते आ प्रमाणे लिंग - दाढी- मूछ इत्यादि युक्त देहाकृतिवाळो निर्वृतिपुरुष ( आकार पुरुष ), योनि - स्तन इत्यादि युक्त देहाकृति वाळी निर्वृति स्त्री, अने पुरुषाकारनां केटलांक लक्षण होय ने केटलांक न होय तेमज स्त्री पणानां पण केटलांक लक्षण होय ने केटलांक लक्षण न होय ए प्रमाणे उक्त लक्षणोना भावाभाव युक्त देहाकृति वाळा जीवो निर्वृति नपुंसक कहेवाय. तथा स्त्रीउपर विषयाभिलाषी जीव वेद पुरुष, पुरुष प्रत्ये विषयाभिलाषी जीव वेद स्त्री ने उभयाभिलाषी जीव वेद नपुंसक कहेवाय. तथा पुरुष नहिं छतां जेणे पुरुषनो वेष पहेर्यो होय ते नेपथ्य पुरुष, स्त्री नहिं छतां स्त्रीनो वेष पहेर्यो होय ते नेपथ्य त्री, अने नपुंसक नहिं छतां नपुंसक नो ( - हीझडा वगेरे सरखो ) वेष पहेर्यो हो ते नेपथ्य नपुंसक कहेवाय. ए प्रमाणे ९ भेद छे.
तथा पुरुषादि आकृतिनो द्रव्य वेद अने विषयाभिलाषने भाववेद तरीके गणाय छे. पुनः एक जीवने एकज भवमां पुरुबने ३ द्रव्य वेद अने ३ भाववेद थइ शके, नपुंसकने एकज भवमां नपुं ने स्त्री एबे वेद द्रव्यने २ भाववेद होय, ने स्त्रीने आखा भव सुधी १ द्रव्यवेदने १ भाववेद होय ए वात द्रव्यवेदाश्रयि भाववेद गणवानी पद्धतिए कही, अने द्रव्यवेदना आश्रय विना केवळ भाववेद गणतां स्त्री-पुरुषने नपुंसकने दरेकने ३-३ भाववेद अन्तर्मुहूर्त अन्तमुहूर्त परावृत्ति पाम्या करे छे.
पुरुष वेद वासना अग्नि समान छे, कारणके घासनो अग्नि एकदम भडको थइ तुर्त समी जाय ले, तेम पुरुषवेद एकदम जागृत थइ त्रीना संगमथी तुर्त शमी जाय छे, तथा स्त्रीवेद बकरीनी लींडीयोना अग्नि सरखो छे, कारण के बकरीनी लींडीयोनो अग्नि
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॥ दंडकविस्तरार्थः ।।
सळग्या बाद एकदम होलवाय नहिं तेम स्त्रीवेद पण जागृत थतां पुरुषना संगमथी पण शीघ्र उपशमे नहिं. तथा नपुंसकवेद नगर दाहना अग्नि सरखो छे, कारणके द्वारिका नगरीनो दाह जेम ६ मास मुधी शान्त न थयो तेम नपुंसकवेद संगमथी शान्त न थाय अथवा नपुंसकपणाथी संगम थइ शके नहिं ने तेथी विषयेच्छा जागृत ने जागृत रहे छे. ए नपुंसक वेदना १६ भेद छे तेनो विस्ता. र नवतत्व विस्तरार्थमां कह्यो छे. त्यांथी जाणवो.
अवतरण-हवे चोवीश दंडके २४ द्वार उतारतां प्रथम २४ दंडके शरीर द्वार उताराय छे..
। ॥ मूळ गाथा ५ मी, ॥ चउ गम्भतिरियवाउसु, मणुआणं पंच सेस ति सरीरा । थावरचउगे दुहओ. अंगुल असंखभागतणु ॥५॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ चत्वारि गर्भजतियंगवायुषु, मनुष्याणां पंच शेषेषु त्रीणि
शरीराणि। स्थावरचतुष्के द्विधा, अंगुलासंख्येयभागतनुः ॥५॥
॥ शब्दार्थ ॥ चउ-चार
सरीरा-शरीर छे. गम्भतिरिय-गर्भजतिर्यंच थावरचउगे-४ स्थावरमां (ने) वाउमु-वायुकायमां (ने) दुहओ-बन्ने प्रकारे मणुआण-मनुष्योने
अंगुल-अंगुलनो पंच-पांच ( शरीर ) असंख-असंख्यातमो शेष-बाकीना दंडकोमां भाग-भाग ति-त्रण
तणू-शरीर छे.
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॥ किमाहारद्वारवर्णनम् ॥
( ५३ )
गाथार्थः गर्भजतियैज अने वायुकायने ४ शरीर छे, मनुयोने ५ शरीर छे, अने बाकीना (२२) दंडके ऋण त्रण शरीर छे. ॥ चार स्थावरतुं शरीर अंगुलनो असंख्यातमो भाग छे.
विस्तरार्थः — अहिं २४ दंडकमा प्रथम शरीर द्वार उतारतां गर्भजतिर्यंच अने वायुकायने औदा० - वै० - तै० ने कार्मण ए ४ शरीर होय छे, ए सामान्यथी कहुँ अने विशेषतः आ प्रमाणे
एक ग० तिर्यंचने २-३ - के ४ शरीर होय छे, त्यां पूर्व भमांथी आवता ग० ति० ने रस्तामां तैजस तथा कार्मण ए बेशरीर होय, त्यार बाद उत्पत्ति स्थाने उत्पन्न थवाना प्रथम समयथीज औदा० शरीर नामनो उदय होवाथी औदा० शरीर सहित ३ शरीर होय अने कोइ लब्धिपर्याप्त गर्भज तिर्यचे तप आदि करवा. थी वै० लब्धि उत्पन्न करी होय ने वैक्रिय शरीरनी रचना करे तो ते वखते वधुमां वधु ४ मुहूर्त्त सुधी वै० शरीर सहित ४ शरीर होय, पण आहा० शरीर तो फक्त चौदपूर्वधर लब्धिवंत मुनि मा
ने ज होवाथी गर्भज ति० ने ए शरीर कोइपण काळे न होय पुनः युगलिक तिर्यचने रस्तामां आवतां वे अने उत्पत्ति स्थाने आव्याबाद ऋण शरीर होय पण तेओने व्रत तप आदिना अभावे वै० लब्धिना अभावथी बैं० शरीर न होय तथा दंडक प्रकरणमां अनधिकारी एवा संमू० तिर्यंच पंचेन्द्रियने पण रस्वामां २, अने स्वस्थाने औदा० शरीर सहित ३ शरीर होय.
तथा वायुकायम पण सर्व जीवने चार शरीर न होय पण रस्वामां आवताने तै० का० ए बे, स्वस्थाने औदा० सहित ३, ने लाएक लब्धि पर्याप्त बादर वायुकानेज विना व्रतादिके पण तथा स्वभावे वैक्रिय शरीर सहित अन्तर्मु० काळ सुधी ४ शरीर होय ने त्यार बाद पुनः ३ शरीर वाळो ज होय, ने बै० ल
-
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(५४)
॥दंडकविस्तस
ब्धि वाळा ल० पर्या० बा० सिवायना सर्व वायुकामी जीवोने रस्तामा बे अने स्वस्थाने औदा० सहित ३ शरीर ज होय,
तथा गर्भजमनुष्यमां पण रस्तामां आवनारने तै० ने का. मण ए बे शरीर अने स्वस्थाने ३ शरीर तो दरेक गर्भज मनुष्यने अने दंडकमां अनधिकारी संमृ० मनुष्यने पण होय. तथा केटलाएक गर्भज ल० पर्या० मनुष्य के जेओ ए व्रत तप आदि बडे वै० शरीर रचना वखते ४ मुहूर्त सुधो एकज जीव आश्रयि ४ शरीर होय अथवा जेओ ए चौदपूर्वनो अभ्यास करी आहा० लब्धि प्राप्त करी होय तेओने आहा० शरीर रचना वखते अन्तर्मु. काळ सुधी ४ शरीर एक मनुष्य आश्रयि होय छे.. पण एक मनुष्य आअयि ५ शरीरनो संभव नथी. कारणके वै० अने आहा० शरीर समकाळे होय नहि, माटे. मनुष्यमां एक मनुष्य आश्रयि समकाळ २-३ ने ४ शरीर होय अने सर्व मनुष्य आश्रयि तथा एक-मनुष्यने भिन्नकाळ आश्रयि ५ शरीर होय. __ तथा देव अने नारक संबन्धि १४ दंडकने विषे एक जीव आश्रयि रस्तामां आवतां तै० ने का० ए बे, अने स्वस्थाने वै० शरीर होय छे वळी ए जीवो उत्तर वै० पण रचे छे ते पण वैक्रियज नाम वाल होवाथी एक जीवने समकाळे ४ शरीर न गणाय. अने ए जीवोने औदा० 'शरीर तथा आहा० शरीर कोइपण काळे संभवतुं नथी.
तथा शेष ७ दंडकोने विषे दरेक चा सर्व जीव आश्रयि रस्ता मां बे अने स्वस्थाने औदा० सहित ३ शरीर होय, इतिशरीरद्वारम्
१ देवो उत्तर वैक्रिय करती वखते सिंह-मनुष्य आदि औदा० शरीर सरखां रूप रचे छ पण ते शरीर औदारिक न जाणषां, पण वैक्रिय वर्गणाओने ज आदा० सरखी देखाववाळी कोली जाणवी.
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॥ उपयोगद्वारवर्णनम्॥ (५५) हवे बीजं अवगाहनाबार कहे छे ते आ प्रमाणे थावरचउगे-एटले पृथ्वि-अप-अग्नि-ने वायु ए चार स्थावर ( ना दरेक भेद )नां शरीर दुहओ एटले जघन्यथी अने उत्कृष्टथी एम बन्ने प्रकारे अंगुलअसंखभागतणु एटले अंगुलना असंख्यातमा भागनुं शरीर होय. ए प्रमाणे सामान्यथी चारेनुं अंगुलनो असं०मो भाग शेरीर क तोपण परस्पर नानु मोटुं छे छतां अंगुलना असं०मा भागथी वधीने संख्या०मा भाग जेवडं नथी, त्यां शरीरनी अवगाहनानो परस्पर तफावत आ प्रमाणे. सूक्ष्ममा.
बादरमां. सू० वनस्पतिनुं अल्प बादरवायु, अल्प मू० वायुनुं असं०गुण बादरत नु असं० मू० तैजसनुं
অন্ত सू० अपर्नु
बादरपृथ्वीन सू० पृथ्वीन
बादरनिगोदमुं , बादरप्रत्ये०वन न ,
___ अवतरण-अहिंथी ६-७-८-९-१० गाथाओ सुधीमां दंडकमां अवगाहनाद्वार कहेवाय छे. सव्वेसिपि जहन्ना, साहाविय अंगुलस्सऽसंखंसो । उकोस पणसयधण, नेरइया सत्तहत्थ सुरा ॥ ६ ॥
__ (संस्कृतानुवादः) सर्वेषामपि जघन्या स्वाभाविकोऽगुलस्यासंख्येयांशः। उत्कर्षतः पंचशतधषि, नैरयिकाणां सप्तहस्तसुराः॥६॥
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( ५६ )
॥ दंडक विस्तरार्थः ॥
॥ शब्दार्थः ॥
सव्वेसि सर्व दंडकोने.
SPE
ऽपि - पण.
जहन्ना - जघन्य (अवगाहना ) साहाविय - स्वाभाविक - ( मूळ शरीरनी. )
अंगुलस्स- अंगुलनो.
ऽसंखसो - असंख्यातमो भाग
कोस - उत्कृष्ट (अवगाहना )
पण सय-पांच सें.
धणू -धनुष्य. नेरइया - नारकजीवो (नी).
नारकनु.
रत्नप्रभामां
शर्कराप्रभामां.
सत्तहत्थ -सात हाथ.
सुरा - देवो (नी).
गाथार्थ :- सर्वे पण दंडकोना स्वाभाविक - ( मूळ शरीरनी जघन्य ( अवगाहना ) अंगुलनो असंख्यातमो भाग ले, अने नारकजीवोनी उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष्य तथा देवोनी ७ हाथ प्रमाण छे. (अहिं अवगाहना एटले शरीरनी उंचाई अथवा लंबाइ जाणवी . )
विस्तरार्थः - पूर्व गाथामां पृथ्व्यादि चार जीवोनुं जघ० अने उ० शरीर कथुं, ने हवे आ गाथामां शेष सव्वेसिंपि- सर्व दंडकनुं मात्र जहन्ना एटले जय० साहाविय- मूळ शरीर अंगुलस्सsiसो एटले अंगुलना असंख्यातमा भागनुं के अने उत्कृष्ट शरीर दरेक दंडकमा भिन्न भिन्न छे ते कहे ले.
नेरइया एटले नारक जीवोनुं शरीर उक्कोसा - उत्कृष्टधी पण सयधणू - ५०० धनुष्य हे. अहिं धनुष्यनु प्रमाण ४ हाथनु छे. माटे नारकनु शरीर २००० हाथ एटले ०। कोश जेटलं उच छे. ए पण सामान्यथी कहां अने विशेषतः आ प्रमाणे
जघ०
शरीर,
उ० शरीर
३ हाथ.
।। ध० ६ अं०
७० १ अंगुल.
१५॥ घ० १२ अं०
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वालुकाप्रभामां. पंकप्रभा.
धूमप्रभा.
तमःप्रभा.
तमः तमः प्रभा.
६
to
मे
सत्तहत्थसुरा - एटले देवोनुं मूळ शरीर उत्कृष्टथी ७ हाथनुं होय छे, एंटलं शरीर भवनपति - व्यन्तर ज्योतिषी - तथा सौधर्म भने इशान कल्पना दरेक देव अने देवीतुं सर्वनुं जाणवु. एम कोरपण देव के देवी ७ हाथथी नानां होयज नहि. त्यांथी आमळना देवोतुं शरीर आ प्रमाणे.
देवोनुं.
जघ० श०
३-४ कल्पं .
५ मे कल्पे..
८ मे
९ मे
१० मे
११ मे
१२ मे
33
19
19
"
39
॥ शरीरद्वारवर्णनम् ॥
१५॥ घ० १२ अं०
३१॥ ६०
55
६२॥ ध०
१२५ ध०
२५० ध०
६ हा०
५ हा०
- हा० ११
४ हाथ.
हा.
३. -हा ११
३ हा०
३१८ ध०
६२॥ घ०
१२५ ६०
२५० ६०
५०० धनु०
हा०
(५७)
उ० शरीर.
७ हाय.
६ हाथ.
४
११
५ हाथ.
8-12-1710
४ हा०
२२ हा०
हा०
१६
११
हॉ०
हा०
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(५८)
॥ दंडकविस्तरार्थः॥
१ ले अवेयके.
1
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B
:
B
४ अनुत्तरे. १ हाथ. ? सर्वार्थ.
१ हाथ० ए प्रमाणे जप० उत्कृष्ट कह्या छतां पण सर्व देवो प्रारंभमां उपजती वखते तो अंगुलनी असंख्यातमा भागनी जब० अवगाहनावाला होय, पण त्यारवाद अन्तर्मु० मात्रमा वृद्धि पामीने दर्शावेली जघ० अथवा उ० अवगाहनावाला होय. तथा नारको पण उपजती वेळाए अंगुलना अंसं० भाग जेटला होइ अन्तर्मु० मात्रमां तृद्धि पामी पूर्वोक्त जय० वा उ० अवगाहनावाळा होय.
पुनः जे स्थाने जे देवो अथवा जे नारको जेटला उंचा शरीर वाला कह्या छे ते स्थाने उत्पन्न थयेला ने उत्पन्न थनारा सर्वदेवोने नारको तुल्य उंचाइवाळा होय पण कोइ एक नारक पण अधि. कवा न्यून उंचाइवाळो न होय.
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॥ शरीरावगाहनाद्वारवर्णनम्॥ (५९) अवतरण-पूर्वगाथावत्. गभतिरि सहस जोयण, वणस्सई अहियजोषणसहस्सं । नरतेइंदि तिगाऊ, बेइंदिय जोयणे बार ॥ ७ ॥
॥ संस्कृतानुवादः ।। गर्भजतियचः सहस्रयोजनाः, वनस्पतिरधिकयोजनसहस्रः। नरत्रीन्द्रिपास्त्रिगव्यूता, दीन्द्रिया योजनानि बादश ॥७॥
शब्दार्थः ॥ गप्मतिरि-गर्भजतिर्यंच. नर-मनुष्य. सहस-हजार.
तेइंदि-त्रीन्द्रियजी जोयण-योजन..
ति-त्रण. वणस्सइ-वनस्पति.
गाउ-गाउ. अहिय-कंडकअधिक. बेइंदिय-दीन्द्रिय. जोयणसहस्सं-१००० योजन. जोयणे-जोजना
बार-बार (१२) गाथार्थ:-गर्भजतिर्यंच (शरीर)१००० योजन, के नस्पति (शरीर) कंइक अधिक १००० योजन, मनुष्य अने वीन्द्रियजीवो (तुं शरीर) ३ गाउ, अने द्वीन्द्रिय (तुं शरीर) १२ योजन छे.
विस्तरोध:--गम्भतिरि सहसजोयण एटले " ग. तिर्यंचनुं शरीर उत्कृन्थी १००० योजन लांबु होय छे" ए १००० योनुं शरीर ते गर्भज मच्छरूप जळचर तिर्यच पंवेन्द्रियर्नु होय छे पण दरेक गर्भजति नुं नहिं ते सिवायना बीमा गर्भजतियच तथा दंडकमां अनधिकारी समु० ति० पंवेनां शरीर आ प्रमाणे छे. '
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(६०) ।। दंडकविस्तरार्थः॥
तिर्य०पंचेन्नु उ० शरीर. गर्भज जळचरनु-१००० यो० समु० जळ०नु-१००० यो० गर्भज स्थळचरनु-६ गाउ.. समु०स्थळ०-२ थी ९ गाउ गर्भज खेचरनु-२ थी ९ धनु० । समु खेचर०-२ थी ९ गाउ गर्भज उरपरिसर्पन-१००० यो० समु०उरप०-२ थी ९ यो० गर्भजभुजपरिनु-२ थी ९ गाउ । समु०भुजप०-२ थी ९घ०
वणस्सह अहियजोयणसहस्सं एटले वनस्पति १००० योजनयी कंइक अधिक होय छे. एटली मोटी अवगाहनावाळी बादर प्रत्येक वनस्पतिकाय कमळ अने लता-( वल्लि) वि. गेरे १००० योज०'उडा समुद्रोमां अने मानसरोवरादि जलाशयो मां होय छे, अने बीजी बादर वनस्पतियोना अंग विगेरेनी अ. वगाहना विस्तारवाळी होवाथी अहिं लखी नथी पण ग्रन्थान्तरथी जाणवी. तथा अहिं जे कंइक अधिकता कही ते पाणीनी सपाटीश्री कमळ विगेरे जेटलं उपर वधीने आवेल होय तेटली अधिकता जाणवी. पुनः ए अवगाहना कमळादिना स्कंधनी (नाळ्नी) छे छे पण मूळ पत्र-पुष्पादिकनी अवगाहना नहिं, तेओनी अवगाहना शास्त्रमा जुदी जुदी कही छे ते त्यांची जाणवी. .. नर तेइंदि तिगाउ एटले मनुष्य अने त्रीन्द्रिय ३ गाँउ ना प्रमाणवाला छे, त्यां दरेक मनुष्य अथवा दरेक त्रीन्द्रिय ३ गाउ प्रमाणना नथी पण भिन्न भिन्न प्रमाणवाला छे ते आ प्रमाणे
१ समुद्रादि जळाशयोनी उंडाइ उत्सेधांगुलने हिसाबे हजार जोजनथी घणी अधिक छे, अने जीवोनी उंचाइ उत्से. शंगुलने हिसाबे छ माटे उतार तथा चढाववाला जळाशयमां ज्यां उत्सेधांगुल प्रमाणे १००० योजन उंडाइ आवे त्यांनी क. मळनाळ-लतादि १००० योजनवाळां वनस्पतिरूप जाणवां, अने वधु उंडाइमा रहेलां कमळ लतादि पृथ्विकायरूप जाणवां.
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॥शरोरावगाहनाद्वारवर्णनम् ॥
(६१)
. मनुष्यनु. अघशरीर.. | उ० शरीर. देवकुरु अने उत्तरकुरुक्षेत्रना यु-गलनो असंख्यागलिकनु सदाकाळ, तथा भरत | तमो भाग (अपर्याने औरवत क्षेत्रना युगलिकोनु ता मरण पामे ते. " अवसर्पिणीना प्हेले आरे अने | अपेक्षाए.) उत्सर्पिणीना ६ हे आरे.
हरिवर्ष अने रम्यकक्षेत्रना युगलिकोनुं सदाकाळ अने भरत -औरव्रतना युगलिकोनु अवस०ना बीजा आरे अने, उत्स० ना पांचमे आरे. हिमवंत-हिरण्यवंतक्षेत्रना युगलिकोनुं सदाकाळ अने भर
१ गाउ. तैरव्रत्तना युगलिको, अवस. ना ३ जे आरे अने उत्सना । ना ४ थे आरे.
२ गाउ.
अन्तींपना युगलिकोनु सदाकाळ अने भरत-औरव्रतना युगमनुष्योर्नु अव०ना ३. जे." ने उत्स० ना.४ थे आरे.
८०० धनुष्य.
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( ६२ )
॥ दंडक विस्तरार्थः ॥
सर्व महाविदेहमां सदाकाळ
अने भरतैर' वत्तमां अव० ना
३-४ ने उत्सना ४-३ आरे.
भरत - अवतमां अव०ना ५
मे अने उत्सना ६ है आरे.
भरत - भैरवतमां अव०ना ६हे
अने उत्सन्ना १ ले आरे.
"
99
59
५००
धनुष्.
७ हाथ.
२. हाथ.
तथा दंडकमा अनधिकारी संमु०मनुष्यनुं जघ० शरीर उति समये अंगुलनो नानो असं०मो भाग, अने उ० शरीर अंगु० नो मोटो असं०मी भाग जाणवो कारणके ए जीवो अपर्या० अवस्थामांज मरण पामे छे. अथवा मरण पामती वखते पण अनेक जीवो आश्रय कोइ नानी अवगाहनाए मरण पामे तो कोइ मोटी अवगाहनाए मरण पामे एम मरण वखते पण अवगाहनानी विषमतानो अपेक्षाए जघ० वा उ० शरीर संभवे छे.
तथा त्रीन्द्रिय जीवोमां पर्या० त्रीन्द्रियनीज अने तेमां पण कानखजुरा विगेरे कोइकनीज ३ गाउनी लंबाई बहारना द्वीप - समुद्रोमां जाणवी. बीजा कीडीआदि त्रीन्द्रियोनी एवटी मोटी अवगाहना संभवे नहि. शास्त्रमां कोइस्थाने एकला कानखजुरानी अने
१ भरत - भैरवतमां अवन्ना ३ जा आरामां केटलांक वर्ष सुधी अने उत्सन्ना ४ था आरामां केटांक वर्ष पछी युगलिकपणं होय ते मित्राय न होय.
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। शरीरावगाहनावारवर्णनम् ॥ कोइस्थाने कानखजुरा विगैरेनी लंबाइ ३ गाउ 'कही छे.
वेइंदिय जोयणे बार एटले द्वीन्द्रियजीवोनी लंबाइ१२ यो. जन छे, त्यां पर्या० द्वीन्द्रिय अने तेमां पण शंख विगेरेनी लंबाइ १२ योजन छे पण दरेक द्वीन्द्रियनी नहिं. एवा मोटा शंख विगेरे स्वयंभूरमणादि महासमुद्रोमां पेदा थाय छे पण आ मनु० क्षेत्रमा नहि.
अवतरण-पूर्व गाथावत् (गाथाना ३ जा चरणथी उत्तर वै० देहनी अवगाहना कहेवाय छे.) जोयणमेगं चारैदि-देहमुञ्चत्तणं सुए भणियं । वेउवियदेहं पुण, अंगुलसंखंसमारंभे॥ ८॥
॥संस्कृतानुवादः ।। योजनमेकं चतुरिन्द्रिय-देहोचत्वं श्रुते भणितं । वैक्रियदेहः पुनरंगुलसंख्येयांश आरंभे ॥ ८ ॥
॥ शब्दार्थः ॥ जोयणं-योजन
भणियं-कधु छे. एग-एक
उब्विय-बैंक्रिय (-उत्तरवैक्रिय) चउरिदि-चतुरिन्द्रियना देह-शरीर देह-शरीरनी
अंगुल-एक अंगुलनो उच्चत्तण-उंचाइ
संग्वंसं-संख्यातमो भाग सुए-श्रुतने विषे
आरंभे-प्रारंभमां
१ आर्यसमाज मतना आचार्य संन्यासी दयानंद सरस्वति आ स्थाने जू पण त्रीन्द्रिय होवाथी जैनोनी मश्करी करे छे के " ३ गाउ जेवडी मोटो जू तो जैनोना माथामांज पडती हशे" पण कृवानो देडको समुद्रनी बात शे जाणे? केवल तेमां तेओनी शास्त्रनी अनभिज्ञता-द्वेषालुता ईर्ष्यालुता ज सूचवे छे.
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(६४)
॥देडकविस्तरार्थः ।।
गाथार्थ:-चतुरिन्द्रियजीवोना शरीरनी उचाइ सिद्धांतमार योजन (-४ गाउ ) कही छे, अने उत्तर वैक्रिय देह प्रारंभकेलाए ( वायु विना सर्वने)अंगुलनो संख्यातमो भाग होय छे.
विस्तरार्थः-चतुरिन्द्रियनु शरीर १ योजननु कर्तुं त्यां प० भमरा विगेरे १ योनन अवगाहना वाला बहारना द्वीप समुद्रोमां पेदा थाय छे. ... तथा उत्तरवैक्रिय शरीर प्रारंभती वेळाए अंगुलनो संख्यातमो. भाग होय एम कडं ते वायुकाय सिवायना ग० मनु०-गर्भ ति०-देव-अने नारकने अंगे जाणवू, कारणके वायुकायनु शरीर अंगुलना असं० मा भागथी अधिक होतुं नथी, माटे वायुकाय जीव ज्यारे वैक्रिय प्रारंभे त्यारे ते उ० वैक्रिय शरीर अंगुलना असं. ख्यातमा भाग जेटलं जाणवू. अने देव नारकनु मूळ वैक्रिय आरं. भमां अंगुलनो असंख्यातमो भाग होय, तेमज आहारक देहना सं. बन्धमां कंइपण कयु नथी छतां आहा० शरीर पण प्रारंभवेळाए अं. गुलनो संख्यातमो भागज संभवे, कारण के ए पण उत्तर देह छे,
अवतरण-आगाथामां उत्तर वै० नी उत्कृष्ट अवगाहना कहेवाय छे. देवनर अहियलक्खं, तिरियाणं नव य जोयण सयाई। दुगुणं तु नारयाणं, भणियं वेउब्विय सरीरं ॥९॥
॥संस्कृतानुवादः ॥ देवनराणामधिकलक्ष तिरश्चां नव च योजनशतानि । द्विगुणं तु नारकाणां, भगितं वै क्रियशरीरं ॥९ ॥
|| शब्दार्थः ॥ देव-देव
| सयाई-सो नर-मनुष्य
दुगुणंचे गणु
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॥शरीरबारवर्णनम् ॥
|तु-वळी
अहिय-कंइक अधिक लक्ख-१ लाख (योजन) | नारयाण-नारकजीवोन तिरियाण-तिर्यंचोर्नु भणिय-का छे. नव-नव
वेउविय-उत्तरवैक्रिय य-वळी
सरीरं-शरीर जोयण-योजन ___गाथार्थ:-देव अंने मनुष्यन ( उत्तरवैक्रियशरीर ) कंडक अधिक (-४ अंगुल अधिक) १ लाख योजन, तिथचोर्नु ९०० योजन, अने नारकोर्नु उत्तरवैक्रिय शरीर बमणुं कर्तुं छे,
विस्तरार्थ:-देवनर अहिय लक्खं एटले देवर्नु उत्तरवै० शरीर १ लाख योजन, अने मनुष्यनुं वै शरीर १ लाख योजनथी कंडक अधिक कयुं छे त्यां अधिकता ४ अंगुल जेटली जाणवी कारणके ' देव भूमिथी ४ अंगुल अधर रहे छे, पणं भूमि उपर प. ग राखता नथी अने १ लाख योजन- बीजुं शरीर रचे छे, अने मनुष्य तो भूमि पर उभो रही देवना शीर्षनी ( मस्तकनी) सपाटीए सरखा आवी रहे तेटलं उत्तर शरीर० रचे छ माटे मनुष्यर्नु उ० वै० शरीर १ लाख योजन ने ४ अंगुल अधिक होय छे. आवडु मोटुं उत्तर वैक्रिय शरीर पद्मचक्रवर्तिना पापी अने मुनिओने व
काळमां पण देशनिकाल थवानो हुकम फरमावनार तथा मुनिओए बहु समजाव्या छतां पण उद्धताइ दर्शावी ३ पगलां जेटलीज जमीनमा रहेवानी रजा आपनार दुष्ट नमुचिने शिक्षा करवा माटे आचार्य पोताना बे शिष्योद्वारा मेरुपर्वतपरथी बोला
१ वैक्रिय रूप विकुर्वनारा देवो अच्युतकल्पसुधीना जाणवा, अने ९ ग्रैवेयक तथा ५ अनुत्तरना देवो वैक्रिय विकुवणा करता नथी.
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(६६) ॥ दंडकविस्तरार्थः ॥ वेला, अने वैक्रियादि अनेक लब्धिवाला विष्णुकुमार मुनिए रची बे पगलां जंबूद्वीपने बे छेडे मूकी त्रीजा पगलानी जमीन मा. गता नहिं आपनार नमुचिनी छातीपर त्रीजु पगलु मूकी संघने उपजेलो उपद्रव शान्त करी शासन प्रभावना करी.
'तिरियाणं नव य जोयणसयाई' एटले तिर्यचोर्नु उत्कृष्ट वै० शरीर ९०० योजन जेटलं होय छे. अने 'दुगुणं तु नारयागं' एटले नारकजीवोनु उ० उत्तरवैक्रिय शरीर पोताना मूळ वै. क्रिय शरीर करतां बमणु होय छे, जेमके ७ मी नारकीना नारकर्नु मूळ वै० शरीरं ५०० धनु० छे, तो तेओ १००० धनुष्यनुं उ० वै. शरीर रची शके छे,
तथा वायुकायना उ० उत्तर वै० शरीरनी अवगाहना अहिं क. ही नथी तोपण अंगु० ना असं० मा भाग जेटली जाणवी. ए प्रमाणे 'भणियं वेउब्विय सरीरं'-उत्तर वैक्रिय शरीरनुं प्रमाण का ____ अहिं उत्तरवै० शरीर रचवानुं प्रयोजन आ प्रमाणे-देवो तीर्थकर भगवाननां कल्याणक आदि वखते मनुष्य क्षेत्रमा आववाने, परजीवना उपकार माटे अथवा अपकार माटे, स्वऋद्धिदर्शनाथै, विषय सेवनार्थ इत्यादि अनेक कारणे वै० शरीर रचे छे. तथा मनुष्यो उपकार अने अपकार करवादि अनेक कारणे. नारको फक्त बोजा नारकने दुःख देवाने कुंथु आदि रूप विकुर्वे छे, वायु. काय स्वभावथी विकुवै छे, अने तियेच पंचे० ने वै० शरीर रचवानु ण तथाविध विशिष्ट कारण समजवू
अवतरण:-आ गाथामां उत्तर वैक्रिय शरीर केटला का. ळ सुधी टके ? ते कहेवाय छे.
॥ मूळ गाथा १० मी.॥ अंतमुहुत्तं निरए-मुहुत्त चत्तारि तिरिय मणुएसु । देवेनु अद्धमासो, उक्कोस विउवणाकालो ॥१०॥
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॥ उत्तरवैक्रियकालवर्णनम् ॥ (६७)
॥ संस्कृतानुवादः ॥ अन्तर्मुहूर्त नैरयिके, मुहूर्ताश्चत्वारि तिर्यग्मनुजेषु । देवेष्वधमास, उत्कृष्टो विकुर्वणाकालः ॥ १० ॥
॥शब्दार्थः ॥ अंतमुहुत्तं-अंतर्मुहूर्त
देवेसु-देवोमां निरए-नारकजीवोमां अद्धमासो अर्धमास मुहुत्त-मुहूर्त ( २ घडी) उक्कोस-उत्कृष्ट चत्तारि-चार
विउव्वणा-विकुर्वणानो(-उत्ततिरिय-तिर्यंच ( अने)
रवै० शरीरनो) मणुरसु-मनुष्योमां | कालो-काळ
गाथार्थः-नारंकजीवोमां (वै० श० उ० नो काळ ) अ. न्त,०, तिर्यंच अने मनुष्योमा ४ मुहर्त (-८ घडी ), अने देवोमा ०॥ मास उत्तर वै० शरीरनो उत्कृष्ट काळ कह्यो छे.
विस्तरार्थ:-सुगम छे. विशेष ए के देवकृत वै० शरीरनो काळ ६ मास पण कह्यो छे. कारण के परमाधामीकृत पर्वतनी ६ मास स्थिति श्री सूयगडोग सूत्रमा कही छे. अवतरण-आ गाथामां २४ दंडके संघयण कहे छे,
॥ मूळ गाथा ११ मी. ॥ थावरसुरनेरइया, अस्संघयणा य विगल बेवहा । संघयणबगं गप्भय, नरतिरिएसु वि मुणेयव्वं ॥११॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ स्थावरसुरनरयिका असंहननाश्च विकलाः सेवार्ताः। संहननषटकं गर्भजनरतिरश्वोऽपि ज्ञातव्यं ॥ ११ ॥
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(६८)
॥ दंडकविस्तरार्थः॥
छगं-छ
॥ शब्दार्थः ॥ थावर-स्थावर
छेवट्ठा सेवा संघयण वाळा
संघयण-संघयण नेरइया-नारक असंघयणा-संघयण रहित । गप्भय-गर्भज य-अने
नर-मनुष्य विगल-विकलेन्द्रियो तिरिएसु-तिर्यंचमां
मुणेयव्यं-जाणवां गाथार्थ:-स्थावर-देव-अने नारको संघयण रहित छे, अ. ने विकलेन्द्रियो सेवा संघयणवाळा छे, अने गर्भज मनुष्य तथा तिर्यंचोने छ ए संघयण जाणवां - विस्तरार्थ:-हवे आ गाथामा २४ दंडके संघयणद्वार कहेवाय छे.
थावरसुरनेरच्या असंघयणा--स्थावरना ५ दंडक, देवना १३ दंडक, अने नारकनो १ दंडक ए प्रमाणे १९ दंडक संघयण विनाना छे, कारणके देवोने नारकोने अने स्थावरोने हा. डकां होय नहो, अने हाडकां न होय तो हाडकांनी रचनारूप सं. घयण पण क्याथी'होय?
__ य विगलछेवट्ठा--चळी विकलेन्द्रियो छेदस्पृष्ठ संघयणवाळा होय छे, अहिं द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-ने चतुरिन्द्रिय जीवोमा केटलाएकने हाडकांनो संभव छे, जेमके शंख-कोडा चंदनक इत्यादि द्वीन्द्रियोनुं शरीर हाड अने मांसयुक्त छे, शेष अळसीयां वि
१ श्री जीवाभिगममां देवीने पण वर्षभसंघयणवाळा, अने एकेन्द्रियोने छेदस्पृष्ट संघयणवाळा कह्या छे ते शक्तिनी भपेक्षाए पण हाड रचनानी अपेक्षाए नहिं. अने त्यांज नार. कने असंघयणी कया छे.
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|| संघयणद्वारवर्णनम् ॥
( ६९ ) गेरे द्वीन्द्रियोनुं शरीर हाड विनानुं छे, तथा केटलाएक त्रीन्द्रियोने तथा केटलाएक चतुरिन्द्रिय जीवोने हाडनो संभव छे, पण स्पष्ट रीते ओळखातां नहि होवाथी नाम आपत्रां अशक्य छे, माटे ए प्रमाणे जे जे विकलेन्द्रियाने हाड होय ते ते विकलेन्द्रियोने संघयण होय, ने बीजाने न होय, तेमां पण ए जीवोने मात्र छेदस्पृष्ट संघयणज होय छे, कारण तेओना हाडना बे छेडा संधिस्थाने मळेला होय छे, अथवा जेओने एकज आखुं हाडकुं पण ककडा न होय तो प
(सेवा वडे करीने पीडायलं ए अर्थने अनुसारे ) सेवा संघ - यण ज होय (अहिं छेदस्पृष्ट अने सेवा बन्ने नाम छेवडा संघयणनां छे. ) संघयण छगं गन्भयनर तिरिएसु वि मुणेयवं - गर्भज मनुष्यने अने तिर्यचोने ६ संघयण होय परन्तु एक जीवने एकसंघयण होय छे. माटे अनेक गर्भज मनुष्य वा तिर्यचनी अपेक्षre ६ संघयण हो शके. अहिं कोइपण गर्भ० मनुष्य वा कोइ पण गर्भज तिर्यच संघयण विनानो होय नहिं,
तथा दंडकमा अनधिकारी सम्मू० तिर्यच अने सम्मू० मनुष्यने दरेकने सेवा संघयण श्री जीवाभिगमजीमां कह्युं छे. •(0)<
अवतरण - आ गाथाना हेला चरणमां सर्व दंडकोने विवे संज्ञा कहेवाय छे, अने शेष त्रण चरणमां संस्थान कहेवाय छे.
॥ मूळ गाथा १२ मी ॥
सव्वेसिं चउ दह वा, सन्ना सव्वे सुरा य चउरंसा । नरतिरि छ स्संठाणा, हुंडा विगलिंदि नेरइया ॥१२॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥
सर्वेषां चत्वारि दश वा संज्ञाः सर्वे सुराश्च चतुरस्त्रा: (रंशाः) नरतिर्यचः पत्र संस्थाना - हुंडकाः विकलेन्द्रियनैरयिकाः ॥ १२ ॥
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(७०) ॥ दंडकविस्तरार्थः ।।
॥ शब्दार्थः ॥ सव्वेसिं-सर्वे दंडकोने चउरंसा-समचतुरस्र संस्थानवाला चउ-चार
नर-मनुष्य
तिरि-तिर्यच वा-अथवा
छ-छ (६) सन्ना-संज्ञाओ
संठाणा-संस्थानवाळा सबवे सर्व
हुंडा-हुंडक संस्थानवाळा मुरा-देव
विगलिंदि-विकलेन्द्रिय य-अने
नेरइया-नारको गाथार्थ:-सर्व दंडकने (-जीवोने ) ४ अथवा १० संज्ञा होय छे, अने सर्व देवो समचतुरस्त्र संस्थानवाला छे. मनुष्य अने तियेची ६ संस्थान वाळा, अने विकलेन्द्रिय तथा नारको हुंडक संस्थान वाला छे..
विस्तरार्थ:--आ गाथामां संज्ञाधार तथा संस्थान हार कहेवाय छे.
सब्वेसिं चउ दह वा सना-सर्व दंडकोमा चार अथवा १० संज्ञा होय छे. अहिं गर्भन मनुष्य सिवाय २३ दंडकमां प्रा. वेला सर्व संसारी जीव मात्रने ४ के १० संज्ञा होय छे, पण गर्भ ज मनुष्यमां दरेक गर्भन मनुष्यने ज्यां सुधी मोहनीय कर्मनो उदय छे, त्यां सुधी सर्व दशे संज्ञाओ होय, अने मोहनीयनो उपशम वा क्षय थतां वीतरागी जीवने फक्त वेदनीयजन्य, अथवा सर्वज्ञने आहारसंज्ञा पण न होय आहारसंज्ञा होय.
सम्वे सुरा य चउरंसा-सर्व देवो समचतुरस्र संस्थानवाला छे, ए मूळ वैक्रिय शरी नी अपेक्षाए तेमन उत्तर वैक्रियनी अ. पेक्षाए पण समचतु० कर्मनो उदय होबाथी अन्य संस्थानवाळे
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॥ संस्थानद्वारवर्णनम्॥ (७१) शरीर विकुा छतां ते देवने समचतु० संस्थानन कहेवाय, अथवा देखवानी अपेक्षाए उत्तर वैक्रिय देव ६ संस्थानी गणाय पण तेवा व्यपदेशनी प्राधान्यता नथी.
नरतिरिय छसंठाणा-गर्भज मनुष्य अने गर्भज तिर्यच ६ ए संस्थान वाळा होय, एम सामान्यथी कडं अने विशेषतः आ प्रमाणे सर्व युगलिक मनुष्यो युगलिक तिर्यंचो सर्व तीर्थकरसर्व चक्रवर्ति-सर्व वासुदेव-सर्व बळदेव-सर्वपतिवासुदेव-इत्यादि उत्तम पुरुषो समचतुरस्त्र संस्थान वाला छे, सामान्य केवलि विगेरे तथा सामान्य मनुष्यो ६ ए संस्थानवाला छे. तेम युगलिक सिवायना तिर्यच पंचेन्द्रियो पण ६ ए संस्थानवाळा छ, अहिं एक जीवने एक संस्थान भवपर्यन्त होय. - तथा दंडकमां अनधिकारी सम्मू० ' नियंच अने सम्भू० मनु
ध्यने श्री जीवाभिगममा हुंडक संस्थानी कह्या छ, ... हुंडा विगलेदिनेरइया-सर्व विकलेन्द्रियो अने सर्व नारको हुंडक संस्थान वाला छे. एमां नारकोनुं हुंडकसंस्थान तो पां खो उखेडी लीधेला पक्षी सरखं अत्यंत कुत्सित कधुं छे,
अवतरण-आ गाथामां पण पृथ्व्यादि पांच स्थावरनां संस्थान कहेवाय छे.
॥ मूळ गाथा १५ मी.॥ नाणाविह धय सूई, बुब्बुय वण वाउ तेउ अपकाया। पुढवी मसूर चंदा-कारा संठाणओ भणिया ॥ १३ ॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ १ सम्मू० तिर्यंचने छछा कर्मग्रंथना अभिप्रायथी श्री बृ. हसंग्रहणीवृत्तिमा ६ संस्थानी कह्या छे-इति द्रव्यलोकः
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(७२) ॥ दंडकविस्तरार्थः॥ नानाविधाध्वजसूचीबुबुदाश्च वनवायुतैजसपूकायिकाः । पृथ्विमसूरचंद्राकाराः संस्थानतो भणिताः ॥ १३ ॥
॥ शब्दार्थः ॥ नाणाविह-नाना प्रकारचें । अपकाया-अपकायतुं
(-अनेकप्रकारच्) | पुढवी-पृथ्विकाय धय-ध्वजना आकारनु मसूर-मसूरनी दाळ सूई-सोयना आकार- चंदाकारा-अर्धचंद्रना बुब्बुय-परपोटाना आकार
आकार वाली वण-वनस्पतिकायर्नु संठाणओ-संस्थानथी वाउ-वायुकायर्नु
(-आकारथी) तेउ अग्निकायनें
भणिया-कही छे. गाथार्थ:-वनस्पति कायर्नु (संस्थान ) अनेक प्रकारचें, वायुकायनु ध्वजाने आकारे, अग्निकाय सोयने आकारे, अपकाय पाणीना परपोटाने आकारे, अने पृथ्विकाय आकार बडे मसूरनी दाळ अथवा अर्धचंद्रना आकारे कहेली छे.
विस्तरार्थः--आ गाथामां पृथ्विकायादि ५ स्थावरोर्नु संस्थान कहे छे ते आ प्रमाणे--
वण वाउ तेठ अपकाया-वनस्पति-वायुकाय-अग्निकाय -ने जळकायन संस्थान अनुक्रमे नाणाविह धय सूइ बब्बुय-अ. नेक प्रकारच्-ध्वना सरग्वं, सोय सरखु, ने परपोटा सरखं छे, अर्थात् वनस्पतिनुं शरीर अनित्थंस्थ (-अमुक प्रकारनु छ एम नहिं माटे अनियत ) आकारवाळ श्री तत्वार्थवृत्तिमां कहेल छे. कारण के कोइ वनस्पति केवा आकारनी ने कोइ वनस्पति केवा आकारनो होय छे माटे वनस्पतिन संस्थान अनेक आकारतुं कहेल छे, तथा वायुनुं संस्थान एटले वायुकायी एक जीवना औ
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॥ संस्थानद्वारवर्णनम् ॥
(७३)
दा० शरीरनो आकार ध्वजा-पताका सरखो छे, अने उत्तरवैक्रिय शरीर रचे ते पण मूळ शरीरना आकारेज ( एटले पताकाने आकारेज) रचे छे, तथा अग्निकायी एक जीवना औदा० शरीरनो आकार सोय सरखो छे, अने जळकायी एक जीवना औदा० शरीरनो आकार परपोटा सरखो अर्ध वर्तुल छे.
पुढवीमसूरचंदाकारा संठाणओ भणिया-आकारवडे पृथ्वी मसूर अने चंद्र आकारनी कही छे. अर्थात् पृथ्विकायी एक जीवना औदारिक एक शरीरनो आकार मसरनी दाळ अथवा अर्धचंदना आकार वाळो छे. ए प्रमाणे शास्त्रमा जे संस्थानो कह्यां छे, ते एकेक शरीरने आश्रयि जाणवां, अने ते एकेक शरीर दृष्टिगोचर नहिं होवाथी ते संस्थानो पण दृष्टिगोचर थतां नथी, फक्त वनस्पति जीव महाकायावाळो होवाथी तेनुं अनेकविध सं. स्थान तो प्रत्यक्ष छे.
पुनः ए संस्थानो बादरस्थावरनी अपेक्षाए छे, अने सूक्ष्म जीवोमां सूक्ष्म वनस्पतिनुं संस्थान स्तिबुक आकार- एटले प्रायः घन गोळाकार छे. वीजा सूक्ष्मजीवोनो आकार बादरवत् छे के घन गोलाकार छे ते मारा जाणवामां नथी इति संस्थानद्वारम्
अवतरण-आ गाथाना प्हेला चरणमां सर्व दंडकने का. य केटला होय ? ते, अने शेष त्रण चरणमां कया दंडके कइ लेश्या होय ? ते कहेवाय छे.
॥ मूळ गाथा १४ मी.॥ सव्वे वि चउकसाया, लेस छगं गम्भतिरियमणुएसु । नारय तेऊ वाऊ, विगला वेमाणि यति लेसा ॥१४॥
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(७४)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ सर्वेऽपि चतुष्कषाया लेश्याषटकं गर्भजतियग्मनुजयोः । नारकतेजोवायुविकला वैमानिकाच निलेश्याः ॥ १४ ॥
॥ शब्दार्थः ॥ सव्वे-सर्व
नारय-नारक इंवि-पण
तेऊ-अग्निकाय चउ-चार
वाऊ-वायुकाय कसाया-कषायवाळा विगला-विकलेन्द्रियो लेस-लेश्या
माणिय-वैमानिकदेवो छगं-६ (छ)
ति-त्रणगतिरिय-गर्भनतिर्यच लेसा-लेश्यावाला मणुएसु-मनुष्योमा ___ गाथार्थ:-सर्वे जीवो चारे कषायवाला छे. गर्भन तिर्यच अने मनुष्योमा ६ लेश्या, अने नारक-अग्निकाय-वायुकाय-विकलेन्द्रिय-तथा वैमानिक देवोने ३ लेश्या छे. विस्तरार्थ:-हवे आ गाथामां कषाय तथा लेश्याहार कहे छे.
सम्वेवि चउकसाया-सर्वे दंडको चार कषायवाला छे. त्यां साते नारकना नारकोने एक बीजापर वैरभाव होवाथी क्रोधवाला छे, तेमन मान-माया-अने लोभ कषायी पण छे. तथा दे. वोमां पण परस्पर वैरभाव छ, एक बीजानी साथे युद्ध करे छे, कोइ कोइनी देवांगनाओ उपाडी जाय छे, इन्द्रो परस्पर विमानोना भाग माटे युद्ध करे छे, एक वीजानी प्रभुता सहन करता नथी, माटे देवमां पण चारे कषाय रहेला छे, तेमा ९ अवयक अने ते करतां पण ५ अनुतरवासी देवोनो कषाय अतिमंद थे, त्यां परस्पर युद्ध-लडाइ-झगडा-इर्ष्या-अभिमान छे नहिं, परन्तु अ
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॥ उत्तरवैक्रियकालवर्णनम् ॥ (-७५) ल्प कषाय छे, पुनः अनुत्तरविमानवासी देवो अति वैराग्यवान, देवलोकने केदखाना तुल्य समजी मनुष्यमा आवी मोक्ष जवानी आकांक्षा वाळा, अने सदाकाळ द्रव्यानुयोगना चितवनमा अनुरक्त छे, तथा अति मंदकषायी छे, तथा गर्भज तिर्यंचोने तो कषाय प्रत्यक्ष देखीए छोए, तथा गर्भज मनुष्योमां वीतराग सिवायना सर्वे कषायवाला छे, परन्तु युगलिक तिर्यंचो बहु अल्प कषायवाला छे, तथा उत्तरोत्तर गुणद्धिने प्राप्त थयेला एवा अवीतरागी मुनिमहात्माओ पण अल्पकषायवाळा छे. युगलिक तिर्यचोमां सिंहादि हिंसक प्राणीमी पण अति दयाई चित्तथी मृगनां बच्चांनी साथे वात्सल्य भाववाला छे, पोतानां मात पिता साथे पण अल्प राग धारण करनार छे तो युगलिक मनुष्योनी तो वातज शी? तथा स्थावरो अने विकलेन्द्रियो पण अस्पष्ट अथवा स्पष्ट कषायवाला छे. तेमज सम्मू० नियेच अने सम्मू० मनुष्यो पण चारे कषायवाला छे. ॥ इति कषायद्वारम् ॥
लेसछगं गभतिरियमणुएसु-गर्भजतिर्यच अने मनुष्य ए बे दंडकमां ६ ए लेश्या होय छे, त्यां एक ति० वा मनु० ने अन्तर्मुः ' सुधी एकन लेश्या होय पण एक जीवने समकाळे वे लेश्या न होय, तथा मनुष्यमां अप्रमत्तने ३ शुभ लेश्या, अने श्रेणिगततथा सर्वज्ञने केवळ शुक्ल लेश्या छे.
नारय तेऊवाऊ विगला वेमागिय तिलेसा- नारक-अग्नि-वायु-विकले०-वैमानिक-मां त्रण लेश्या छे एम सामान्यथी कह्यु अने विशेषतः आ प्रमाणे
१ सर्वज्ञने शुक्ल लेश्या दे गुण पूर्वनोड वर्ष सुधी हीय छे माटे ते सिवायना शेष काळमां सर्च-तिर्यंच मनुष्योने मा. टे एज नियम छे.
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(७६)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
रत्नप्रभा ने शर्कराप्रभामां सर्वनारकोने कापोतलेश्या छे, अने वालुकाप्रभामां पल्योपमना असंख्यातमा भोग अधिक ३ प ल्योपमना आयुष्यवाळा सुधीना नारकोने कापोत लेश्या छे, ने तेथी उपरांत आयुष्यवाळाने नीललेश्या छे, तथा पंकप्रभामा सर्व नारकने नील लेश्या छे, अने धूमप्रभामां पल्यो० ना असं० मा भाग अधिक १० सागरोपमना उत्कृष्ट आयुष्यसुधीना नारकोने नीललेश्या छे, अने तेथी उपरांत आयुष्यवाळा सर्वनारकोने नीललेश्या छे, अने तेथी उपरांत आयुष्यवाळा सर्व नारकोने कृष्णलेश्या छे, तथा छठ्ठी अने सातमी नरकमां सर्वने कृष्णलेश्या छे. अहिं प्रथम पृथ्विथी बीजी पृथ्विमां अधिक मलिन लेश्या यावत् सातमी सुधी अधिक अधिकतर मलिन लेश्या जाणवी ए लेश्याओ आयुष्यपर्यन्त अवस्थित जाणवी.
अग्नि- वायु -अने विकलेन्द्रियने प्रथमनी त्रण अशुभ कुष्णनील-ने कापोत लेश्या छे. पण एमांना एक जीवने एक अन्तर्मु० सुधी एकज लेश्या होय छे.
वैमानिक देवोमां - १-२ कल्पे तेजो लेश्या, ३-४-५ कल्पे पद्म लेश्या अने त्यार पछी ६ हा कल्पथी सर्वार्थ सुधी सर्वत्र सर्व देवोने केवल शुक्ल लेश्या छे, १ ला कल्पथी उपर उपरना स्वर्गी अनुक्रमे अधिक अधिकतर विशुद्ध लेश्या होय छे, अने ए Tufanit श्याओ स्व स्व आयुष्य पर्यन्त अवस्थित छे.
अवतरण - आ गाथाना पूर्वार्धमा लेश्या अने उत्तरार्धमां ( त्रीजा चरणमां ) इन्द्रियद्वार अने ( चोथाचरणथी ) समुद्घा - तद्वार कहेवाय है.
॥ मूळ गाथा १९ मी. ॥
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॥ लेश्या-इन्द्रिय-समुद्घातद्वारवर्णनम् ॥ (७७) जोइसिय तेउलेसा, सेसा सव्वे वि हुंति चउलेसा । इंदियदारं सुगमं, मणुआणं सत्त समुग्घायो ॥१५॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ ज्योतिष्कास्तेजोलेश्याकाः, शेषाःसर्वेऽपि भवंतिचतुर्लेश्याकाः इन्द्रियद्वारं सुगम्यं, मनुजानो सप्त समुद्घाताः ॥१५॥
॥शब्दार्थः ॥ जोइसिय-ज्योतिषीदेवो इंदियदारं-इन्द्रियद्वार तेउलेसा-तेजोलेश्यावाळा सुगम-सुगम छे सेसा-बाकीना .. मणुआणं-मनुष्योने सव्वे वि-सर्वे पण दंडको सत्त-सात हुँति-छे
समुग्घाया-समुद्घात छे चउलेसा-चार लेश्यावाळा
गाथार्थः-ज्योतिपीदेवो तेजोलेश्यावाला छे, अने बाकीना सर्वे दंडक ४ लेश्यावाला छे. इन्द्रियद्वार सुगम छे. मनुष्यने सात समुद्घात छे. . विस्तरार्थ:--ज्योतिषीदेवो सर्वे तेजोलेश्यावाला छे, अने शेष पृथ्वी-अप्-वनस्पति-१० भुवनपति ने व्यन्तर ए १४ दंडकमां चार चार लेश्या छे, एम सामान्यथी कां, अने विशेषतः आ प्रमाणे___ पृथ्वी ने जळ-ए बे बादरमा ज प्रथमनी चार लेश्या छ, ने सूक्ष्मपृथ्वी अने जळमां प्रथमनी त्रण ज लेश्या छे, तथा वनस्पतिमां बादरपर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिमां.ज ४ लेश्या छे, ने बीजी सर्व व. नस्पतिमां ३ लेश्या छे. तेमां पण दरेक बादर पृथ्व्यादिने ४ ले
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(-७८)
|| दंडवस्तरार्थः ||
श्या नहिं पण स्वाभाविक लेश्या त्रण ज छे, परन्तु तेजोलेश्या एमरणपामेला इशान सुधीमांनो कोइ देव बादर पृथ्वीपणे बादर ज
पणे अथवा बादर प्रत्येक वनस्पति पणे उत्पन्न थाय तो उत्पन्न थती वखते ज अपर्याप्त अवस्थामा अन्तर्मु० सुधी ते पृथ्व्यादिने तेजोलेश्या होय छे, ने त्यारबाद ते जीवने आखाभव सुधी ३ लेश्याओ ज जुदे जुदे अन्तर्मुह प्राप्त थाय छे, परन्तु तेजोलेश्या कदी पण प्राप्त थती नथी. अने शेष सूक्ष्म पृथ्व्यादि भेदोमां देवनो जीव आवी शकतो नथी माटे तेओने चोथी तेजोलेश्यानो कदी पण संभव नथी.
तथा १० भुवनपतिमा असुरकुमार निकायना जे १५ परमाधार्मिक देवो छे तेओने फक्त कृष्णलेश्या छे, ने बाकीना असुर कुमारनिकायी देवोभां केटलाएक देव कृष्णलेश्यावाळा, केटलाएक नीलेश्यावाळा-केटला एक कापोतवाला ने केटलाएक तेजोलेश्याalळा पण छे, ए रीते चार प्रकारना असुरकुमार निकायी देवो छे. पण एक देवने जुदे जुदे वखते चारे लेश्या छे एम नहि, कारणके देवोनी लेश्या अवस्थित छे तथा जेम असुरकुमार निकायी देवो ४ लेश्यावाळा ह्या तेवी ज रीते शेष ९ भुवनपति अने व्यन्तरनी पण सर्व (१६ ) निकायोमां चार चार लेश्या जाणवी.
- तथा दंडकमां अनधिकारी सम्मू० तिर्यच अने सम्मू० मनुष्यने पण प्रथमनी ३ लेश्याओ जाणवी ॥ इति लेश्याद्वारम् ॥
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ed start isai Haarai ग्रन्थकर्ता कहे छे के इंदियदारं सुगमं -- इन्द्रियद्वार सुगम छे माटे तेनुं विवेचन करातुं नथी, छतां विशेष समज आ प्रमाणे
नरकनो १ – भुवनपतिना १० - गर्भजतिर्यच १ - गर्भजमनुष्य १- व्यन्तर - ज्योतिषी ने वैमानिक ए १६ दंडकमां सर्व जीवने ५
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|| इन्द्रिय-समुद्घातद्वारवर्णनम् ॥
(७९)
इन्द्रियो छे, पृथ्विकायादि ५ स्थावरने केवळ स्पर्श इन्द्रिय छे, द्वीन्द्रियने स्पर्श तथा रसनेन्द्रिय, श्रीन्द्रियने स्पर्शन - रसना - घ्राणइन्द्रिय, ने चतुरिन्द्रियने श्रोत्रेन्द्रिय सिवायनी ४ इन्द्रियो के ए संख्या द्रव्यइन्द्रियोनी अपेक्षाए जाणवी. अन्यथा लब्धिरूप भावइन्द्रिय तो दरेक जीवमात्रने पांच पांच छे. सर्वज्ञ सिवायना सर्व जीवने इन्द्रियद्वारा तथा मनद्वारा ज्ञान थइ शके छे, ने सर्वज्ञ भगवानने इन्द्रियो छे, पण ज्ञानप्रासिमां कारण पणे प्रवर्तती नयी, कारणके ऐन्द्रियज्ञान अन्तर्मुहूर्त्त काळे थाय छे, ने सर्वज्ञने तो ए कज समयमा सर्वज्ञान थाय छे, माटे ज श्री सर्वज्ञने १० प्राणमांथी ५ प्राण गणाय. पुनः दरेक जीवने इन्द्रिय पर्याप्त पूर्ण कर्या बाद इन्द्रियद्वारा ज्ञानप्राप्ति होइ शके ॥ इति इंद्रियद्वारं ॥
हवे दरेक दंडके समुद्घातद्वार अवताराय छे, त्यां प्रथम मणुयाणं सत्त समुग्धाया - मनुष्योने ७ समुद्घात हो य, तेमां वेदनाकषाय ने मरण ए ३ समु० सर्व मनुष्यने होय, वै० समु० वै० लब्धिवाळा कोइक गर्भज मनुष्यने, तैजस समु० पण तेजसलब्धिवाळा कोइक मनुष्यने, आहा० समु० कोइक चौद पूर्वधर मुनिने अने केवलिसमुद्घात केलाएक केव
भगवान होय पण सर्व केवलिने नहिं, कारणके अन्तर्मु० थी ६ मास सुधीनुं आयुष्य शेष रहेतां केवलज्ञान पामेला जीवो निश्रय समुद्घात करे अने वीजा ६ मासथी समयादि अधिक आयुय बाकी रहेतां केवळज्ञान पामेला जीवो समुद्घात करे अथवा न पण करे एम ( श्री आव० वृत्तिमां ) कह्युं छे. अथवा दरेक केवलिने वेदनीयादि ३ अवाति कर्मनी स्थिति आयुष्य करतां अधिकज होय एवो नियम नहिं होवाथी पण कोइ केवळी समु०
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(८०)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
करे ने कोइ न ' करे.
अवतरण-- गाथामां ७ समुद्घातनां नाम कहे छे.
॥ मूळ गाथा १६ मी ॥ वेयण कसाय मरणे, वेउब्विय तेयए य आहारे । केवलि य समुग्घाया, सत्त इमे हुंति सन्नीणं ॥१६॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ घेदना कषायो मरण, वैक्रियस्तैजसश्चाहारकः । केवलिश्च (कैवलिकः) समुद्घाताः, सप्तैते भवंति संज्ञिनाम्
॥शब्दार्थः ॥ वेयण-वेदना समुद्घात केवलि (य)-केवलसमु० ( केकसाय-कषाय समु०
बलिक समु०) मरणे-मरण समु०
समुग्याय-समुद्घात. वेउब्विय-वैक्रियसमु०. सत्त-सात तेयए-तैजससमु०
इमे-ए पूर्वोक्त य-अने आहारे-आहारक समु० सन्नीण-संज्ञीजोवोने
हुति छ
१ गुणस्थान प्रत्ये विचारतां मिथ्यात्वे वे०-क०-म० - वै०-ने तै०-ए पांच ममु० छे. तथा २-४-ने ५ गुणस्थाने पण एज पांच समु० छे. ३ जे मरण -वै० मिश्रयोग ने अति संक्लेशने अभावे मरण वै० ते ५.३ समु० सिवाय मात्र वेदना -ने कषाय समु० २. ६-७-८-९१०-११ मे मरण समु. अहिं मतांतरे ६ थी ११ सुधीमां मरण छे पण मरण समु० न. हि. १२-१४ मे सम्० मथी. ने १३ मे केवलि समु० एकज छे
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॥ श्या-इन्द्रिय-समुद्घातद्वारवर्णनम् ॥ (१) गाथार्थ:-वेदना-कषाय-मरण-वैक्रिय-तैजस आहारक-अने कैपलिक ए ७ समुद्घात संज्ञिजीवोने छे, (-संज्ञि मनुष्योने छे.)
विस्तरार्थ:-द्वारवर्णममा जुओ.
अवतरण-आ गाथामां कया दंडके केटली समुद्घात होय! ते कहे छे.
॥ मूळ गाथा १७ मी.॥ एगिदियाण केवल, तेऊ आहारगविणा उ चत्तारि । ते वेउव्विय वजा, विगला सन्नीण ते चेव ॥ १७ ॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ एकेन्द्रियाणां केवलतैजसाहारकान् विना तु चत्वारि । ते वैक्रियवर्जा विकलाः, संज्ञिनां ते चैव ॥ १७ ॥
॥ शब्दार्थः ॥ एगिदियाण-एकेन्द्रियजीवोने । ते-ते (४ समु०) मांथी केवल-केवल समुद्घात वेउब्विय-वैक्रिय समु० तेज-तैजस समु०
वजा-रहित आहारग-आहारकसमु० विगला-विकलेन्द्रियोने विणा-विना
सन्नीण-संज्ञिजीवोने उ-वळी-अने
ते-ते [ साते समु.] पचारि-चार
चैव-निश्चय गाथार्थ:-एकेन्द्रिय जीवोने केवलि-तैजस-आहारक सिवायनी ४ समुद्घात छे, विकलेन्द्रियो वैक्रिय समु० सिवाय ते ( चार समु. मांथी त्रण) समुद्घातवाला छे. अने संज्ञिजीवोने ( मनुष्यनी अपेक्षाये) निरुप से सर्व (सात) समधातो छ,
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(२)
॥ दैडकविस्तरार्थः ॥
विस्तरार्थः - एगिंदियाण इत्यादि - एकेन्द्रिय जीवोने के बलि - तेजस ने आहारक सिवायनी ४ समुद्० होय, तेमां पण प्रसनाडीमा रहेला पृथ्वी - अप अग्नि-ने वनस्पतिना सर्व भेदोमां दरेक जीवने ३ समुद्घात प्रथमनी होय, अने फक्त केटलाएक ( - संख्यातमा भागना ) बादर लब्धिपर्याप्त वायुकायने ज वैक्रियसहित ४ समु० होय, ने शेष वायुना सर्वभेदोमां दरेक जीवने ३ - ३ समु० होय. तथा त्रस नाडी बहार लोकना निष्कुटमां रहेला पांचे एकेद्रियोने वेदनासमुद्घात होय नहि, तेमज कपायसमुद्धात पण एकेन्द्रियोने पूर्वभवानुवृत्तिए छे, पण त्रस जीबोनी पेठे अत्यंत तीव्राध्यवसायनो अभाव होवाथी कषाय समुद्घात प्रायः मनायलो छे. ने मरणसमुद्धात पण दरेकने होय एवो नियम नथी. पण दरेक दंडकमांना केटलाएक जीवोनेज होय छे
'ते वेउब्वियवज्जा' इत्यादि ते एटले एकेन्द्रिय संबंधि ४ समु० मांथी वैक्रिय समु० सिवायना ३ समु० विकले० ने होय छे, अनेसंज्ञि जीवने आहारक शरीरि - केवली आदि मनुष्योनी अपेक्षाये सर्व सांते समुदघाती होयछे.
अवतरण-- आ गांथाना पूर्वार्धमां बाकी रहेला दंडके समुद्यात अने उत्तरार्धी दंडकोमा दृष्टिद्वार कहे छे.
॥ मूळगाथा १९ मी. ॥
पण गप्भतिरिसुरेसु, नारयवाऊतु चउर तिय सेसे विगल दुदिट्ठी थावर, मिच्छत्ति सेस तियदिव ॥ १९ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥
पंच गर्भजतिर्थक्सुरयोर्नारिकवाय्वोचत्वारि त्रीणि शेषेषु विकले द्वे दृष्टी स्थावरे मिथ्येति शेषे तिलोटं ॥ १८
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॥ उत्तरपैक्रियकालवर्णतयः ॥ e)
॥ शब्दार्थः॥ पण-पांच
विगल-विकलेन्द्रियमा गम्भतिरि-गर्भजतिर्यच सुरेसु-देवना
दिट्ठी-दृष्टि नारय-नारक
थावर-स्थावर जीवां, वाऊसु-वायुकायमां
मिच्छ-मिथ्यादृष्टि चउर-चार
त्ति-इति-ए नामनी तिय-त्रण
सेस-बाकीना दंडके से-बाकीना दंडकोमां तिय-त्रण
| दिहि-दृष्टि गाथार्थ:-गर्भजतिर्यंचने अने देवाने पांच समु०, नारक था वायुकायने चार समु०, अने बाकीना दंडके त्रण समु० छ.॥ विकलेन्द्रिय ने बे दृष्टि छे. स्थावरने मिथ्यात्व ए नामनी दृष्टि डे, अने बाकीना सर्व दंडके त्रण दृष्टि छे.
विस्तरार्थ:-गर्भज तिर्यंच अने देवोमा ५समु० होय, का रण के आहा समु० फक्त कोइक चौद पूर्वधर मुनिने अने केवल समु०कोइक केवलिने होय माटे ए बे सिवायनी शेष पांच समुहोय तेमां पण दरेक गतिर्यचने प्रथमनी३ समु० होय, वै०लब्धिवाला कोइक गर्भज तिर्यचने वै० समु०, ने तै० लब्धिवाला कोइक ग० तिर्यंचने तै० समुद्धात.पण होय.
नारयवाउसु चउर-नारक अने वायुकायने प्रथमनी चार समु० होय त्यां नारकमां दरेक नारक जीवने अने वायुमा सव वायुजीवोथी संख्यातमा भाग जेटला असंख्य लब्धपर्याप्त बादर वायुजीवोने वै० समु. होय' पण ए जीवोने है० समु० न होय, ने ३ समु० तो सनाडीगत जीवने होबाथीरने पण
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होय छै- माटे ४ समु०.
तियसेसे-शेष दंडकमां ३ समुद्धात होय. अहिं २४ दंडकमां समुद्घातो कही पण तेमां ओघ ( सामान्य ) एकेन्द्रियमां चार कही ते मात्र पर्याप्त लब्धिवंत वायुकायनेज होय अने बाकीनाओने उपर विस्तरार्थमां बताव्या प्रमाणे समुद्घातो होय छे. ते जाणवी " तियसेसे" बाकीनाओने त्रण एम लख्यु छ, पण तेनो विचार उपर लख्या प्रमाणे जाणवो,
॥ इति समुद्घातहारम् ॥ विगल दुदिट्ठी-विकलेन्द्रिय जीवोने सम्यकत्व अने मिथ्यात्व एबे दृष्टि छे, त्यां पूर्वे भवमाथी उपशम सम्यकल वमतो जीव सास्वा० सम्य० कंइक बाकी रहेतां बीन्द्रियादि पणे उत्पन्न थाय तोअपर्याप्तपणामां प्रथम अन्तर्मु. मात्र सास्वादन सम्यक्त्व होय, ने त्यारवाद आखा भवपर्यन्त मिथ्यादृष्टिपणुंज होय छे. ___थावरमिच्छ-स्थावरना पांचे दंडक मिथ्यादृष्टि वाला छे. आविचार सिध्यान्तकारने मते जागवो कारणके तेओ ' उभयाभा. वो पुढवाइसु कहे छे अने कर्मग्रंथकारोए तो प्रथम मिथ्या अने द्वितीस सास्वादन गुणस्थान कहेला छे.
सेसतियदिहि-शेष १७ दंडक त्रणे दृष्टिवाला छे, तथा सम्मूमनु० मिथ्यादृ०छे अने सम्मू तियचो मिथ्याह० नथा अपर्या० पणामां मथम अन्तर्मु० मात्र( सास्वादनी होवायी )सम्यगदृष्टि छे,
॥ इतिष्टिद्वारम्॥
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॥ वनद्वारपर्णन ॥ (4) ____ अवतरण-आ गाथामां सर्वे दंडके दर्शनद्वार कहे छ.
..... ॥ मूळगाथा १९ मी ॥ । थावरबितिसु अचरकू, चउरिं दिसु तदुर्गसुए भणियं मणुआ चउदंसणिणो, सेसेसु तिगं तिगंभणियं ॥१९॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ स्थावरदित्रिष्वचक्षुश्चतुरिन्द्रियेषु तद्धिकं श्रुते भणितं । मनुजाश्चतुर्दशनिनः, शेषेषु त्रिकं त्रिकं भणितं ॥ १९॥
॥शब्दार्थः ॥ थावर-स्थावरजीवोने भणियं-कहेल छे, वि-दीन्द्रियने
मणुओ-मनुष्यो तिम्-त्रीन्द्रियने
चउदंसगिणो-४ दर्शनवाला अचरकू-अचक्षुदर्शन
सेसेसु-बाकीना दंडके चरिंदिसु-चतुरिन्द्रियने
तिग तिगं-त्रण त्रण तदुग-ते वे (-बे दर्शन) भणियं-कयुं छे, सुए-सिद्धान्तमां
गाथार्थः-स्थावर-द्वीन्द्रियने त्रीन्द्रियने अचक्षुदर्शन अने चतुरिन्द्रि यने बे दर्शन (चक्षु सहित) श्रुतने विषे कह्यां छ' मनुष्यो ४ दर्शनवाला छे, अने बाकीना दंडकोमा त्रण त्रण दर्शन कयां छे,
विस्तरार्थः-थावर वितिसु अचस्कू-स्थावरना ५ दंडक तथा द्वीन्द्रिय ने त्रीन्द्रिय ए ७ दंडकमां अचक्षुदर्शन छ, त्यां अचक्षुदर्शन स्पर्शेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-श्रोत्रंन्द्रियने मन संबंधी एम ५ प्रकारनु छ, तेमज इन्द्रिय अने मन सिवाय स्वाभाविक लब्धिरूप दर्शनगुणने पण अचक्षुदर्शन मानतां ६ प्रकारनु' पण अचक्षुदर्शन गणाय, मां पूर्वभवमांथी आवता
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स्थावरजीवोने दरेकने रस्तामां तथा उत्पत्तिस्थाने उत्पन्न थयाबाद इन्द्रियपर्याप्ति समाप्त न थाय त्यां सुधी लब्धिरूप अचक्षु दर्शन, ने इन्द्रिय पर्याप्तिए पर्याप्त थलाने स्पर्शनेन्द्रियरूप अचक्षुदर्शन छ, तथा दीन्द्रियने पण पूर्वभवमाथी आवतां मार्गमा अने उत्पत्तिस्थाने इन्द्रियपर्याप्ति समाप्त न थाय त्यां सुधी लब्धि रूप अचक्षुदर्शन, अने इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण थया वाद स्पर्शनेन्द्रिय तथा रसनेन्द्रिय संबंधी बे प्रकारचें अचक्षुदर्शन छे. तेम त्रीन्द्रिय जीवने द्वीन्द्रियवत् अचक्षुदर्शन जाणवू पण विशेष ए के इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर्या बाद स्पर्शन संबंधि-रसनासंबंधि-ने घ्राणेन्द्रिय संबंधि एम ३ प्रकारचें अचक्षुदर्शन जाणQ.
चउरिदिसु तदुगं-चतुरिन्द्रिय जीवने ते बे एटले चक्षु अने अचक्षु एम बे दर्शन जाणवां. त्यां चतुरिन्द्रियने श्रीन्द्रियवत् लब्धिरूप-विगेरे ४ प्रकारनां अचक्षुदर्शन छे, अने स्वयोग्य पर्या. प्तिओ पूर्ण थया बाद 'पर्याप्तावस्थामां चक्षुदर्शन कहेवू. ए भावार्थ सुए भणियं-सिद्धान्तमां को छे.
मणुआ चउदंसणिणो-मनुष्यो ४ दर्शनवाला छे, तेमां सर्व सामान्य मनुष्योने अचक्षुदर्शन तथा चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रियवत् जागवं, ने केटलाक ग० मनुष्यो के जेओने अवधिज्ञान अने केवलज्ञान होय तेवा मनुष्योने अवधिदर्शन तथा केवळदर्शन होइ शके पण सर्वने नहि. तेमज एक मनुष्य समकाळे १-२ ने ३ दर्शन लब्धिवाळो होय पण दर्शनोपयोग तो एक मनुष्यने समकाळे एक ज होय, त्यां १-२-३ दर्शन समकाळे लब्धिरूपे होय ते आ प्रमाणे
१ चक्षुदर्शन सर्व पर्याप्तिओना समाप्तिरूख कारण पर्याप्त वस्थामांज होय पण इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण कर्या बाद तुर्तहोय नहि.
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॥ इन्द्रिय-समुद्घातबारवर्णनम् ॥ (२७) - अपर्याप्त गर्भज मनुष्यने मात्र अचक्षु दर्शनज होय माटे. समकाळे १ प्रकारचं, अथवा श्री सर्वज्ञने फक्त केवलदर्शनज होय माटे १ प्रकारचें दर्शन छे, तथा अवधिज्ञान अने केवळज्ञानरहित एक ग० मनुष्यने समकाळे चक्षु ने अचक्षुदर्शन लब्धि होय माटे में प्रकारे, अने अवधिज्ञानी मनुष्यने त्रणे दर्शनेलब्धि होय, एप्र. माणे १-२-३ दर्शनलब्धि समकाळे होय पण ४ लब्धि न होय, तथा एक समये एकज दर्शनोपयोग तो दरेक जीव माने जाणवी
सेसेसु तिगं तिगं भणियं-शेष १५ दंडकमां ऋण त्रण दर्शन कह्यां छे, त्यां देवना १३ दंडक अने नारकनो १ दंडक ए १४ दंडकमां तो दरेक देवने अने दरेक नारकने अपर्याप्तपणामां अचक्षु अने अवधिदर्शन बे होय अने पर्याप्तपणामां दरेक देव नारकने त्रणे दर्शनलब्धि छे, परंतु अहिं एटलो अपवाद छे के पूर्व भवमांथी सम्मृच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय जो देवपणे उत्पन्न थयो होय तो ते देवने अपर्या० अवस्थामा अवधिज्ञान न होय माटे अवधिदर्शन पण न होय एम जाणवू..
तथा गर्भज तियेचमा अचक्षुदर्शन ने चक्षुदर्शन तो चतुरिन्द्रियवत् अने अवधिदर्शन ग० मनुष्यवत कोइकनेज जाणवू.०
तथा दंडकमां अनधिकारी सम्मू० तिर्यंच पंचेन्द्रियने अचक्षु तथा चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रियवत् जाणवू, अने सम्पू० मनुष्यने मात्र अचक्षुदर्शनज होय छे कारण के ए जीवो अपर्याप्त अवस्थामांज मरण पामे छे.. ॥ इति दर्शनद्वारम् ॥
अवतरण-आ गाथामां सर्व दंडके ज्ञानद्वार कहे छे.
- ॥ मूळ गाथा २०॥ अन्नाणनाणतियतिय, सुरतिरिनिरए थिरे अनाण दुर्ग।
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(४)
॥ देडकविस्तराधा ॥
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नाणन्नाण दु विगले, मणुए पण नाण तिअनोणा २०
॥ संस्कृतानुवादः ॥ अज्ञानज्ञानत्रिकं त्रिकं, सुरतिर्यग्नैरयिकेषु स्थिरेऽज्ञानदिक। ज्ञानाज्ञानदिकं विकले, मनुजे पंच ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि॥
॥शब्दार्थः ॥ अन्नाण-अज्ञान
दुगं-बे नाण-ज्ञान
नाण-ज्ञान तिय तिय-त्रण त्रण
अन्नाण-अज्ञान मुर-देवने तिरि-तियेचने
विगले-विकलेन्द्रियोने निरए-नारकने
मणुए-मनुष्यने थिरे-स्थावरने
पण नाण-५ज्ञान अनाण-अज्ञान
ति अनाणा-३ अज्ञान गाथार्थः-देव तिर्यंच अने नारकने ३ अज्ञान ने ३ ज्ञान छ, स्थावरोने वे अज्ञान छे, विकलेन्द्रियोने बे ज्ञान तथा बे अज्ञान है, अने मनुष्यने ५ ज्ञान अने ३ अज्ञान छे (अहिं ज्ञान तथा वज्ञान एवे द्वार कहेवायां).
विस्तरार्थः-अन्नाणनाणतियतिय सुरतिरिनिरएदेवना १३ दंडक, ग० तिर्यचनो १ दंडक, अने नारकनो १ कि ए १५ दंडकमां पण ज्ञान ३ अज्ञान छ, एम सामान्ययी कह्यु, से विशेषतः आ प्रमाणे
सर्व इन्द्र-दरेक विमानना अधिपति देवो-आयः सर्व लोकाक. ५ अनुत्तरना सर्व देवो ए सर्व सम्यग्दृष्टि होवाथी म०-अब कानवाला के. १५ परमापार्मिक भने । किल्कि
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॥ लेश्या-इन्द्रिय-समुद्घातद्वारवर्णनमः ॥ (८९) पिक देवोने पण सम्यक्त्व होवाथी ३ ज्ञान अने मिथ्यात्व होवाथी ३ अज्ञान होय छे, त्यां परमाधामीने पूर्वनी सोबतवाला देवना उपदेशादि प्रयत्नथी सम्यक्त्व थाय छे, परन्तु प्रथमथीज सम्यक्त्व होवानो संभव नथी, शेष भुवनपत्यादि देवो उत्पन्न थतां अने उत्पन्न थया बाद पण सम्यत्तव युक्त थवाथी ३ ज्ञानवाळा होय अने मिध्यादृष्टि भवनपत्यादि देवोने ३ अज्ञान होय. ए प्रमाणे देवोमा ३ ज्ञान अने ३ अज्ञान क्रया बाद हवे तिर्वचोमा कहे छे, :..
तिर्यंचमां पण ३ ज्ञानने ३ अज्ञान छे. अहिं तिर्यंच सामान्ये कहेल छे तो पण गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रियोज जाणवा, तेओने पर्याप्त अने अपर्याप्त अवस्थामां पण सम्यत्व होवाथी३ ज्ञान होयले अने मिथ्यादृष्टिओने : अज्ञान होय छे. अहिं तिर्यंचने अपर्याप्त अवस्थामां पण मनुष्यवत् परभवथी साथे लावेलु अवधि अने विभंगज्ञान होवु केटलाएक मानेछे. अने केटलाएक नहि मानता होवाथी बे मत छे. परन्तु विशेषत: तो तिर्यंचोने गुणप्रत्ययिक होवाथी व्रत तपश्चर्यादि गुणथी पर्याप्त अवस्थामा अवधि अने विभंग उत्पन्न . थाय छे. ए प्रमाणे गर्भज तिर्यचपंचेन्द्रियमा ३ ज्ञान अज्ञान कह्यां
नारकोमा सातमी पृथ्वीना अपर्याप्त नारक सिवायना १३ नारकोमा सम्यक्त्व होवाथी ३ ज्ञान अने मथ्यात्व होवाथी ३ अज्ञान छे, अने सातमी पृथ्वीना अपर्याप्त नारकने तो केवळ मिथ्यात्वज होवाथी ३ अज्ञान होय पण ज्ञान न होय. नारकोने भवप्रत्ययिक अवधि अने विभंग होवाथी त्यां उत्पन्न थती वखते ए ज्ञान पामे छे.
थिरे अनाणदुगं-स्थावरने २ अज्ञान ज छे, अहिं सिद्धान्तने मते अल्प पण सम्यक्त्वांश नही होबाथी २ अज्ञान जाणवां, अने कर्मग्रंथकारनेमते पण जेओ पूर्वभवमांथी उपशम सम्यक्त्ववमतां कि
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(९०) ॥ दंडकविस्तरार्थः 1. चित् सास्वादन सम्यक्त्व बाकी रह्ये काळ की एकेन्द्रिय थएला लब्धिपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय-अपकाय-अने वनस्पतिकायने अपर्याप्तावस्थामां अल्पकाळ पर्यन्त सास्वादन सम्यक्त्व होते छते पण सास्वादन भावमां कार्मग्रंथिकमते ज्ञान मानेलं नही होवाथी सर्व एकेन्द्रियोने अज्ञानज होय छे, ___ नाणनाणदुविगले-सिद्धान्तकारमते सास्वादन सम्यक्त्वे ज्ञान मान्यु छे अने केटलाक विकलेन्द्रियोने अपर्याप्तावस्थामा सास्वादन सम्यक्त्व मानेलं होवाथी सम्यक्त्ववाळाने २ ज्ञान अने बाकीनाओने २ अज्ञान होय छे अने कर्मग्रन्थकारने मते सास्वादन सम्यक्त्व छतां पण अज्ञानज कयुं छे.
मणुए पण नाण ति अनाणा-गर्भज मनुष्योमा ५ ज्ञान अने ३ अज्ञान छे ते आ प्रमाणे
एक जीवने समकाले १-२-3 ने ४ ज्ञानलब्धि होय छे, त्यां जे ग० मनुष्यने अवधि-मनः प०-ने केवळज्ञान न होय तेवा सम्यग्द्रष्टिओने मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान छे, तथा अवधिज्ञान अथवा मनःपर्यवज्ञान बेमांथी कोइपण एक ज्ञान उत्पन्न थयु होय तो एक जीवने म०-श्रु०-अव० अथवा म०--श्रु-मनः० एम बे रीते ३ ज्ञान होय, ने जेने अवधि अने मन:प० बन्ने उत्पन्न थयां होय तो एक ग० मनुष्यने समकाळे चार ज्ञान होय, ने सर्वे केवलि भगवानने एकज केवळज्ञान होय पण मत्यादि ४ ज्ञान न होय. तथा मिथ्यादृष्टि ग० मनुष्योने विभंगज्ञानरहितने बे अज्ञान अने विभंगज्ञान सहितने ३ अज्ञान, ए प्रमाणे एक ग. मनुने समकाले १ अथवा ३ अज्ञान छे, इति ज्ञानाज्ञानद्वारद्वयं,
अवतरण-आ गाथामां १५ योगनां नाम कहे छे.
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॥ इन्द्रिय- समुद्घातद्वारवर्णनम् ॥
॥ मूळ गाथा २१ मी. ॥ सच्चअरमीस सच्च मोस मणवय विउठिव आहारे उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा देसिया समए ॥ २१ ॥ संस्कृतानुवादः
सत्येतर मिश्रा सत्यमृषा मनो वचांसि वैक्रिय आहारक: औदारिको मिश्राः कार्मणः एते जोगा देशिताः समये ॥ २१ ॥ ॥ शब्दार्थः——
सच्च-सत्य.
इयर -असत्य.
मीस - मिश्र.
असच्चमोस -असत्यामृषा.
मण - मनयोग.
वय - वचनयोग.
as for- वैक्रिययोग.
उरलं -- औदारिकयोग. मीसा - एत्रणे मिश्रयोग. कम्मण-कार्मणयोग.
इय- ए सर्व. नोगा - योग.
देसिया - बताया है. समए - सिध्धान्तमां
(९१)
आहारे - आहारकयोग.
-
माथार्थः - सत्य-असत्य - मिश्र ने असत्यामृषा (एचार ) मनयोग तथा (ए चारे) वचनयोग ( तथा ) वैक्रियकाययोग? - आहारककाययोग २ - औदारिककाययोग ३ - ने ( ए त्रणे) मिश्र तथा कामकाययोग ७१ सर्वपली १५ योग सिद्धान्तमां कह्याछे. विस्वरार्थः - द्वारवर्णन प्रसंगे कह्यो छे त्यांथी जाणवो.
अवतरण -- आ गायामां सर्वदंडके योगद्वार कहे छे, ॥ मूळगाथा २२ मी; ॥ इक्कारस सुरनिरए, तिरिएसु तेर पनर मणुएसु । विगले चड पण वाए, जोगतियं (गं) थावरे होइ २२
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(९२)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
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॥ संस्कृतानुवादः॥ एकादश सुरनैरयिकयोस्तियक्षु त्रयोदश पंचदश मनुजेषु विकलेषु चत्वारि पंच वायुषु, योगत्रिकं स्थावरे भवति २२
॥ शब्दार्थः ॥ इक्कारस-अगीआर, विगले-विकलेन्द्रियोने, सुर-देवने
चउ-४ योगः निरए-नारकने, पण-५ योग, तिरिएम-तिर्यचोने वाए-वायुकायने, तेर-१३ योग,
जोग-योगः पनर-१५ योग,
तिगं-त्रण: मणुएसु-मनुष्योने;
थावरे-स्थावरने,
गाथार्थः-देव अने नारकने ११ योग, तिर्यंचने १३ योग मनुष्यने १५ योग, विकलेन्द्रियने ४ योग, वायुने ५ योग, अने स्थावरने ३ योग छे,
- विस्तरार्थः--इकारस सुरनिरए-देव अने नारकने ११ योग होय ते आ प्रमाणे
पूर्वभवमांथो आवता देवने मार्गमां तथा उत्पत्तिना प्रथम स. मये तैजस कार्मण योग, उत्पत्ति स्थान प्राप्त थयेला देवने द्वितीय समयथा अन्तर्मुः सुधी शरीरपर्याप्ति समाप्त थाय त्यां सुधी अथवा बीजे मते अपर्याप्त अवस्था सुधी तैजस कार्मण सहित वै० काययोग होवाथी वैक्रिय मिश्रकाय योग, अथवा उत्तरवैक्रिय रचनार देवने रचनाना प्रारंभमां अने अन्ते वै० मिश्रकाययोग, तदनंतर शरीरपर्याप्ति समाप्त थया बाद अथवा पर्याप्त थया बाद
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॥ दंडकेषु दर्शनद्वारवर्णनम् ॥ (९३ ) ४ पनना-४वचनना--ने १ वैक्रियकाययोग एम ९ योग होय ए प्रमाणे सामान्यपणे ११ योग जेम 'देवमां कह्या तेम नारकमां पण विचारवा.
तिरिएसु तेर--ग तिर्यंचने पूवोक्त ११ मां औदा०मिश्र अने औदा० मेळवतां १३ योग थाय ते आ प्रमाणे
मार्गमां आवताने अने उत्पत्तिना प्रथम समये तै०, का०, उत्पत्तिना द्वितीय समयथी शरीरापर्याप्तपणा सुधी अथवा अपर्या प्तपणा सुधी ओदा० मिश्र०, शरीर पर्याप्तने अथवा पर्याप्तने
औदार, पर्याप्तने ४ मनना ने ४ वचनना, कोइक वै० लब्धिवंत तिर्यंच वैक्रिय रचना करे तो रचनाना प्रारंभमां ने अन्ते वै० मिश्र, अने वै० शरीर संबंधि शरीर पर्याप्ति वा सर्वपर्याप्ति समाप्त थया बाद वैक्रिय काययोग ए प्रमाणे १३ योग होय अहीं वैक्रिय रचनाना प्रारंभमा जे वैक्रिय मिश्रयोग कह्यो छे. ते सिद्धान्तकारना मते जाणवू अने कर्मग्रन्थकारने मते प्रारंभमांतो औदा०मिश्र मान्योछे पण अन्ते एटलेके वैक्रियशरीर छोडती वखतेज वैक्रियमिश्रयोग मान्यो छे. तिथंचमां जे तिर्यंचो पोपट विगेरे स्पष्ट भाषा बोली शके तेश्रोने वचनना चारे योग छे, अने अस्पष्ट भाषा बोलनार तियचो पण मनसंज्ञा पूर्वक सत्यादिक सूचवता होवाथी अस्पष्ट भाषकोने पण ४ भाषायोग मानी शकाय, अन्यथा तो सम्मू० तिर्यचवत् १ व्यव० वचनयोग होय,
पन्नर मणुएसु-गर्भज मनुष्योने १५ योग होय. तेमां
१ नव ग्रैवेयक देवोने उत्तर वैक्रिय संबंधि वै मिश्र-ने वै० काययोग न होय, अने अनुत्तर वासी देवोने शब्दोच्चारना अभावे प्रवृत्ति रूप वचनयोग पण न होय.
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(९४)
॥ दंडकविसरार्थः॥
-
१३ योग तो ग. तियेचवत् 'जाणवा अने शेष वे योग आ प्र. माणे-आहारक शरीर रचनार चौद पूर्वधर मुनिने सिद्धान्तकारने मते रवनाना प्रारंभे अने अन्ते अने कर्मग्रन्थकारने मते प्रारंभमांतो औदारिक मिश्र मान्यो छे पण अन्ते एटले के आहारक श. रीर छोडती वखते आहा. मिश्र, अने आहारक शरीरपर्याप्ति पूर्णथया बाद अथवा ६ पर्याप्ति पूर्ण, थया बाद आहा० योग हो. य ए प्रमाणे अनेक जीव आश्रयि मनुष्यने १५ योग कहा,
विगले चउ-विकलेन्द्रियोने ४ योग होय ते आ प्रमाणेपूर्वभवथी ओवतां मार्गमां अने उत्पत्तिना प्रथम समये ते०का०, उत्पत्तिना बीजा समयथी शरीरापर्याप्तावस्था अथवा अपर्याप्ता. वस्था सुधी ओदा मिश्र, अने पर्याप्तावस्थामां आखो भवपर्य
स ओदा. अने व्यवहार वचनयोग ए वे योग छे ए प्रमाणे विकलेन्द्रियना ४ योग.
पण वाए--वायुकायने ५ योग छे तेमां तै० का०-औदा० -ने औदा०मिश्र ए ३ योग विकलेन्द्रियवत् जाणवा अने वै.. मिश्र तथा वै०काययोग गर्भनतिर्यंचवत जाणवा, वायुकायने व. धनयोग होय नहि.
जोगतिगं थावरे होइ-वायुकाय सिवायना ४ स्थावरीने तैका०-औदा. मिश्र-अने औदा० ए ३ योग छे ते विषलेन्द्रियवत् जाणवा. ____ अहिं तै० का० काययोग जो के पर्याप्त अवस्थामां पण होय छतां भवधारणीय शरीरनी मुख्यता होवाथी भवधारणीय शरीर
१ परन्तु विशेष ए छे के.-श्री सर्वज्ञने समुद्रात समये आठ समयमां वीजे छठे ने सातमे समये औदा. मिश्र तथा पीजे चोथे ने पांचमे समये काभण योग होय छे,
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। उत्तरवैक्रियकालवर्णनम् ॥ (९५) नोज योग गणाय. तथा एक जीवने समकाळे उपयोग पूर्वकनो १ ज योग छे, परन्तु उपयोग रहित चेष्टामात्रने योग गणीए तो वधुमां वधु : मननो १ वचननो अने औदा० साथे आहा० वा आहा०मिश्र वा वै० वा वै मिश्र ए बे काययोग अथवा मूळ वै० साथे वै० मिश्र एम पांच रीते बे काययोग मळी ४ योग होय कारणके आहा० अने वैक्रिय ए वे शरीर समकाळे एक जीवने न होय. __ तथा दंडकमां अनधिकारी समु० तिर्यंच पंचे० अने समु० म.. नुष्यने पूर्वोक्त पद्धतिए तै०का०-औ मिश्र अने औदा० एश्योग कायाना अने व्यवहारभाषारूप १ वचनयोग मळी ४ योग विकलेन्द्रियवत् होय छे.
॥ इति योगद्वारम् ॥
अवतरण-आ गाथामा १२ उपयोगनां नाम कहे छे.
॥ मूळ गाथा २३ मी.॥ ति अनाण नाण पण चउ, देसण बार जिअ लक्खणु
वयोगा . इय बारस उवओगा, भणिया तेलुक्क दंसीहि ॥२३॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ त्रोण्यज्ञानानि ज्ञानानि पंच, चत्वारि दर्शनानि द्वादश
जीवलक्षणोपयोगा। एते द्वादश उपयोगा भणितास्त्रि लोक दर्शिभिः ॥ २३ ॥
॥ शब्दार्थः ॥ ति-त्रण ..--- लख्खण-लक्षण रूप : अनाण--अज्ञान | उवओगा-उपयोग
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( ९६ )
नाण-- ज्ञान
प्रण-यांच
चउ-वार दंत्रण - दर्शन
॥ दंडकविस्तरार्थः ।
बार-बार ( १२ ) जिअ - जीवनां
तेलुक्कसीहिं--त्रण लोकने दे
खनार एका श्रीजिनेश्वरोए गाथार्थ:--- ३. अज्ञान -- ५ज्ञान -ने ४ दर्शन ए जीवनां लक्षण रूप १२ उपयोग के, ए १२ उपयोग ऋण लोकने ( केवलज्ञानदशेनवडे) देखनार एवा श्री जिनेश्वरोए कह्या छे,
विस्तरार्थः - सुगम है.
इय- ए ( पूर्वोक्त )
बारस-बार
उवओोगा - उपयोग
भणिया-क
१०/
अवतरण -- आ गाथामां सर्व दंडके उपयोगद्वार उतारे छे. ॥ मूळ गाथा २४ मा० ॥ उवओगा मणुएसु, बारस नव निरय तिरिय देवेसु विगलदुगे पण छक्कं चठरिंदीसु थावरे तियगं ॥२४॥
".
'
॥ संस्कृतानुवादः ॥ उपयोगा मनुजेषु द्वादश नव नैरयिकतिर्यग्देवेषु । विकलद्विके पंच, षट् चतुरिन्द्रियेषु स्थावरे त्रयः ॥ २४ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥
उवओगा - उपयोग
मणुपसु - मनुष्योने
बारस-बार
नव-नव उपयोग
निरय-नारकने
तिरिय - तिर्यचने - देवेसु - देवने तिअगं-त्रण उपयोग
विगलदुगे - वे विकलेन्द्रियने
पण - पांच उपयोग
छक्कं -छ उपयोग
चरिं दिसु - चतुरिन्द्रियाने थावरे - स्थावरने
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॥ उपयोगद्वारवर्णन ॥
(५७)
गाथाथः – मनुष्योने १२ उपयोग, नारक -तिर्यच--अने देवोने ९ उपयोग, बे विकलेन्द्रियने ( द्वीन्द्रिय- त्रीन्द्रियने ) ५ उपयोग, चउरिन्द्रियोने ६ उपयोग, अने स्थावरने ३ उपयोग छे.
उपयोग होय एम सामान्यथी कहीं पण विशेषतः आ प्रमाणे
विस्तरार्थ -- हवे आ गाथामां कया दंडके केटला उपयोग होय ते दर्शावतां वओगा मणुएसु बारस - मनुष्योने १२ उपयोग होय एम सामान्यथी कां अने विशेषतः आ प्रमाणे
अनेक मनुष्योनी अपेक्षाए अथवा एक मनुष्यने भिन्न काळनी अपेक्षाए मनुष्यने १२ उपयोग छे. अने एक मनुष्यने समकाळे तपासीए तो २-४-५-६-७ उपयोग लब्धिरूपे होय, त्यां समकाळे केवळ ज्ञान अने केवळदर्शन ए वे उपयोग श्री सर्वज्ञने लब्धिरूपे होय, तथा मति - श्रुतज्ञान अथवा मति-श्रुत अज्ञानसहित चक्षु अने अचक्षुदर्शन गणतां समकाळे ४ उपयोग होय, त था ३ अज्ञान अने चक्षु - अचक्षुदर्शन गणतां ५ ' उपयोग अथवा मति - श्रुत ने मनः पर्यवज्ञानयुक्त चक्षु अचक्षुदर्शन गणतां पण ५ उपयोग, तथा मति - श्रुत--अवधिज्ञानसहित चक्षु - अचक्षु अने अवधिदर्शन गणतां ६ उपयोग तथा एमां मनः पर्यवज्ञान मेळवतां उपयोग एक मनुष्यने लब्धिभावे होय पण उपयोगरूपे न होय, उपयोग रूपे तो एक जीवने १ समये १ ज उपयोग होइ शके.
नव निरय- तिरिय- देवेसु --नारको १ तिचर्येनो ? - अने दे -- बना १३ दंडक मळी १५ दंडकमां केवळज्ञान- केवळदर्शन-ने मनः पर्यवज्ञान शिवायना ९ उपयोग के कारणके मनः पर्यवज्ञान अप्रमत्तमुनिने ज उत्पन्न थाय छे, अने ममत्तादि मुनिने ज होयछे
१ विभंग ज्ञानीने अवधिदर्शन न माने तो ५ पयोग अने सिद्धान्तकारने मते विभंगज्ञानीने अवधिदर्शन मानेलु छे तो ते अपेक्षाए ६ उपयोग ३ अज्ञान ने ३ दर्शन सहित थाय
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( ९८ )
|| दंडकविस्तरार्थः ।
पुनः आ मनः पर्यव ज्ञान जो के अध्यवसायनी निर्मलताथी थाय छे. पण तथाप्रकारनी जगत्मर्यादाए ए अध्यवसायो द्रव्यभावमुनिलिंगधारीनेज आवी शकेळे माटे ए ज्ञान मुनिवेष सिवाय बीजा गृहस्थादि वेषमां होतुं नथी माटे तिर्यचादि १५ दंडकमाँ मुनिलिंगपूर्वक अध्य वसायी तथाप्रकारनी निर्मलताना अभावे अप्रमत्तादिपणानो अभाव होवाथी चारित्रप्रत्ययिक मनः पर्यवज्ञान होतुं नथी, अने भावचारित्रना अभावे केवळ ज्ञाननो अभाव होवाथी केवळ ज्ञान अने केवळदर्शन पण होय नहि माटे तिर्यचादि ९५ दंडकमां ए बेउपयोगनो पण अभाव छे तथा ए९ उपयोग पण अनेक तिर्यंचपंचेन्द्रिय अनेक देव अने अनेक नारकनी अपेक्षाए कला छे. पण दरेक तिर्यपंचेन्द्रियादिने लब्धिभावे समकाळे न होय माटे एकतिर्यंचने या १ देवने वा १ नारकने केटला उपयोग होय ते पूर्वोक्त पद्धतिए स्वयं विचारवा.
विगलदुगे पण - विकलद्विक एटले द्वीन्द्रियने तथा त्रीन्द्रियने मतिज्ञान मतिअज्ञान - श्रुतज्ञान - श्रुतअज्ञान - ने अचक्षुदर्शन ए ५ उपयोग के तेमां पूर्वभवे उपशम सम्यकत्व वमीने सास्वादन सम्यक्त्व किंचित् शेष रहेतां मरण पामी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियपणे उ स्पन्न थयेला जीवोने अपर्या० अवस्थामा अन्तर्मु० मात्र वे ज्ञान ने अचक्षु० द० सहित ३ उपयोग होय ने त्यारबाद ते तथा अन्य सर्व द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय जीवोने सदाकाळ वे अज्ञान ने अचक्षुदर्शनरूप ३ उपयोग होय .
O
छक्कं चउरिंदिसु - चतुरिन्द्रियजीवोने चक्षुदर्शनसहित ६ उपयोग होय शेष सर्वभावना द्वीन्द्रियवत जाणवी.
थावरे तिथगं - स्थावरना ५ दंडकमां मति अज्ञान श्रुतअज्ञान -ने अचक्षुदर्शन ए ३ उपयोग छे, कर्मग्रन्थकारमते पूर्वे ज्ञानाज्ञान
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॥ उपपात-च्यवनद्वारवर्णनम् ॥ द्वारमा वर्णव्या प्रमाणे जाणवू
तथा दंडकमां अनधिकारी एवा सम्मू० तिर्यचपंचे तथा सम्मू० मनुष्यने पण स्थावरवत् ३ उपयोग जाणवा,
॥ इति उपयोगदारं ॥
अवतरण-आगाथामां दरेक दंडके उपपातद्वार अने च्यवन द्वार ए बे द्वार कहे छे.
संखमसंखा समए, गब्भतिरिविगलनारयसुरा य । मणुया नियमा संखा, वणणंता थावर असंखा ॥२५॥
संस्कृतानुवादः संख्येया असंख्येयाः समये गर्भजतियंगविकलनारकसुराश्च मनुजा नियमात् संख्येया वना अनंताःस्थावरा असंख्येयाः२५
॥ शब्दार्थः॥ संख-संख्याता
मणुआ-मनुष्यो असंखा-असंख्याता
नियमा-निश्चयथी समए-एक समयमां संखा-संख्याता गन्मतिरि-गर्भजतियचो वण-वनस्पति विगल-विकलेन्द्रियो अणंता-अनंत नरय-नारको
थावर-स्थावरो सुरा-देवो
असंखा-असंख्याता य-अनो
गाथार्थः-गर्भजतियंच-विकलेन्द्रिय-नारक-अने देवो एक समयमां संख्यात अथवा असंख्यात ( उपजे अने चवे ) मनुष्यो निश्चय संख्याता ज, वनस्पतिकायजीवो अनंत, अने स्थावरो अ. संख्यात ( उपजे अने चवे छे ) ....
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(१००)
॥ दंडक विस्तरार्थः ।
विस्तरार्थः - आ गाथामां कया दंडकना जीवो एक समयमां एटले समकाळे केटला उपजे ! अने मरण पाये ? तेनी संख्यानो नियम जणाववा माटे कहे छे के संखमसंखा समए-गग्भतिरिविगलनारयसुरा य - गर्भजतिर्यंच - द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय- नारक ने देवना १३ ए प्रमाणे १८ दंडकना जीवो १ समयमां जघन्यथी संख्यात एटले कमीमां कमी. १-२-३ यावत् उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न थाय, अने उत्कृष्टथी असंख्याता उत्पन्न थाय, पण अनंत न उपजे, कारणके ए१८दंडकम दरेक दंडकनी अंदर त्रणे काळमां तपासीए तो सर्व जीवो पण ' असंख्यज छे. पुनः मरण पण एटला ज जीवो पाने ए प्रमाणे आगळ सर्वत्र उत्पत्तिवत् मरणसंख्या जाणवी,
"
तथा - मणुआ नियमा संखा - गर्भजमनुष्यो निश्वयथी. संख्यातज छे. अने ते पण बेनी संख्यानो ६ वार वर्ग करी ५ मा वर्ग साथे गुणाकार करे तेटली अथवा १ ने९६ बखत ठाण बमणा करे तेटला ग० मनुष्यो छे. ते सर्व संख्या ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ ए प्रमाणे २९ आंकडानी संख्याए गर्भजमनुष्य होय छे, अने मनुष्यना अशुचि १४ स्थानकोमां उपजता सम्मूच्छिम मनुष्यो असंख्याता ज होय छे तेथी बेउ (ग० सं०) मनुष्योनी सेख्या असंख्यात प्रमाण थाय, पण कोइक का - विशेषमां सम्मूच्छिमनो २४ मुहूर्तनो विरहकाल पडे छे, ते बखते पूर्वना उत्पन्न थयेला अन्तर्मुहूर्तनुं आयुष्य होवाथी अन्तर्मुहूतैं चवी जाय छे. ते वखते साधिक २३ मुहूर्त सुधी एकला गर्भज मनुष्यो ज होय छे तेनी संख्या उपर लख्या प्रमाणे जाणवी,
૧ 'वैमानिकदंडकमां सर्वार्थसिद्धमांज मात्र संख्यात देवो छे, शेष सर्व देवलोकमां असंख्य देवोते,
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॥ दंडकेषु दर्शनद्वारवर्णनम् ॥ (१०१) वणणंता-वनस्पति काय रूप १ दंडकमां एक समये अनंत जीवो उत्पन्न थाय छे, अने मरण पामे छे. त्यां प्रत्येक वनस्पतिजीवो असंख्यात ज होवाथी एक समयमा असंख्य उपजे अने असंख्य मरण पामे, अने सूक्ष्म साधारणवनस्पति तथा बादरसाधारणवनस्पति ए बन्नेमा प्रतिसमय एक निगोदगत जीवराशिथी असंख्यातमा भाग जेटला जीवो उत्पन्न थायछे अने मरण पामे छे, कारणके बन्ने वनस्पतिजीवो जगत्मां अनंत अनंत छे, ___थावर असंखा-वनस्पति सिवाय पृथ्वीकायादि ४ दंडकना जीवो एकसमयमा असंख्यात उपजे अने असंख्यात मरण पामे कारणके पृथ्वीकायादि चारे जीवो असंख्य असंख्य छे, पण भनन्त नथी वळी एमां कोइ पण समये संख्यात जीवो न उपजे. ___अवतरण-आ गाथाना पूर्वाधमां बाकी रहेला दंडके उपपात अने च्यवन द्वार अने उत्तरार्धथी दरेक दंडके आयुष्यद्वार कहे छे.
॥ मूळ गाथा २६ मी. ॥ असन्नि नर असंखा, जह उववाए तहेव चवणे वि। बावीस सग ति दस वोस--सहस्स उकिट पुढवाइ. २६
॥ संस्कृतानुवादः ॥ असंज्ञिनरा असंख्येया, यथोपपातस्तथैव च्यवनमपि । द्वाविंशत्सप्तत्रिदशवर्ष-सहस्रा उत्कृष्टं पृथ्व्यादयः॥२६॥
॥ शब्दार्थः ॥ असन्नि-असंज्ञि (सम्मूच्छिम)| उववाए- उपपातद्वारमा नर--मनुष्य
तहेव-तेवी रीतेज असंखा- असंख्यात
चवणेऽवि- व्यवनद्वारमा पण जह--जेबी रीते
बावीस-बावीस
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(१०२)
॥ दंडक विस्तरार्थः॥
सग-सात
सहस्स--हजार ति--त्रण
उकिट--उत्कृष्ट दस-दश
पुढवाइ--पृथ्वीकायादि वास--वर्ष
गाथार्थः-सम्मच्छिम मनुष्यो ( एक समयमां) असंख्यात ( उपजे ने चवे ) ए प्रमाणे जेवीरीते उपपातद्वारमा ( का ) तेवो रीते ज च्यवनद्वारमां पण (कहेवु). पृथ्वीकायादिजीवोनुं उत्कृष्ट आयुष्य २२००० वर्ष--७००० वर्ष--३००० वर्ष ने १०००० वर्ष ( अनुक्रमे जाणवू )
विस्तराथ:-असन्नी नर असंखा-असंज्ञिमनुष्यो एक समयमा असंख्यात उपजेछे. ने चवे छे, अहिं दंडकमां अनधिकृत एवा सम्मू० मनुष्योनी संख्या पण कही.
पुनः जे रीते उपपातद्वारमा छे. तेज रीते च्यवनद्वारमा पण छे. (के जे उपपोतनी साथे साथे च्यवन द्वार पण कहेवायु छे,) एवी रीते उपपात--च्यवनद्वार समय सख्याए कडं पण ते उपपातनो अभाव कया दंडकमां केटला काळ सुधी होय ते “ उपपातविरह" अने कया दंडकमां केटला काळ सुधी कोइपण जोव मरण ज न पामे ते "च्यवनविरह" पण प्रसंगथी कहेवाय छे
उत्पत्तिच्यवननो विरह काल. दंडकोमा जघ० साते नरकमां १ समय | १२ मुहूर्त • रत्नप्रभामां
२४ मुहूर्त शर्कराप्रभामां
७ दिवस
उत्कृष्ट
-
-
-
-
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।। दंडकविस्तरार्थ:
१५ मास १मास २ मास ४ मास ६ मास
वालुकामभामा पंकप्रभामां धूमप्रभामा तमःप्रभामां तमस्तमःप्रभामां चारेनिकायना देवोमां भवनपतिमा व्यन्तर ज्योतिषी सौधर्म
१२ मुहूर्त
२४ मुहूर्त
ईशान
सनत्कुमारमा माहेन्द्रमां ब्रह्मलोकमां लांतकमां शुक्रमां सहस्रारमा आनतमां प्राणतमां
९ दिवस-२० मुहू | २ दि०-१० मुहू० | २२॥ दि०
४५ दि० ८० दि०
१०० दि० संख्यातमास (१० मास) | " ( ११ मास) संख्यवर्ष (१००वर्षे
नी अंदर छे.)
" " " -
आरणमा अच्युतमा ।
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(१०४)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥..
-
प्रथम त्रण वैयके
बीजां त्रण ग्रैवेयके
त्रीजात्रैवेयके
सख्यात १०० वष (-१००० नी अंदर संख्यात १००० वर्ष (-१ लाखनी अंदर सख्यात लक्षवर्ष. (--१ कोडनी अंदर पल्योपमनोअसं ख्यातमो भाग पल्यो०नोसंख्यातमो
४ अनुत्तरे
सर्वार्थसिद्धे
भाग
| १२ मुहते
| २४ मुहूर्त | अन्तर्मु०
गर्भजतियेचमां गर्भज मनुष्यमां सम्मू०मनुष्य दीन्द्रियमां त्रीन्द्रियमां चतुरि०मां असन्निपंचे० पृथ्वीकाय अपकाय अग्निकाय
"
| अन्तम विरह नथी | विरह नथी
वायुकाय
वनस्प०
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॥ दंडकेषु उपपात-च्यवनहारवर्णनम् ॥ (१०५) ए प्रमाणे ज्यां जेटलो विरहकाळ कह्यो छे, त्यां तेटला काळ सुधी कोइपण जीव नवो उपजे नहिं, तेम कोइ मरे पण नहिं, ___तथा दंडकमां अनधिकृत सम्मू० मनुष्योनी एक समयमा उत्पत्ति च्यवन संख्या तो ग्रंथकारे गाथामांज कही अने सम्मू० पंचेन्द्रिय तिर्यंच एक समयमां निश्चय असंख्यात ज उपजे अने असंख्यात मरण पामे छे, पण संख्यात नहिं,
॥ इति उपपात-च्यवनद्वारयुमलम्, ॥
हवे दरेक दंडकमां आयुष्यद्वार कहेवाना प्रारंभमां बावीस सग ति दस वास सहस्सुकि पुढवाई-पृथ्विकायादि पांचर्नु अनुक्रमे २२००० वर्ष-७००० वर्ष-३००० वर्ष-२०००० वर्षे-उत्कृष्ट आयुष्य छ एम सामान्यतः का, अने विशेषतः आ प्रमाणे
पृथ्विकायमां हीरा-पन्ना विगेरे अतिनकर पृथ्विन २२००० वर्ष आयुष्य छे, कांकरा-हडताल-सुरमादिकनुं १८००० वर्ष आयुष्य मणसिल विगेरेनुं १६००० वर्ष, रेतिनुं १४००० वर्ष, गोपीचंदन कुमारमाटी विगेरे- १२००० वर्ष अने सुहाळी माटीनुं १००० वर्ष आयुष्य छ, शेष पृथ्वीओनुं आयुष्य श्री सर्वज्ञदृष्टिए जे होय ते जाणवू, ते उत्कृष्ट आयुष्य निर्व्याघात स्थानमा रहेला रनादिकनुं जाणवू, अन्यथा जघ० आयुष्य दरेकर्नु अन्तर्मु० छे.
तथा निर्व्याघात स्थळे रहेला घनोदध्यादि जळनु, अग्निनु, वायुनुं वनस्पतिनु उत्कृष्ट आयुष्य केटलाक जीवोनुज होइ शकेछे. पुनः वनस्पतिमां फक्त बादर प्रत्येक वनस्पन्नुंज उत्कृष्ट आयुष्य
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(१०६) ॥ दंडविस्तरार्थः ॥ छे, ने पृथ्व्यादिकमां पण दरेक बादरनुज उत्कृष्ट आयुष्य जाणवू, कारणके दरेक सूक्ष्मजीवन अन्तरर्मुथी अधिक आयुष्य होतु नथी ___अवतरण-आगाथामां पण ( अग्नि-मनुष्य-तिर्यच-वैमानिक-नारकने व्यन्तरर्नु ) आयुष्य कहेवाय छे.
मूळ गाथा २७ मी, तिदिणग्गि तिपल्लाऊ, मरतिरिसुरनरयसागरतित्तीसा वंतरपलं जोइस, वरिसलक्खाहियं पलियं ॥२७॥
॥ संस्कृतानुवादः॥ त्रिदिनमग्निस्विपल्यायुष्को नरतियश्चौ सुरनारको सागर.
त्रयस्त्रिंशत्को। व्यंतरस्य पल्यं, ज्योतिषो वर्षलक्षाधिकं पल्यं ॥२७॥
॥ शब्दार्थः ॥ ति-त्रण
सागर-सागरोपम दिण-दिवस
तित्तीसा-३३ (तेत्रीस) अग्गि-अग्निकायन वंतर-व्यन्तरतुं ति-त्रण
पल्लं-१ पल्योपम पल्ल-पल्योपम
जोइस-ज्योतिषीनं आउ-आयुष्य
वरिस-वर्ष नर-मनुष्योन
लक्ख-१ लाख तिरि-तिर्यचोर्नु
अहियं-अधिक मुर-देवोर्नु
पलियं-१ पल्योपम । निरय-नारकोर्नु । ___ गाथार्थ-अग्निकायचं ( उत्कृ० आयुष्य ) ३ दिवस, मनुज्य ने तिर्यंचोनुं आयुष्य ३ पल्योपम, देव ने नारक- ३३ सा
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॥ दंडकेषु आयुरिवर्णनम् ॥ (१०७) गरोपम, व्यन्तरनु १ पल्योपम, अने ज्योतिषीनुं ( उ० आयुष्य ) १ लाख वर्ष अधिक १ पल्योपम छे,
विस्तरार्थ:-तिदिणग्गि-अग्निकायना एक जीवन उ स्कृष्ट आयुष्य३दिवसतुं छे,अने तिपल्लाउ नरतिरि-मनुष्यनु आ युष्य ३ पल्योपमनु कह्यं ते देवकुरु उत्तरकुरुनां युगलिक मनुष्योनु सदाकाळ अने भरत-औरवत क्षेत्रमा अवसर्पिणी काळे १ ला आराना अने उत्सपिणि काळे छट्ठा आराना मनुष्योनुजाणवू,पुनः ए युगलिकोनु जघ० आयुष्य पल्योपमनो असंख्यातमो भाग न्यून ३ पल्योपम छे ( एम प्रश्नोत्तर सार्धशतकमां कहयुं छे.) क्रोडपू. वथी अधिक आयुष्यवाळा युगलिक मनुष्यो होय छे, अने तेओ असंख्य वर्षना आयुष्यवाळा गणाय छे,ने क्रोडपूर्व सुधीना आयुष्य वाळा ते संख्यात आयुष्यवाळा गणाय एवो शास्त्रव्यवहार छे. वळी अपर्याप्ता युग० मनुष्योनु जघ० आयुष्य अन्तर्मु० मात्रजछे. तथा जे प्रमाणे मनुष्यनु उत्कृष्ट आयुष्य युग० मनु० आश्रयि कह्यु ते प्रमाणे ग० तिर्यंचनु उ० आयुष्य पण युग० तियेच सिंहादिकनी अपेक्षाए जाणवु शेष सर्व वक्तव्य मनुष्यवत् विचारवं.
सुरनिरयसागरतित्तीसा-वैमानिक देव अने नारकर्नु आयुष्य उत्कृष्टथी ३३ सागरोपम छे, ते सातमी नरफना नारक अने अनुत्तर देवोने आश्रयि कहयु, अने शेष सौधर्मादिकल्पमा आगळ यन्त्रमा कहयु छे, ते प्रमाणे जाणवू.
वन्तरपल्लं-व्यन्तरनु १ पल्योपम आयुष्य छे, ते
जोइस परिसलक्खाहियं पलियं-ज्योतिषी देवनु ला. ख वर्ष अधिक १ पल्योपमः उत्कृष्ट आयुष्य छे,
अहिं देवोमां सर्व इन्द्रोन, अने देवीयोमां सर्व इन्द्राणीयोनु
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(१०८)
॥ दंडकविस्तरार्थः॥
अवश्य उत्कृष्ट आयुष्य होय अने प्रजा देव-देवीयोk (ज्योतिषी सिवाय ) सर्व प्रप्रकारे आयु. होय,
अवतरण-आ गाथामां पण ( भुवनपति-ने विकलेन्द्रियोमुं) आयुष्य कहेवाय छे,
मूळ गाथा २८ मी, असुराण अहिय अयरं, देसूणदुपल्लयं नव निकाए बारस वासुणपणदिण, छम्मासुक्किठ विगलाऊ ॥२८
॥ संस्कृतानुवादः॥ असुराणामधिकमतरं, देशोनद्विपल्यं नव निकायेषु । द्वादशवर्षोनपंचाशदिनषण्मासा उत्कृष्टं विकलायुः २८॥
॥ शब्दार्थः॥ असुराण-असुरकुमारोनु वास-वर्ष अहिय-कंइक अधिक अयरं-१ सागरोपम
पण-पचास । देसूण-कंडक न्यून.. दिण-दिवस दुपल्लं-चे पल्योपम
छम्मास-६ मास नव-नव (९)
उक्किट उत्कृष्ट निकाए-निकायमां (भेदमां) विगल-विकलेन्द्रियोनु बारस-बार
आऊ-आयुष्य गाथार्थ:-असुरकुमार (निकाय) नु कंडक अधिक १ सागरोपम ( उत्कृ० आयुष्य ) छे, अने ( शेष )नव निकायोनु
उण-१ न्यून। - ४९
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॥ दंडकेषु आयुरवर्णनम् ॥ (१०९) आयुः ) कंइक न्यून २ पल्योपम छे, तथा विकलेन्द्रियोनु उत्कृष्ट आयुष्य ( अनुक्रमे ) १२ वर्ष-४९-दिवस ने ६ मास (जेटल) छे,
विस्तरार्थः-मुगम छे, विशेष आगळ ओपेला यन्त्र जुओ.
अवतरण-आ गाथामां (पृथ्व्यादि १० पदोनुं तथा भवन० नारक ने व्यन्तरोनु जघ० आयुष्य कहेवाय छे.
मूळ गाथा २९ मी. पुढवाइ दस पयाणं, अन्तमुहुत्तं जहन्न आउठिई। दस सहस वरसठिइआ, भवणाहिव निरयवंतरिया २९
संस्कृतानुवादः पृथ्व्यादिदशपदाना- मन्तर्मुहूर्तजघन्यमायुःस्थितिः । दशसहस्रवर्षस्थितिका, भवनाधिपनरयिकव्यन्तराः॥२९॥
शब्दार्थः
पुढवाइ-पृथ्विकाय विगेरे दससहस-दश हजार दस-दश (१०)
परिस-वर्ष पयाणं-पदोनु-दंडकोनुं ठिइआ-आयुष्यवाळा अन्तमुहुत्त-अन्तर्मुहूर्त भवणाहिव-भवनपति जहन्न-जघन्य-अति अल्प निरय-नारक आउठिइ-आयुष्यनी स्थिति वन्तरिया-व्यन्तरो
गाथार्थ-पृथ्विकाय वगेरे १० दंडकोनी जघन्य आयुस्थिति अन्तर्मुहूर्त छे, अने भवनपति-नारक-ने व्यन्तरो ( जघ० थी) १०००० वर्षना आयुष्यवालाछे,
विस्तरार्थ:-सुगम छे, विशेष आगळ आपेलो यन्त्र जुओ.
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★ (११०)
देवोनुं
द० असुर० देवोनुं
द० " देवीनं
उ० " देवनुं
उ० " देवीनुं
द० ९ निकाय देवनुं
द० " देवीनुं
उ० " देवनुं
उ० " देवीनुं
व्यन्तर देवनुं
व्यन्तर देवीनुं
॥ दंडक विस्तरार्थः ॥
॥ देवोनुं आयुष्य |
जघ०
१० हजार वर्ष
""
"
56
ܪܕ
ܕܐ
","
99
34
"
"
चन्द्र इन्द्रनु
चन्द्रनी प्रजादेवनुं १० हजार वर्ष
सूर्य इन्द्रं
सूर्यना प्रजादेवोनुं १०००० वर्ष
उत्कृष्ट
१. सागरो०
३॥ पल्यो०
साधिक १ सागरो०
४ ॥ पल्यो ०
१॥ पल्यो०
० । पल्यो ०
देशून २ पल्यो ०
" २ पल्यो ०
१ पल्यो ०
● ॥ पल्यो ०
१ लाख वर्षाधिक
१ पल्योपम
""
१००० वर्षाधिक १ पल्यो ०
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॥ दंडकेषु आयुद्धवर्णनम् ॥
ग्रह अधिपतिनुं
ग्रह देवोनुं
नक्षत्र अधिपतिनुं
नक्षत्र देवोनुं
तारा अधिपतिनुं
तारा देवोनुं
सूर्यनी इन्द्राणीनुं
सूर्य 'देवीयोनुं
चन्द्रनी इन्द्राणीनुं
चन्द्र देवीयोनुं
ग्रहाधिपतिदेविनुं
ग्रह देवीयोनुं
नक्षत्राधिपति देवीं
नक्षत्र देवीयोनुं
ताराधिपति देवीनुं
१०००० वर्ष
१०००० वर्ष
१००००० वर्ष
१०००० वर्ष
१० हजार वर्ष
१०००० वर्ष
१०००० वर्ष
१ पल्यो ०
ܕܕ
●॥ पल्यो ०
० ! पल्यो ०
साधिक ●| पल्यो •
सूर्यथी अ
"
39
अहिं देवीयो ते प्रजा देवीयो जाणवी.
चन्द्रथी अर्ध
59
(१११)
ग्रहथी अर्ध
36
"
नक्षत्रथी अर्थ
"
ताराथी अर्ध
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(११२)
॥ दंडकविस्तरार्थः॥
पल्या० ।
तारा देवीयोनुं १०००० वर्ष अधो किलिविषिक १ पल्यो ३ पल्योपम
सौधर्म देवोनुं । १ पल्यो २ सागरो० ईशान देवोर्नु ।
| साधिक १ पल्यो० | साधिक २ सागरो० सौध० इन्द्रनुं
२ सागरो० ईशान इन्द्रनुं
| साधिक २ सागरो० सौध० परिगृहीता १ पल्यो ७ पल्यो०
देवीनुं
५० पल्यो
९ पल्यो०
५५ पल्यो०
सौधर्म अपरिगृहीता
देवीयोनुं ईशाने परिगृहीता | साधिक १ पल्यो
देवीयोन ईशाने अपरिगृहीता
देवीयोनुं मध्य किल्बिषिकोतुं| २ सागरो..
सनत् कुमारेन्द्र सनत कु० देवोनुं | २ सागरो०
३ सागरो० ७ सागरो०
१ अहिंथी आगळ देवीओनी उत्पत्ति नथी माटे आयुष्य पण का' नथी..
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॥ दंडकेषु उपपांत-च्यवनबारवर्णनम् ।।
माहेन्द्र देवोनुं साधिक २ साग० | साधिक ७ सागरो. ब्रह्म देवोर्नु ७ सागरो १० सागरो० ९ लोकांतिर्नु । उर्ध्व किल्विपिकोन लांतक देवोन | १० सागरो० शुक्र देवोर्नु
१४ सागरो० सहस्रार देवोनुं आनंत देवोनुं प्राणत देवोर्नु आरण देवोन अच्युत 'देवोनुं १ ली अवयकनु २ जी" ३ जी"
* विचार सप्ततिका ग्रन्थे. १-२ ए नव देवलोकना इन्द्रोर्नुमात्र उत्कृष्ट आयुष्यज छे. ३ अहिंथी आगळ सर्वत्र देवोज छे पण इन्द्रादि भेद नथी
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(११४)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
४ थी"
+
+
+
+
+
४ अनुत्तरे सर्वार्थसिद्धे
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॥ दंडकेषु आयुरिवर्णनम् ॥
(११५)
। नारकर्नु थायुष्य ॥
पृथ्विमा
१०००० वर्ष । १ सागरो०
रत्नप्रभामा शर्करामभामां
१ सागरो
वालुकामभामां पंकप्रभामां
धूमप्रभामां
तमःप्रभामां
तमस्तमःप्रभायां
ए प्रमाणे वैमानिक देवो उत्कृष्ट भायुष्य सर्वथी उपरना प्रत. रमां जाणवू अने नारकोनु उ. आयुष्य सर्वथी नीचना प्रतरमा जाण, भने ज्यां १ ज प्रतर होय त्यां केरलाएकनु जघ० ने केटलाएकनु उत्कृष्ट जाणवू, शेष प्रतरोमां केटलं आयुष्य छे तेनो विस्तार सिद्धान्तादिकथी जाणवो.
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(११६)
॥ दंडकविस्तराथः ॥
॥ मनुष्यनुं आयुष्य ॥
मनुष्योनुं
जघन्य
उत्कृष्ट
देवकरुमा पर्या नुं | देसूण ३ पल्यो० गं ३ पल्यो उत्तरकुरुमां " हरिवर्षमा " देसूण २ पल्यो० | संपूर्ण २ पल्यो. रम्यकमां " हिमवून " देसूण १ पल्यो० | संपूर्ण १ पल्यो हिरण्यवंत " अन्तद्वीपोमां" | देसूण पल्योपमासं- | पल्योपमासंख्येय
ख्येय भागः भागः महाविदेहमा " अन्तर्मु० पूर्वक्रोड वर्ष भरत-औरवत " | अन्तर्मुः ३ पल्योपम संमु० मनुष्य | लघु अन्तर्मु० अन्तमु अपर्याप्त युगलिकोन अन्तर्मु० लघु अन्तर्मुः
अहिं देसूण एटले पल्योपमनो असंख्यातमो भाग न्यून
जाणवो.
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ANNEL
जघ०
| अन्तर्मुः ।
। दंडकेषु आयुरिवर्णनम् ॥ ____ (११७)
॥ तिर्यंचोनु अयुष्य ॥ तिर्यंचनु । जघ० उत्कृ
उत्कृ सर्व सूक्ष्मस्थावरनु अन्तर्मु० बादर पृथ्विन
२२००० वर्ष बादर अप्नु
७००० वर्ष । बादर अग्निनु
३ दिवसर्नु बादर वायुनु
३००० वर्ष बादर साधारणव-०
अन्तर्मु० बादर प्रत्येकवन०
१०००० वर्ष द्वीन्द्रियर्नु
१२ वर्ष त्रीन्द्रिय
४९ दिवस चतुरिन्द्रियर्नु
६ मास गर्भज जळचरनुं
पूर्वक्रोड वर्ष गर्भन स्थलचरनुं
३ पंल्योपम
१ मनुष्यायुष्य आयन्त्रमा लख्या प्रमाणे युगलिक स्थलच. रोनां ३-२-१ पल्यो०-पल्योपमासंख्येय भाग आयुष्य उत्कृष्ट तथा जघन्यथी देसूण विचारवां,
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(११८)
॥ दंडकाविस्तरार्थः॥
पूर्वक्रोडवर्ष
गर्भज उरःपरिसपंर्नु गर्भज भुजपरिसर्प गर्भज खेचरनुं संमु० स्थलबान संमु जळचरनुं संमु० उरम्परिनु संमु० मुजपरिन्नु संमु० खेचरनुं अपर्या० तिर्यंच
पल्योनोअसंख्यातमो
, भाग, ८४००० वर्ष पूर्वक्रोड वर्ष ५३००० वर्ष ४२००० वर्ष ७३००० वर्ष
অনছুe
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॥ दंडकेषु आयुरिवर्णनम् ॥ (११९) अवतरण-आ गाथाना पूर्वाधमां बाकी रहेला दंडकोनुं जघ. आयुष्य अने उत्तरार्धथी दंडकोमा पर्याप्तिदार कहेवाय छे.
॥ मूळ गाथा ३० मी.॥ वेमाणिअजोइसिया, पल्लतयटुंसआउया हुंति । सुरनरतिरिनिरएसु, छपज्जत्ती थावरे चउगं ॥३०॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ वैमानिकज्योतिष्काः पल्यतदष्टांशायुष्का भवन्ति । सुरनरतियग्नरयिकेषु, षट् पर्याप्तयः स्थावरे चतुष्कं ॥३०॥
॥शब्दार्थः॥ वेमाणिय-वैमानिकदेवो नर-मनुष्योने जोइसिया-ज्योतिषीदेवो तिरि-तियचोने पल्ल-१ पल्योपम
निरएसु-नारकोने तयटुंस-तेनो( पल्यो नो) छ-६ (छ)
आठमो भाग) पज्जत्ती-पर्याप्तियो आउआ-आयुष्यवाळा थावरे-स्थावरोने हुँति-छे
चउगं- पर्याप्तियो सुर-देवोने
गाथार्थः-वैमानिक देवो ( जघ० थी) १ पल्योयमना, अने ज्योतिषी देवो ( जघ० थी) पल्योपमना आठमा भाग जे. टला आयुष्यवाळा छे, देव-मनुष्य-तिर्यच अने नारकोने ६ पर्याप्ति छे. अने स्थावरोने ४ पर्याप्तियो छे,
विस्तरार्थः-वेमाणिय जोइसिया पल्ल तयईसआउआ हुन्ति-वैमानिकनु जघ० आयुष्य १ पल्योपम ते सौधर्म देवलोकना देवोने आश्रयि जाणवु. अने ज्योतिषीनु आयुष्य पल्योपमनो आठमो भाग छे ते ताराना विमानवासी देवोनी अपे- .
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(१२०) ॥ दंडविस्तरार्थः ॥ क्षाए जाणवू, शेष देवोने एथी अधिक आयुष्य छे ते संबन्धि विशेषता यन्त्रमा कही छे,
सुरनरतिरिनिरएमु छ पजत्ति-देवोने, गर्भज मनुष्योने -गर्भज तिर्यंचोने अने नारकोने ए सर्व जो लब्धि पर्याप्ता होय तो तेओने ६ पर्याप्तियो होय छे, __थावरे चउर्ग----लब्धिपर्याप्त स्थावरोने आहाने--शरीर-इन्द्रिय अने उच्छवास ए ४ पर्याप्ति होय छे,
अवतरण-आ गाथामां विकलेन्द्रियोने पर्याप्ति तथा . सर्व दंडके कइ दिशिनो आहार होय ? ते कहेवाय छे,
॥मूळ गाथा ३१ मी.॥ विगले पंच पजत्ती, छदिसि आहार होइ सम्बेसि पणगाइपएभयणा, अह सन्नतियं भणिस्सामि ॥३१॥
संस्कृतानुवादः॥ विकले पंच पर्याप्तयः षदिगाहारो भवति सर्वेषां । पनकादिपदे भजना, अथ संज्ञात्रिकं भणिष्यामि ॥ ३१ ॥
॥शब्दार्थः॥
१ देवीने सिद्धान्तमा (-श्री भगवती जी मां) ५ पर्याप्तियो पण कही छे, परन्तु भाषा अने मन पर्याप्ति एक स. मयमां समकाळे उत्पन्न थवाथी ए बे पर्याप्तिने एक गणो छे. माटे वस्तुतः तो देवने ६ पर्याप्तिज कहेवाय, पुनः अनुत्तर वासी देवोने शब्दोच्चार करवा जरुर नहिं होवाथी शब्दो. च्चार करता नथी परन्तु शक्तिरूप वचन पर्याप्ति छे. _ तथा श्री विचारसप्ततिकामां देवने नारकने बन्नेने मूळ वैक्रिय तथा उत्तर वैक्रिय संबन्धि उपरोक्त रीते ५-५ प. र्याप्तियो कही छे.
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॥ दंडकेषु आहारहारम् ॥ (१२१) विगले-विकलेन्द्रियोने
[अथवा सू०वनस्पत्यादि] पंच-पांच
पदे-स्थानकमां पजत्ती-पर्याप्ति
भयणा-भजना-विकल्पे छद्दिसि-छ दिशाओथी
अह-हवे आहार-आहार
सन्न-संज्ञा होइ-छे
तियं-त्रण सव्वेसिं-सर्वदंडकोने
- भणिस्सामि-कहीश पणगाइ-पांच दिशि इत्यादिक
गाथार्थः-विकलेन्द्रियोने पांच पर्याप्ति छे. ६ दिशिथी आवेलो आहार सर्व जीवोने होय छे पण पांच दिशि इत्यादि (त्रण) पदमां (-५ दिशि-४ दिशि-ने ३ दिशि ए ३ पदमां) विकल्पे छे, बीजो अर्थ-सर्व जीवोने ६ दिशिथी आवेलो आहार होय छे, पण सू० वनस्पत्यादि ( पांच ) स्थानकोमा विकल्प छ, हवे त्रण संज्ञाओनुं द्वार कहीश.
विस्तरार्थः-विगले पंचपज्जत्ती विकलेन्द्रियोने आहार --शरीर--इन्द्रिय--उच्छ्वासने भाषा ए पांच पर्याप्ति छे, कारणके ए जीवोने जीहाइन्द्रिय अने मुख होवाथी अव्यक्त उच्चार करी शके छे, अने सम्मूच्छिम होवाथी मननो अभाव छ माटे मन:पर्याप्ति होय नहिं. ___ तथा दंडकमां अनधिकृत सम्म०मनुष्य आहार--शरीर-ने इ. न्द्रिय ए ३ पर्याप्तियो होय, अने सम्मूतिर्यच पंचे० ने विकले. वत् ५ पर्याप्तियो होय.
॥ इति पर्याप्तिद्वारम् ॥
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(१२२)
॥ दंडविस्तरार्थः ॥ हवे दिशि आहारद्वारमा प्रथम छदिसिआहार होइ सव्वेसिं-सर्व दंडकमां छए दिशिथी आवेलो ओज आहार अने लोम आहार होय, कारणके सर्वे दंडकना जीवो लोकनी अंदरना भा. गमा रह्या छे, परन्तु विशेष ए छे के पणगाइ पए-पनक एटले सूक्ष्म वनस्पति इत्यादि पांच पदमां (--मू० वन० बन्ने वायु--मू० अग्नि सू० अपने सू० पृथ्विने ) भयणा-भजना एटले विकल्पे, अर्थात् छ दिशिनोज आहार होय एवो नियम नहिं परन्तु ६-५-०४--ने ३ दिशिनो आहार पण होइ शके, कारणके, ए जी वो लोकनी अंदरना भागमा अने लोकने अन्ते-किनारे पण रहेला छे. त्यां ६-५-४--३ दिशिनो आहार केवी रीते होय ? ते दर्शावाय छे
लोकना सर्वथी नीचेना छेल्ला प्रतरोमां निष्कुट स्थाने खूणे रहेला एकेन्द्रिय जीव नीचे अलोकाकाशनो व्याघात होवाथी पुद्गल द्रव्यना अभावे अधो दिशिनो आहार न ग्रहण करे, अने दिशिमां पण अलोकाकाशना व्याघाते पुद्गलागमन नहिं होवाथी खूणानी बे पासनी बे दिशाओमांथी पण आहार न मेळवी शके माटे लोकनी नीचे छेडे रहेला जीवने ३ दिशानोज आहार मळी शके, अने एज प्रमाणे लोकना सर्वोपरि अन्ते निष्कुटस्थाने खुणामां वर्तनो एकेन्द्रिय जीव बे दिशीथी अने ऊर्ध्व दिशीधी आहार न मेळ्वी शके माटे बे रीते ३ दिशिनो आहार एकेन्द्रि योने ज होय.
लोकना सर्वथी नीचेना छेल्ला प्रतरोमां निष्कुट स्थाने दि
१ एकेन्द्रियोना २२ भेदमांथी वायु ने प्रत्ये० वन - सिचायना ४ बादरो नहिं होवाथो १२ भेद लोकने अन्ते रह्याछे एम श्री भगवती जीमां क छे.ह्य
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॥ दंडकेषु संज्ञाबारम् ॥ (१२३) शिमा रहेलो एकेन्द्रियजीव नीचे अने एक पासनी दिशामां अलो. काकाश होवाथी बे स्थानेथी आहार मेळवी शके नहिं माटे ४ दिशिनो आहार करे. ए प्रमाणे सर्वोपरितन प्रतरोमां उध्वदिशिथो अने एक पडखानी दिशिमांथी आहारना अभावे बे रीते ४ दिशिनो आहार होय. ___तथा सर्वथी नीचे एकादि प्रतर छोडीने उपरनां प्रतरोमां लोकने अन्ते दिशामा रहयो होय तो मात्र जमणी बाजूनी दिशाए अलोकनो व्याघात थवाथी पुद्गल ग्रहण नहिं करी शकवाथी पांच दिशिथी आवेलो आहार ग्रहण 'करे, __ अने लोकनी अंदरना भागमा रहेला एकेन्द्रियोने कोइपण दिशाए अलोकाकाशनो व्याघात नहिं नडवाथी छए 'दिशिमांथी आहार मेळवी शके छे. ॥ ॥ इति आहारद्वारम् ।। तथा सम्मू० ति ने सम्मू० मनुष्यने ६ दिशिनो आहार होय अने जीवोना निराहारीपणानो समय आहारद्वारना वर्णन प्रसंगे कह्यो छे,
॥ इति आहारबारम् ॥
१ सर्वाधस्तन वा सर्वोपरितन प्रतरोमां लोकनो तीजन्ति भाग वर्जीने अदरना भागमा रहेलो एके० जीव पण उध्व वा अधोमांथी कोइपण एक दिशिनो आहार न मेळवी शकेतो ए रीते पण पांचदिशीनो आहार संभवे छे परन्तु सिद्धान्तोमा उपर प्रमाणेनुं दृष्टांत बतावेलुं होवाथी अहीं ते प्रमाणे लख्युं छे, तत्त्व केवलिमहाराज जाणे.
२ अहीं विदिशाओ एक प्रदेश श्रेणिरूप होवाथी तेटला एक प्रदेशरूप भागमां आहार होइ शके नहिं कारण एक प्रदेश स्थित द्रव्य जीवगाह्य होय नही. आहारदेशमां आवेलो विदिशानो एक प्रदेश बहुतम देशवाली दिशाओमांज गणाइ जतो होवाथी १० दिशानो आहार कहेवाय नही.
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(१२४)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
अहसमितियं भणिस्सामि-हवे हुं हेतुबादोपदेशिकीदीर्घकालिकी-ने दृष्टिवादोपदेशिकी ए त्रण संज्ञाओमांनी कये दंडके केटली संज्ञाओ होय ते कहीश.
अवतरण-आ गाथामा दंडकाने विषे संज्ञाहार कहे छे.
॥मूळ गाथा ३२ मी.॥ चउविहसुरतिरिएसु, निरएसु य दोहकालिगी सन्ना विगले हेउवएसा, सन्नारहिया थिरा सव्वे ॥३२॥
॥संस्कृतानुवादः॥ चतुर्विधसुरतिया, नैरयिकेषु च दीर्घकालिकी संज्ञा । विकले हेतूपदेशिकी, संज्ञारहिताः स्थिराः सर्वे ॥३२॥
शब्दार्थः। चउविह-चार प्रकारना विगले-विकलेन्द्रियोमां सुर-देव
हेउवएसा-हेतुवादोपदेशिकी तिरिएसु-तियचोमां
संज्ञा निरएसु-नारकोमां
सन्नारहिया-संज्ञारहित य-अने
थिरा-स्थावरो दीदकालिगी-दीर्घकालिकी सम्वे-सर्वे
संज्ञा गाथार्थ:-चार प्रकारना देवो-तिर्यंचो-अने नारकोमां दीर्घकालिकी संज्ञा छे, विकलेन्द्रियोमा हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा छे. अने सर्वे स्थावरो संज्ञारहित छे,
विस्तरार्थः-सुगम छे.
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॥ दंडकेषु संज्ञाद्वारवम् ॥ (१२५) अवतरण-आ गाथाना पूर्वाधमां बाकी रहेला दंडकोए संज्ञा, अने उत्तरार्धमाथी आगति तथा गतिद्वार कहेवानां प्रारंभमां प्रथम देवमां आगतिद्वार कहे छे.
॥मूळ गाथा ३३ मी,॥ मणुआण दीहकालिय, दिट्ठीवाओवएसिया केवि । पज्जपणतिरिमणुअच्चिय,चउविह देवेसु गच्छति॥३३॥
॥संस्कृतानुवादः॥ मनुष्याणां दीर्घकालिकी, दृष्टिवादोपदेशिकाः केपि । पर्याप्तपंचेन्द्रियतिर्यग्मनुजा एव चतुर्विधदेवेषु गच्छंति ।३६
॥शब्दार्थः॥ मणुआण-मनुष्योने | पण-पंचेन्द्रिय दीहकालिय-दीर्घकालिकीसंज्ञा | तिरि-तिर्यंचने दिछीवाओवएसिया-दृष्टि- मणुअ-मनुष्य
वादोपदेशिकी संज्ञा चिअ-निश्चय के-केटलाएक
चउविह–चारप्रकारना वि- पण वळी
देवेसु-देवोमां पज्ज-पर्याप्त
गच्छति-जायछे गाथार्थ:-मनुष्योने दीर्घकालिकी संज्ञा छे. अने केटलाएक ( मनुष्यो )ने तो दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा पण होय छे, ॥
पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच, अने पर्या० मनुष्यो ज चारे प्रकारना देवोमां जाय छे,
१ चोथी गाथामां द्वारोनो जे अनुक्रम दर्शाव्यो छे, ते मां प्रथम गतिद्वार अने बीजं आगतिवार कयु छे, ने अहिं दडकोमा अवतारतां प्रथम आगतिद्वार अने त्यारबाद गतिद्वार कहेवाशे ए क्रमविपर्यय वक्तानी विवक्षाने आधारे होय छे.
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॥ दंडक विस्तरार्थः ॥
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विस्तरार्थः - मनुष्योने दीर्घका० संज्ञा कही पण ते सर्व गर्भज मनुष्यने छे, अने सम्मू० मनुष्यो तो मनरहित होवाथी हैतुवादो० संज्ञावाळाज छे, पुनः केटलाएक मनुष्योने जे दृष्टिवादो० संज्ञा कही ते संबन्धद्वार प्रसंगे कहयो छे, दृष्टिवादो० संज्ञा सम्यदृष्टिने ज होय छे,
(१२६)
तथा पर्या० पंचे० ति० अने मनुष्यज चारे प्रकारना देवोमां जाय. ए देवोमां आगति सामान्यथी कही, ने विशेषथी आ प्रमाणे -- १० भवन, १६ व्य०, १५ परमाधामी, १० जृंभक, ए ५१ देवोमा १०१ प्रकारना लब्धिपर्याप्त मनुष्यो तथा युगलिक चतुष्पद सहित ५ गर्भज तिर्यच लब्धिपर्याप्ता ने ५ सम्मू० तिर्थ - चलब्धिपर्याप्त एटला जीवो ( ए ५१ देवोमां ) आवी उपजे. अने १० ज्योतिषी तथा सौधर्मकल्पमां अन्तद्वीप विना ४५ क्षेत्रना मनुष्यो ने ५ गर्भ० तिर्यच ए ५० जीवो आवी उपजे छे, ईशानमां पूर्वोक्त ५० मांथी ५ हिमवन्त ने ५ हिरण्यवन्त क्षेत्रना युगलिक मनुष्य अने युगलिक तिर्येच सिवायना ४० जीवो आवी उपजे, अधो किल्बिषकमा १५ कर्मभूमिना संख्येय वर्षायुष्क ( वधुमां वधु पूर्वक्रोड वर्षायुष्क ) पर्या० ग० मनुष्यो, ५ देवकुरु ने ५ उत्तरकुरु क्षेत्रना युगलिक तिर्यंच अने युगलिक मनुष्यो तथा संख्येयायुष्क ५ गर्भज तिर्यंच लब्धिपर्याप्ता ए ३० जीवो आवी उपजे, तथा 3 जा थी ८ मा कल्पसुधीमां संख्येयायुष्क लब्धिपर्याप्त १५ कर्मभूमिना गर्भज मनुष्यो अने एज विशेषणवाळा ५ गर्भ० तिर्यचो मली २० जीवो उपजे ने आनतथी सर्वार्थ सुधीमांउक्त विशेषणवाळा १५ कर्मभूमि मनुष्यो आत्री उपजे.
अवतरण - आ गाथामां देवनुं गतिद्वार ( - देवो मरण पांमी ने क्या उपजे ? ते ) कहे छे,
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॥ दंडकेषु गत्यागतिद्वारम् ॥
(१२७)
॥ मूळ गाथा ३४ ॥ संखाउपज्जपणिंदि, तिरियनरेसु तहेव पजत्ते । भूदगपत्तेयवणे, एएसु च्चिय सुरागमणं ॥ ३४ ।।
संस्कृतानुवादः॥ संख्ययेयायुष्कपर्याप्तपंचेन्द्रिय तिर्यग्नरेषु तथैव पर्याप्तेषु। भूदकप्रत्येकवनेषु, एतेष्वेव मुरागमनं ॥ ३४ ॥
शब्दार्थः॥ संखाउ-संख्यातवर्षना आयु- | भू-पृथ्वीकाय ब्यवाळा
दग-अपकाय पज्ज-पर्याप्त
पत्तेयवणे-प्रत्येक वन० कायमां पणिदि-पंचेन्द्रिय
एएम-ए ५ दंडकोमा तिरिय-तिर्यंचमां
चिय-निश्चय नरेसु-मनुष्यमा
सुर-देवन तहेव-तेमज-तथा
आगमणं-आवq (-गति) पजते-पर्याप्तमां
गाथार्थः-संख्यातवर्षना आयुष्यवान पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचपां अने ( संख्या० पर्या० पंचे०) मनुष्यमां, तेमज पर्याप्त पृथ्वीकाय--अपकाय--अने प्रत्येकवनस्प० कायमा ए ५ दंडकोमा ज देवोर्नु आवq ( उपजq ) थाय छे, ' विस्तरार्थ:-संख्यात आयुष्यवाळा एटले कर्मभूमिमां उत्पन थयेला, वधुमां वधु क्रोडपूर्व वर्षना आयुष्यवाळा लब्धिपर्याप्त पंचेन्द्रिय गर्भज तिर्यचोमां, कर्मभूमीमां उत्पन्न थयेला वधुमां वधु क्रोडपूर्व वर्षना आयुष्यवाला लब्धिपर्याप्त गर्भज मनुष्योमां, स
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(१२८)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
वत्र उत्पन्न थती लब्धिपर्या० बादर पृथ्वी, लब्धिपर्या० बा० अप, अने ल० पर्या० बा० प्रत्येक वनस्पतिमां ज देवोनुं आगमन( गति. -उत्पत्ति) छे. कारणके देवो मरण पामीने अपर्याप्ता थता नथी, तेमज देवोच्यवीवमां अने नारकमां पण न जाय अने विकलेन्द्रियमां तथा अग्नि वायुमा उत्पन्न थतां नथी, ए प्रमाणे देव ( ना १३) दंडक नी गति सामान्यथी कही, अने विशेष एम छे के भुवनपति--व्यन्तर--ज्योतिषि-सौधर्म- ने इंशान एटला देवलोकना देवोज पूर्वोक ५ स्थाने जाय छ, सनत् कुमारथी सहस्रार सुधीना देवो संख्येयायुष्क ल० पर्या० ग० तिर्यंच अने एज विशेषणवा. ला ग० मनुष्योमा जाय छे आनतादिथी सर्वार्थ सुधीना देवो फक्त कर्मभूमिमां संख्यात आयुष्यवाला पर्याप्त गर्भज मनुष्यो. मांज जाय छे, पुनः प्रत्येक वनस्पतिमा जे देवो उत्पन्न थाय छे, ते पण अमुकज उत्पन्न थाय छे. ते संबन्धि विशेष विगत श्री भगवतीजीमां अथवा द्रव्य लोकप्रकाशमां छे त्यांची जाणवी.
पुनः केटलाएक देवोने जेओ प्रथमथी जाणे छे के मारे अमुक वृक्षमा उत्पत्न थवानुं छे तो ते देवो मान दशाना बशथी ते . क्षनो दैविक चमत्कार दर्शावी लोकोमां पूजनीक करे छे, ने से क्षनो महिमा वधारे छे,
अवतरण-आ गाथामां नारक जीवोनी आगति तथा गति (-कया कया जीवो नारकगतिमां आवे. अने नारको मरण पामीने कइ कइ गतिमां जाय ते ) कहे छे.
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॥ दंडकेषु गत्यागतिद्वारम् ||
॥ मूळ गाथा ३० मी० ॥ पजत्तसंखगब्भय, तिरियनरा निरयसत्तगे जन्ति । निरयउवहा एएसु, उववजंति न सेसेसु ॥ ३५ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ पर्याप्त संख्येयामुर्गर्भजतिर्यग्नरा नरकसप्तके यान्ति । नरकोत्ता एतेषूपपद्यन्ते न शेषेषु ॥ ३५ ॥
॥ शब्दार्थः ॥
पज्जत्त - पर्याप्त
संख - संख्यात आयुष्यवाळा
गव्भय – गर्भज
तिरिय - तिर्यच
नरा - मनुष्यो
निरय- नरकमां
सत्तगे - सात (माँ)
जन्ति - जाय छे, निरयनरकमांथी
. (१२९)
उवट्टा - नीकळेला जीवो
एएस - ए बन्नेमा उववज्जन्ति उपजे छे
न - नथी उपजता सेसेसु - बाकीना दंडकोमां
गाथार्थः - पर्याप्त संख्यात आयुष्यवाळा गर्भज तिर्यंच अने पर्या० संख्यायुष्यवाळा गर्भज मनुष्यो साते नरकमां जाय छे, ए नारकनी आगति कही, अने नरकमांथी निकळेला (अर्थात् ) नारको ए बेमां ज उपजे के पण बाकीनन (२२) दंडकोमां उपजता नथी ए नारकनी गति कही,
विस्तरार्थः --- पर्याप्त संख्यात आयुष्यवाळा गर्भज तिर्यचो अने एज विशेषणवाळा ग० मनुष्यो सात नरकमां जाय ए नारकमां आगति सामान्यथी कही, अने विशेषथी आ प्रमाणे
रत्नप्रभामा - १५ कर्म० मनु० -५ ग० ति० -५ समु०
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(१३०)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
ति०-ए २५ लब्धिपर्याप्ता आवे, युगलिक मनुष्य वा तिर्यंचोनी अवश्य देवगति होवाथी तेओ नरकमां उपजता नथी.
शर्कराप्रभामां-१५ कर्म० मनु०-ने ५ ग० ति०-२०
वालुकाप्रभामां-१५ कर्म० मनु०, ने भुजपरि० विना ४ गर्भज तिर्यंच ए १९ लब्धिपर्या० जीवो आवे.
पंकप्रभामां-१५ कर्म० मनु०, ग० जल०-T० थल० ने ग० उर० ए १८ ल० पर्याः जीवो आवे,
धूमप्रभामां-१५ कर्म० मनु० ग० जल०-ग० थल०-१७ तमप्रभामां-१५ कर्म० मनु०-ग० जल० -१६ तमतमप्रभामां-स्त्रीविना १५ कर्म । मनु०-गजल०-१६
ए प्रमाणे नारकजीवोमां आगति कहीने हवे नारक जीवो क्या उत्पन्न थाय ? ते नारकनी गति कहे छे,
रत्नप्रभादि ६ नी--लब्धिपर्याप्त संख्येयायुष्क गर्भ० मनुष्यो १५ कर्मभूमिना, अने एज विशेषणवाळा गर्भ० तिर्यच पं चेन्द्रिय पांच ए २० भेदमां जाय, नारको मरण पामीने लब्धि अपर्या० न थाय. ॥ इति नारकगत्यागतिः ॥
___ अवतरण-आ गाथामां पृथ्वि-अप्-अने वनस्पतिनी (मां कइ कइ गतिना जीव आवे ते ) आगति कहे छे.
॥मूळ गाथा ३१ मी.॥ पुढवी थाउवणस्सइ-मज्झे नारयविवजिया जीवा । सव्वे उववजंति, नियनियकम्माणुमाणेणं ॥ ३६ ॥
संस्कृतानुवादः।। पृथ्व्यवनस्पतिमध्ये नारकविवर्जिता जीवाः । सर्वे उपपद्यन्ते निजनिजकर्मानुमानेन ॥ ३६ ॥
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॥ दंडकेषु गत्यागतिद्वारम् ॥
-
॥शब्दार्थः॥
पुढवी-पृथ्विकाय
जीवा-जोवो आऊ-अपकाय
सव्वे-सर्वे जीवो वणस्सइ-वनस्पतिकाय उववजन्ति-उत्पन्न थाय छे, मज्झे-मध्ये-मां. | नियनिय-पोतपोताना नारय-नारक
कम्माणुमाणेणं-कमने अनुसारे विवज्जिया-वर्जीने-सिवायना |
गाथार्थः -पृथ्विकाय-अपकाय-ने वनस्पति मध्ये नारक सिवायना सर्वे जीवो पोत पोताना कर्मने अनुसारे उत्पन्न थाय , छे, (ए पृथ्व्यादि ३ मां आगति कही.)
विस्तरार्थः-आ गाथामां पृथ्व्योदि ३ दंडकमां आगति सामान्यथी कहीने विशेषथी आ प्रमाणे--
प० पृथ्वि-अप-ने प्र० वनस्पतिमा-४८ तिर्यच-१. ०१ सम्मू० मनुष्य कर्मभूमिना पर्या० अपर्या. मली ३० मनुष्य१५ परमाधामी-१० भवनपति-१६ व्यन्तर-१० मुंभक-१० ज्योतिषी-सौधर्म-ईशान-अधो किल्बिषिक ए प्रमाणे २४३ जीवो ए ३ लब्धिपर्याप्तमां भावी उपजे.
अपर्या० पृ० अप-प्र० वन तथा सर्व साधा. वनस्पतिमों ४८ तिर्यंचो तथा ३० कर्म० मनुष्यो,१०१सम्मू० मनुष्यो आवी उपजे छे, ए प्रमाणे ए ३ दंडकमां पूर्वोक्त दंडकना जीवभेदो पोत पोताना कमने अनुसारे (-कर्मना वशथी ) उत्पन्न थाय छे, ए चोथा चरणमां जीवोने परभव जवामां ईश्वरप्रेरणाना लौकिक मतनुं निवारण कथु जाणवू. .
१ कर्मने अनुसारे कहेवाथी जे केटलाक घादीभो ईश्वरेच्छा अथवा ईश्वरप्रेरणाथी गत्यागति करे छे तेम कहे छे तेनु खंडन कर्यु कारण इच्छा अथवा प्रेरणा. सकर्मजीवनुं कार्य छे, अने कर्म रहित थया विना ईश्वर कही शकाय नही
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॥ दंडविस्तरार्थः॥ - अवतरण-आ गाथाना पूर्वाधमां पृथ्वी-अप-ने वनस्पति जीवो मरण पामीने का गतिमां उपजे ? (ए प्रणनी गति ) ते अने उत्तरार्धमां तेउकाय-वायुकायमां कया जीवो आये ? (ए बेनी आगति ) कहेवाय छे,
. मूळ गाथा ३७ मी॥ पुढवाइदसपएसु, पुढवीआऊवणस्सई जन्ति । पुढवाइदसपएहि य, तेऊवाऊसु उववाओ ॥ ३७॥
॥ संस्कृतानुवादः॥ पृथ्व्यादिदशपदेषु पृथ्व्यापो वनस्पतयो यान्ति पृथ्व्यादिदशपदेभ्यश्च तेजोवाय्वोरुपपातः ॥ ३७॥
॥शब्दार्थः॥ पुढवाइ-पृथ्विकाय विगेरे पुढवाइ-पृथ्विकाय विगेरे दस-दश
दस-दश पएसु-पदोमां-स्थानमा परहि-पदमांथी-स्थानमाथी पुढवी-पृथ्विकाय य--वळी आऊ- अपकाय
तेउ--अग्निकाय वणस्सइ--वनस्पतिकाय वाऊस--वायुकायमांमन्ति--जाय छे. | उववाओ--उपजवं-उत्पत्ति-आगति
गाथार्थ:-पृथ्विकाय विगेरे १० स्थानमां पृथ्वि-अपअने वनस्पतिकाय जाय छे, अग्निकाय अने वायुकायमां पृथ्विकाय विगेरे १० स्थानकथी ( जीवोर्नु ) उपजq ( आवq ) थाय छे
विस्तरार्थः-पृथ्वि-अप-ने वनस्पतिजीवो पृथ्वि-अप्अग्नि-वायु-वनस्पति-दीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-ग० तिये
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॥ दंडकेषु गत्यागतिबारम् ॥ (१३३) च-ने ग० मनुष्य ए १० स्थानमां जाय छे, परन्तु विशेष ए छ के-ए ३ जीवो कर्मभूमिना ३० मनुष्यभेदोमां १०१ सम्मृ० मनु०मां, ने ४८ तिर्यंचमा मली १७९ जीवभेदमा उत्पन्न थाय छे, पण युगलिकोमा जता नथी. पृथ्व्यादि ३ नी गति कही,
हवे अग्नि अने वायुमा आगति कहे छे के पृथ्व्यादि १० पदमांथी नीकळीने जीवो अग्नि अने वायुमां उपजे छे, त्यां १०१ सम्म० मनुष्य, ३० कर्म० मनुष्य, ने ४८ तियेच ए १७९ जीव भेद अग्नि-- वायुमा आवी शके छे, पण युगलिको आवता नथी,
॥ इति अग्निवायुमा आगति ॥
अवतरण-आ गाथाना पूर्वार्धमां अग्नि अने वायु मरण पामीने क्यों जाय ? (-अग्नि-वायुनी गति ते ), अने उत्तरार्धमां विकलेन्द्रियोनी आगति तथा गति कहेवाय छे.
• ॥मूळ गाथा ३८ मी, तेऊवाऊगमणं, पुढवीपमुहंमि होइ पयनवगे । पुढवाइठाणदसगा, विगलाइतियं तहिं जन्ति ॥३८॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ तेजोवायुगमनं, पृथ्वीप्रमुखे भवति पदनवके । . पृथ्व्यादिस्थानदशकाद् विकलत्रिकं तत्र यान्ति ॥ ३८ ।
॥ शब्दार्थः॥ तेऊ--अग्निकाय
| पुढवी-पृथ्विकाय वाऊ-वायुकायर्नु
पमुइम्मि-वगेरेमां गमण- गति-जवू
| होइ--छे, .
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(१३४)
॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
:पयनवगे-नव स्थाने विगलाइ-विकलादि पुढवाइ-पृथ्विकाप विगेरे तियं-त्रिक ठाण--स्थान-पद
तहि-त्यां (पृथ्व्यादि१०स्थानमां) दसगा--दशमांथी | जंति-जाय छे,
गाथार्थ-अग्निकाय अने वायुकायनी गति पृथ्विकाय विगेरे नव स्थानकमां होय छ, विकलेन्द्रियो पृथ्विकाय विगेरे १० स्थानमाथी आवे छे, अने (पुनः ) त्यांज (पृथ्व्यादि १० स्थानमां ) जाय छे.
विस्तरार्थ:-अग्नि ने वायुनी गति पृथ्व्यादि ९ पदमा (--४८ तिर्यंचमां )छे, ____ तथा विकलेन्द्रियमा आगति-पृथ्व्यादि १० पदथी कही ते पृथ्व्यादि ३ दंडकवत् १७९ जीवभेदथी जाणवी. तथा वि. कले० नी गति पण तेवीज रीते १७९ जीवभेदोमां जाणवी.
गाथामा पुढवाइठाणदसगा विगलाइ तियं एटलां पदी विकलेन्द्रियोनी आगति कहे छ, अने विगलाइतियं तहिं जंति ए पदथी विकले. नी गति कही छे. त्यां विगलाइतियं ए पद डमरुकमणि न्यायथी बन्ने बाजु लागी शके छे.
अवतरण-आ गाथाना पूर्वाधमां गर्भनतिर्यंचोनी आगति तथा गति, अने उत्तरार्धमां गर्भज मनुष्योनी आगति तथा गति कहे छे,
॥मूळ गाथा ३९ मी.॥ गमणागमणं गब्भय--तिरियाणं सयलजीवठाणेसु । सव्वत्थ जन्ति मणुआ, तेऊवाऊहि नो जन्ति ॥३९॥
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॥ दंडकेषु गत्यागतिद्वारम् ॥ (१३५)
॥संस्कृतानुवादः॥ गमनागमनं गर्भजतिरश्चां सकलजीवस्थानेषु सर्वत्र यान्ति मनुजास्तेजोवायुभ्यां नो यान्ति ॥ ३९ ॥
॥शब्दार्थः॥ गमण-गति- जQ
सम्बत्य-सर्व स्थानके आगमण-आवq
जति-जाय छे, गम्भय गर्भज
मणु-मनुष्यो तिरियाण-तिर्यंचोन तेउ-अग्निकायमांथी सयल-सकल-सर्व
वाऊहिं-वायुकायमांधी जीवठाणेसु-जीवस्थानोमां
नो-नथी (जीवभेदोमां) । जंति-जाय छे
गाथार्थ:-गर्भन तिर्यंचोनी गति आगति सर्व जीवभेदोमा होय छे, (ग. तिर्यचो सर्व जीवभेदोमां जाय छे ), मनुष्यो सर्वे जोवभेदोमां जाय छे, ( अने सर्व जीवभेदोमांथी आवे छे परन्तु ) अग्नि अने वायुपांथी जता ( आवना ) नथी.
विस्तरार्थः-गभंज तिर्यंचोनी गति ने आगति सर्व जीव स्थानोमांछे एटले गर्भज तिर्यंचो सर्व दंडकमां उपजे छे, अने ग० ति० मां पण सर्व दंडकना जीव आवी उपजे छे. तोपण विशेष जीवभेदने आश्रयि ग० तियेचनी गति आ प्रमाणे
पर्या० ग० जलचर-आनतादि १८देवलोक सिवायना५२७ जीवभेदमां उत्पन्न थाय छे.
पर्या० ग० उरपरिसर्प-अर्चना 'ट देवलोक तथा ६-७ पृ. थ्वीना नारक सिवाय ५२३ भेदमां.
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(१३६) ॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
गर्भ० पर्या० चतुष्पद-उर्ध्व १८ देव०, तथा ५-६-७ पृ. थ्वि सिवाय ५२१ भेदमा
ग० पर्या० खेचर-ऊर्ध्व १८ देव०- तथा ४.५-६-७ पृथ्वि सिवाय ५१९ भेदमा
ग० पर्या० भुजपरि०-ऊर्ध्व १८ देव०-तथा ३-४-५-६ -७ पृथ्वि सिवाय ५१७ भेदमां, ___ सम्मू० पर्या० तियेच पंचे०५-ज्यो० वै० सिवाय ५१ देवमां, ५६ अन्तीपमा, रत्नप्र० मां, ३० कर्मभूमि मनु० मां, १०१ सम्मू० मनु० मां ने ४८ तिर्यचमा पर्याप्त पणे ने अपर्याप्तपणे पण उपजे
तथा ए १० अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रियो ३० कर्म० मनुष्योमां १०१ सम्मू० मनु०मां, ने ४८ तिर्यचमां उपजे ए प्रमाणे २० तियेच पंचेन्द्रियोनी गति कहीने हवे २० ति० पंचे० नी आगति कहेवाय छे,
५ पर्या० ग० तिर्यंचमां-१०१ सम्मू० मनु०, ३० क. में० मनु०, ४८ ति, १५ परमा०, १० भुव०, १६ व्य०, १०@०, १० ज्योतिषी, ३ किल्बि०, ९ लोकां, ८ कल्प, ने ७ नारकना जीवो आवी उपजे,
५ अप० ग० तिर्यंचमां-१०१ सम्मू० मनु०, ३० कर्म० मनु०, ४८ ति०, एटला जीवो आवी उपजे.
१० सम्मू० तिर्थच पंचे० मां-१०१ सम्मू० मनु०, ३० कर्म० मनु०, ने ४८ तिर्यचो आवी उपजे.
ए प्रमाणे तिर्यचोनी गत्यागति कहीने हवे ग. मनुष्योनी गत्यागतिमा प्रथम ग० मनु० नी आगति ने त्यारबाद गति कहेवाय छे.
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॥ दंडकेषु गत्यागति द्वारम् ॥
१५ ग० पर्या० कर्म० मनु०- ५६३ जीवमेदमां जाय,
३० पर्यो० अकर्म० मनु०-१० भु०, १६ व्ये०, १५ परमा०, १० जूं०, १० ज्यो०, १ अधोकिल्बि०, सौ०, ने ईशान ए ६४ स्थाने जाय.
(१३७)
५६ पर्या० अन्तर्जीप मनु०-२१ देवोमां
---
१०१ अपर्या० ० मनु० १४८ तिर्यच, ३० कर्म० मनुष्य, ने १०१ सम्मू मनु० १०१ सम्मृ० मनुष्योमां उपजे. ए प्रमाणे मनुष्योनी गति कही ने हवे आगति कहे छे, १५ ग० पर्या० कर्म मनु० मां - १५ कर्मभू० मनु०, अग्निने वायु विना सर्व सूक्ष्मवादर एकेन्द्रिय, ३ विकले०, सर्वप्रकारना ति० पंचे०, १०१ सम्मू० मनुष्य, ९९ देव, अने प्रथम ६ पृथ्विना नारक आवी उपजे.
३० अकर्म मनु० मां- १५ कर्म० पर्या० मनु०, ने ५.५० पर्या० ति० ए २०.
५६ अन्तर्डी० मनु० मां- १५ कर्म० पर्या० मनु०, १० पर्याप्त ति० पंचे० ए २५.
शेष सर्व मनुष्यमां - - १०१ सम्मू०, मनु०, तेउ० वायु विना शेष सर्व तिर्य०, ने १५ कर्म० मनुष्य आवी उपजे.
। इति गत्यागतिद्वारम् ॥
अवतरण - आ गाथामां सर्व दंडकने विषे वेदद्वार कडेवाय छे.
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(१३८) ॥ दंडकविस्तरार्थः ॥....
॥ मूळ गाथा ३४ ॥ वेयतिय तिरिनरेसु, इत्थि पुरिसो य चउविहसुरेसु । थिरविगल नारएसु, नपुंसवेश्रो हवइ एगो ॥४०॥
संस्कृतानुवादः॥ घेदनिकं तिर्यग्नरयोः स्त्री पुरुषश्च चतुर्विधसरेषु । स्थिरविकलनारकेषु, नपुंसकवेदो भवत्येकः ॥४०॥
शब्दार्थः॥ वेय-वेद
थिर-स्थावर तिय-त्रग
विगल-विकलेन्द्रिय तिरिनरेसु-तिर्यचमनुष्योमा नारएम-नारकोपां (ने) इत्थी-स्त्रीवेद
नपुंसवेओ-नपुंसक वेद पुरिसो-पुरुषवेद य-अने हवइ-छे चउविह-चारमकारना एगो-एक सुरेसु-देवोमां (देवोने)
गाथार्थ:-तिर्यच अने मनुष्योमा त्रण वेद छ, चार प्रकारना देवोमां स्त्रीवेद अने पुरुषवेद छे, अने स्थावर ( एकेन्द्रिय ) --विकलेन्द्रिय-तथा नारकोमा एक नपुंसमवेद ज छे.
विस्तरार्थ:----तिर्यंच तथा मनु०मा ३ वेद कह्या त्यां स4 सम्म०मनुष्य तथा सम्म तिर्यंच पञ्चन्द्रियने फक्त एक नपुंसकवेद होय, अने गर्भज जीवोमां केटलाएक पुरुषवेदी केटलाएक स्त्रीवेदी ने केटलाएक जीवो नपुंसकवेदी पण होय छे, ___ तथा चारे प्रकारना देवोमां नपुंसकवेद नहिं होवायी मात्र स्त्रीवेद अने पुरुषवेदज छे, शेष व्याख्या सुगम छे.
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॥ दंडकेषु अल्पबहुत्वद्वारम् ॥ अवतरण----इवे ला गाथाथी २४ दंडकमांथी कया दंरफना जीवो अल्प अने कया दंडकना जीवो अधिक छे, ? ते कहे छे.
. ॥ मूळ गाथा ४० मो. ॥ पजमणु बायरग्गी, वेमाणियभवणनिरयवंतरिया। जोइसचउ पण तिरिया, बेइंदि तेइंति भूमाऊ॥४०॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ पर्याप्तमनुजबादाग्निवैमानिकभवनपतिनैरयिक
व्यन्सरकाः। ज्योतिश्चतुष्कपञ्चेन्द्रियतिर्यचो द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियभ्वापः ॥४०॥
शब्दरार्थः पज-पर्याप्त
नोइस-ज्योतिषीदेव मणु-मनुष्य
चउ-चतुरिन्द्रिय बायर-बादर
पण-पञ्चेन्द्रिय अग्गी-अग्नी
तिरिया-तिर्यचो वेमाणिय-वैमानिक
वेइंदि-दीन्द्रिय भवण-भवनपति
तेइंदि-त्रोन्द्रिय निरय-नारक
| भू-पृश्चिकाय वंतरीया-व्यंतरों | आऊ-अप्काय
- गाथार्थ:-पर्याप्तमनुष्य--बादर अग्नि-बैमानिक--भवनपति --नारक-व्यन्तर-ज्योतिषी- चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रियतिर्यच--दीन्द्रिय -त्रीन्द्रिय-पृथ्विकाय-अप्काय ( संबन्ध आगळनी गाथा साथे.)
१ आगळ लघु अल्पाबहुत्व जुओ.
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(१४०)
॥ दंडकविस्तरार्थः॥
विस्तरार्थ:-मुगम छे. पण आगळ लघु अने महाल्पबहुता जुओ
अवतरण--आ गाथामां पण वाकी रहेला दंडकोन अल्पबहुत्व कयुं छे.
मूळ गाथा ३८ मी,॥ वाउ वणस्सइ च्चिय, अहिया अहिया कमेण मे हुंति। सव्वेवि इमे भावा, जिणा मए गंतसो पत्ता ॥ ४॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ वायुर्वनस्पतिश्चैव अधिका अधिका क्रमेणेमे भवन्ति । सर्वेऽपि इमे भावाः, हे जिना मया ऽनन्तशः प्राप्ताः ४२॥
॥शब्दार्थः॥ वाउ--वायुकाय
| हंति छे. वणस्सइ-वनस्पतिकाय सव्वेवि--सर्वे पण चिय-निश्चय
| इमे--ए पूर्वोक्त(पर्या०मनुष्यादि) अहिया अहिय--अधिक भावा--भाव अधिक
जिणा हे जिनेश्वरी कमेण--अनुक्रमे
मए-में इमे--ए पूर्वोक्त ( पर्याप्त अणंतसो- अनंतवार
मनुष्यादि ) | पत्ता--प्राप्त कर्या गाथार्थ:----वायुकाय अने वनस्पतिकाय निश्चय ए पूर्वोक्त (पर्या० मनुष्यादि ) अनुक्रमे अधिक अधिक छे. हे जिनेश्वरो ए सर्व । पर्या०मनुष्यत्वादि ) भावो में अनंतवार प्राप्त कर्या के. ( माटे हवे एकवार प्राप्त थनारु मोक्ष पद आपो ..-ए दंडक रूप स्तुतिनुं तात्पर्य आगळनी गाथा साथे संबन्धवाळु छे. )
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॥ दंडकेषु अल्पबहुत्वद्वारम् ॥ (१४१) विस्तरार्थ:---अल्पबहुत्व संबन्धि बन्ने गाथाओमां जीवो सामान्यतः अधिक अधिक कह्या पण केटला अधिक ? ते कछु नथी माटे ते स्पष्ट रीते दर्शावाय छे.--.
॥२४ दंडकनुं*अल्पबहुत्व ॥
पर्याप्त मनुष्य १ बादर अग्नि १ वैमानिक भवनपति १० नारक व्यन्तर ज्योतिषी चतुरिन्द्रिय ? पञ्चे०तिर्यंच १ द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय १ पृथ्विकाय ? अपकाय १ वायुकाय वनस्पतिकाय ?
सर्वथी अल्प असंख्य गुण असंख्य गुण असंख्य गुण असंख्य गुण असंख्य गुण संख्य गुण संख्य गुण
विशेषाधिक विशेषाधिक असख्य गुण असंख्य गुण असंख्य गुण अनंत गुण
* अहिं पर्याप्त जीवाश्रयि आ अल्पबहुत्व का छ
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(१४२)
॥ दंडकविस्तरार्थः॥
॥ महादंडकाल्पबहुत्वम्..॥
सर्वथी अल्प संख्य गुण २७अधिकरण
असंख्य गुण
संख्यात गुण
१ गर्भज मनुष्य २ गर्भज मनुष्य स्त्री ३ पर्या०बा० अग्नि ४ अनुत्तर देव ५ उर्वत्रण ग्रैवे०देवो ६ मध्मोवै त्रिकदेवो ७ अधो ३० देवो ८ अच्युत कल्पदेवो ९ आरणकल्प देवो १० प्राणतकल्प देवो ११ आनतकल्प देवो १२ नमतमा नारक १३ तमा नारक १४ सहस्रार कल्पदेवो १५ महाशुक्र कल्प देवो १६ धूमप्रभानारक १७ लांतक कल्प देवो १८पंकप्रभानारक १९ ब्रह्मकल्पदेव २० वालुकाप्रभा नारक
असंख्य गुण
२ गर्भज मनुष्यथी गर्भज मनु० बी संख्यगुण छे. ए प्रमाणे दरेक अल्प बहुत्व पूर्व पूर्व संख्यानी अपेक्षा ए. जाणवू
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॥ दंडकेषु अल्पबहुत्ववारम् ।।
२१ महेन्द्र कल्पदेव २२ सनत्कुमार कल्पदेव २३ शर्करामभानरक २४ समुच्छिम मनुष्य २५ ईशान कल्पदेवो २६ ईशान कल्पदेवी
संख्यगण (३२ अधिक३२गुण)
३२अधिक ३२गुण असंख्यगुण ३२अधिक३२गुण
".
.
असंख्यगुण. सं०(३ अधिकश्गुण)
"३ अधिक ६ गुण)
२७ सौधर्मकल्प देवो २८ सौधर्मकल्प देवी २९ भवनपति देव ३० भवनपति देवी ३१ रत्नप्रभा नारक ३२ खेचर ति पंचे० पुरुष ३३ खेचर ति०५०स्त्री ३४ चतुष्पद ति० पुरुष ३५ चतुष्पद ति० स्त्री ३६ जळचर ति० पुरुष ३७ जळचर स्त्री ३८ व्यन्तर.देव ३९ व्यन्तरःदेवी ४० ज्योतिषीदेव ४१ ज्योतिषीदेवी ४२नपुं०खेचर ति० ४३ नपुंसक स्थलचर ति ४४ नपुं० जळचर
" (३ अधिकश्गुणी)
"(३२अधिक ३२गुण)
"(३२अधिक ३२गुण)
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॥ दंडकविस्तसर्थः ॥
(१४४)
४५ पर्या० चतुरिन्द्रिय ४६ पर्या० प०
४७ पर्या० द्वीन्द्रिय ४८ पर्या० त्रीन्द्रिीय
४९ अपर्या० पञ्चेन्द्रिय
५० अपर्या० चतुरि० ५१ अपर्या० त्रीन्द्रिय ५२ अपर्या० द्वीन्द्रिय ५३ पर्या० प्रत्येक वनस्पति ५४ पर्या० वा० निगोद
५५ पर्या० वा० पृथ्वि
५६ पर्या० वा० अप्काय
५७ पर्या० वा० वायु ५८ अपर्या० वा० अग्नि
५९ अपर्या० प्रत्येकवन ० ६० अपर्या०वा० निगोद ६१ अपर्या बा० पृथ्वि ६२ अपर्या० बा० अपकाय ६३ अपर्या० वा० वायु ६४ अपर्या० सू० अग्नि ६५ अपर्या० सू० पृथ्वि
६६ अपर्या० सू० अपकाय
६७ अपर्या० सू० वायु
६८ पर्याप्त सू० अग्नि ६९ पर्याप्त सू० पृथ्वि
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विशेषाधिक
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असंख्यगुण विशेषाधिक
असंख्य गुण
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33
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विशेषाधिक
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संख्यात गुण विशेषाधिक
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॥ दंडकेषु अल्पबहुत्वद्वारम् ||
७० पर्याप्त सू० अप्काय ७१ पर्या० सू० वायु ७२ अपर्या० सू० निगोद ७३ पर्या० सू० निगोद
७४ अभव्य
७५ पतितसम्यकत्वी ७६ सिद्ध
७७ पर्या० बा० वन० ७८ बादर पर्याप्त ७९ अपर्या० ८० बा० अपर्याप्त
० बा० वन०
८१ बादर
८२ सू० अपर्याप्त वन० ८३ सू० अपर्याप्त
८४ पर्या० सू० वनस्पति
८५ सू० पर्याप्त
८६ सूक्ष्म
८ का
८८ निगोद
८९ वनस्पति
९० एकेन्द्रियो ९१ तिर्यच
९२ मिध्यादृष्टि
९३ अविरत
९४ सकषायि
.
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असंख्यात गुण संख्यात गुण
अनंत गुण
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77
विशेषाधिक असंख्य गुण विशेषाधिक
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संख्यगुण विशेषाधिक
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(१४५)
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(१४६)
॥ दंडकविस्तरार्थः॥
-
९५ छद्मस्थ . ९६ सयोगि ९७ संसारीजीव ९८ सर्वजीव
अवतरण-आ दंडकरूप स्तुति करवानुं फळ ग्रंथकार श्री जिनेश्वरोनी पासे मागे छे. संपइ तुम्ह भत्तस्स, दंडगपयभमणभग्गहिययस्स दंडतियविरयसुलह, लह मम दितु मुक्खपय॥४३॥
। संस्कृतानुवादः ॥ संप्रति तव भक्तस्य, दंडकपदभ्रमणभग्नहृदयस्य । दंडत्रिकविरतसुलभ, लघु मम ददतु मोक्षपदम् ॥४३॥
॥ शब्दार्थः ॥ संपइ-हमणां-हवे दंडतिय ३ दंड (मन-वचनतुम्ह-आपना
कायाना अशुभव्यपार भत्तस्स-भक्तनुं
विरस्स-विरतिवडे [त्यागवडे] दंडगपय-दंडकस्थानमा सुलभं-सहजे प्राप्तथनार भमण-भ्रमणकरवाथी लघु-शीघ्र भग्ग-भग्न-उदासीन मम-मने हिययस्स-हृदयवाळा (नु) दितु-आपो मनवाला
सुक्खपयं-मोक्षपद गाथार्थ:-( ए सर्व भावो अनंतवार प्राप्त कर्या छे. ) हवे दंडकस्थानोमां भ्रमण करवाथी उदासीन मनवाला आपना भक्तने ( मने गजसारमुनिने ) त्रण दंडना त्याग करवायीं सहजे प्राप्त थनार एबुं मोक्ष पद शीघ्र आपो.
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॥ दंडकप्रणेतुः प्रभुनीप्रार्थना ||
(१४७)
ए पूर्वोक्त २४ दंड
विस्तरार्थः -- श्रीगजसारमुनि श्रीवीरप्रभुने प्रार्थना करे छे के अनादि काळथी परिभ्रमण करवा वडे करीने हवे मा हृदय बहु खेदवाळं उद्विग्न ( उदासीन ) थयेलुं छे माटे मनने अशुभ विकल्पमां प्रवर्ताववारूप मनदंड, मोक्षमार्गने प्रतिकूळ वचनो बोलवा रूप वचनदंड, अने मुक्तिमार्गने प्रतिकूल क्रियामां कायाने प्रवववा रूप कायदंड, ए ३ दंडना त्यागथी सहजे मलनारुं मोक्षपद मने शीघ्र आपो ए दंडकप्रकरणरूप श्री महावीर स्वामीनी स्तुतिनो अन्तिम परमार्थ ( सार ) जणाव्यो. अवतरण – आ गाथार्मा श्री ग्रंथकारनी प्रशस्ति छे. सिरिजिणहंसमुणीसर - रज्जे सिरिधवलचंद सीसेण गजसारेण लिहिया, एसा विन्नत्ति अप्पहिया ॥ ४४ ॥ ॥ संस्कृतानुवाद | श्रीजिनहंस मुनीश्वरराज्ये, श्रीधवलचंद्र शिष्येण । गजसारेण लिखिता: एषा, विज्ञप्ति रात्महिता ॥ ४४॥ ॥ शब्दार्थः ॥
-
सिरि-श्री
जिणहंस - जिनहंसनामना मुणीसर — आचार्यना
रज्जे - राज्यमां
सिरि-श्री
धवलचंद - धवलचंद्र
गाथार्थः - श्री जिनहंसनामे आचार्यना राज्यमां (शासनमः श्री धवलचंदमुनिना शिष्य गजसार मुनिए आ विज्ञप्ति आत्म हितकारी लखी छे.
सीसेण - शिष्ये गजसारेण - गजसारमुनीए लिहिया — लखी
एसा - आ
विभत्ति - विज्ञप्ति अपहिया - आत्महितकारी
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(१४८) ॥ देरकविस्तरार्थः ॥
विस्तरार्थः-गजसारमुनि १६ मासैकानी शरुआतमां थदेला तेम तेमना हायनो बनावेलो जंबुद्धीपनो नकशो (पट) जोवामां आव्यो छे. ते उपरथी जणाय छे. आ प्रकरण तेओश्रीए परोपकारार्थे बनावेल छतां आत्महितने माटे लख्यु तेम लखी पोता. ना आत्मानी लघुता भावी छे.
श्री दण्डकविस्तरार्थः
सम्पूर्णः
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॥श्री महावीरप्रभुस्तुतिगर्भित परमकारुणिक पं० पद्मविजगणिप्रणितं ॥
विविधरागबद्धं, एकोनहिंशतिद्वारेषु चतुर्विंशति दण्डक
समवताररूपं स्तवनम,
(दुहा) मणमी सरसति भगवति, तीम जिनवर चोवीश, गौतम प्रमुख सूरि तथा, गुरु उत्तम मुजगीश ॥१॥ चोवीश दंडकने विषे, द्वार अछे गुणतिश; विवरी कहिशु तेहने, जिम भाख्या जगदीश ॥२॥ नाम १ लेश्या २ त्रीजुं तनु, ३ अवगाहना ४ संघेण, ५ संज्ञा, ६ आकृति सातमु, ७ संपराय ८ मुणो सेण ॥३॥ ९इन्द्रि१०समुद्घात ११ दृष्टि१२दर्शन, १६नाण१४-१५जोगोपयोग: १६उपपात ने१७वचन१८स्थिति१९पज्जत्ति२०आहारनो भोग ॥४॥ २१गति आगति २२वेद २३भवननो, चोविशमो २४माणदार; २५संपदा२६धर्म२७जीवायोनि,२८कुळ २९अल्पबहुत्व विचार ॥५॥
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॥ दंडकस्तानम् ॥ (द्वारे १ लं)-घमा, वंशा सेला, अंजना रिष्टा नाम:
मघा, माघवति सातमी, ए साते दुःख खाण ॥६॥ १असुर २नाग ३सुवर्ण, ४विद्युत ने ५अग्निकुमार; ६दीव उदधि ८दिशि ९वायुः १०स्तनित ए दश श्रीकार॥७॥ सात ११नर कनुं एक छे, एकादश दंडक एम; थावर १६ पांच तथा १९ त्रण, विगलेंद्रिय गणिए तेम ॥८॥ २० पंचेन्द्रितिर्यच २१ मनुज ने, २२व्यंतर ने २३जोतिषः
२४ वैमानिक चोवीश ए, नाम द्वार मुण शिष्य ॥९॥ (द्वारे २)-नरक, तेउ, वाउ, विगलेन्द्रिय, अपज्ज लेश्या तीन
पंचेंद्रिय तीर्यच मनुषने, षट् लेश्या होय पीन ॥१०॥ भवनपति दश व्यंतर, पृथ्वी अप वण काय; ए चउद दंडकमांहि, आगली पार कहाय
॥११॥ ज्योतिषि सोहम इशान, एक तेजो होय;
पंचम देवलोक लगे पद्म, उपरे शुक्ल जोय ॥१॥ (द्वारे ३)--नारकी देवता सर्वने, वैक्रिय तेजस कर्म,
वायु तिर्यंच पंचेन्द्रिय, आहारक विनु ए मर्म ॥१३ वायु विना चउ थावर, विगलने त्रण शरीर; औदारिक तेजस कर्म, मनुजने पण कहे वीर ॥१४॥
॥ढाळ ?-राग मारु.॥ (द्वारे ४) नरक गते शत पंच धनुष् अवगाहनारे; समुच्चे उत्कृष्ट भाखीरे (२) साखि पन्नवणाअछेरे ॥१॥
... १२४ दंडकोना माम, २ कृष्ण, नील, कपोत, तेजः, पम शुक्ल, ए ६ लेश्याओ छे, ३ औदारिक, वैक्रिय, आहारक, ते जस, कार्मण, ए पांच शरीर छे, ४ शरीर प्रमाण,
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|| पं०पद्मविगणि प्रणीतम् ॥
पुणा आठ धनुष् षट् अंगुल देहडीरे;
घमा उत्कृष्ट, त्रयरे (२) हाथ जघन्य शरीर छे रे साडापंदर धनुष् बार अंगुल लहरे;
बीजे सवा एकत्रीश; पंकेरे (२) साडीबासठ धनुष्नीरे सवासो धनुपूनी धूमप्रभे लहीरे;
मघाम अढीशत, धनुष्य (२) शत पंच गुरु सातमी रे ए उत्कृष्ट कही म्हें साते नरकनी रै;
प्रेरवनी उत्कृष्ट, उत्तरे (२) उत्तरनी ते जघन्यथी रें भुवनपति वैण ज्योतिषीने सात हाथनी रे,
(१५१)
॥२॥
11311
11811
॥५॥
तिम सोहम इशान, त्रीजेरे (२) तीजे चोथे षट् तणी रे ॥ ६ ॥ पांचमे छठे पांच, चार सातमे आठमेरे;
चार लगे तिन हाथ, हाथरे (२) नाथ भाखे त्रण लोकनोरे ॥७॥ नव ग्रैवेयक बे कर, अनुत्तरे एक छे
भू जल अग्नि ने वाय, तेहनी रे (२) अंगुल असंख्यम भाग छे रे ८ लाख जोजननी उत्तरक्रिय देवतारे,
1
वनस्पति प्रत्येक. झाझीरे [२] जोयण सहस उत्कृष्टधीरे ॥९॥ अंगुल असंख्य भाग जघन्यथी जाणीयेरे;
बेइंद्रिय जोजन बार कोशरे (२) त्रण चउतिचौरिंद्रियेरे ॥१०॥
तिन कोश दनुजनी सहस जोयण तणीरे;
तिरि पंचेन्द्रिय देह, वैक्रियरे ( २ ) लाख जोयण नव शत तथारे ॥ ११ ॥ (द्वार ५ ) - षट संघयण मनुज तिरि पंचेन्द्रि लह्यारे: farलेन्द्रिय छेवट, जाणोरे (२) शेष संघयणि अछेरे
59
॥१२॥
५ प्रथम प्रथम नरकना उत्कृष्ट अवगाहना ते आगल आगल जघन्य जाणवी. ६ व्यंतर, ७ नवमे, दशमे, अगीयारमे, बारमे देवलोके, ८ वज्रर्षभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्ध नाराच कोटिका, सेवा ए ६ संघयण छे,
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(१५२)
॥ दंडकस्तवनम् ॥
(द्वारे ६)--आहारादिक चउवीशे दंडके लहारे (द्वार ७)--देवने समचउरंस, आगेरे(२)षट् नरतिरि पंचेंद्रिनेरे॥१३॥ *(द्वार ८) नारक थावर विगल समुठिम मनुष्यनेरे; एक हुँडक संठाण, होयरे (२) चार कषाय सवि दंडकेरे ॥१४॥
॥ ढाळ २ जी. पियु पियु करतां नाम जपु दिन रातीयां--ए देशी. (द्वार ९). देव नारक नर तिरिपंचेन्द्रिय पणइन्द्रि,
थावर बि ति चउरींद्रि इग वि ति चउ बदि; (द्वार १०)-नारक वायुने चार समुद्घात आगला,
देव तियेच पंचेन्द्रियने पण(५) आदिला ॥१॥ थावर चउ विगलेन्द्रियने पहेला तिन कह्या,
मनुजने सात समुद्घात पनवणाए लह्या; (द्वार ११)-नारक नर देव तिरि पंचेन्द्रि तिदृष्टि छे,
थावर पंचने एक मिथ्यात्व ते इष्ट छे ॥२॥ विगलेन्द्रियने समकित मिथ्या ए दोय छे.
एणीपेरे द्वार एकादशभु दृष्टि होय छे; (द्वारे १२) देव नारक तिरि पंचेन्द्रियने केवल विना,
चउरिदिने चक्षु भचक्षु बे दर्शना
९ आहारसंज्ञा, भयसंझा, मैथुनसंझा, परिग्रहसंज्ञा, ए चार संज्ञा छे, १० समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्ज, हुंडक ए ६ संस्थान छ, + क्रोध, मान, माया, लोभ ए ४ कषाय छे, ११ स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षुः, श्रोत्र ए ५ इन्द्रिय छे, १२ वेदना, कषाय मरण, पैक्रिय, तैजस, आहा. रक, केवलिक ए ७ समुदघात छे. १३मिथ्यात्व सम्यक्त्व मि. श्र, ए त्रणदृष्टि छे, १९ चक्षुदर्शन छे, अचक्षुद०, अवधिद०, केवळद० ए ४ दर्शन छे,
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॥ पं०पवि०णि प्रणीतम् ॥
एक अचक्षु यावर बि ति इंद्रिय तणे,
चक्षु अचक्षु ओहि केवल चउ मनुजने; (द्वारे १३)-त्रण ज्ञान अज्ञान नरक देव तिर्यंचने.
थावरने मति श्रुत अज्ञान ए बिहुं भणे ॥४॥ विगलेन्द्रियने ज्ञान अज्ञान दुधा भ',
मनुजने ज्ञान पंच अज्ञान ते त्रण गj (द्वार १४)-औदारिक आहारक दुग विणु सुणो,
योग अग्यार नारक देव दंडके भवि मुणो ॥७॥
औदारिक दुग कर्म भू जल वन्हि वण प्रते, वैक्रिय दुग युत पंचयोग वायु मते; औदारिक दुग कर्म चोथो वाग योग ए विगलेन्द्रियने चार योगनो भोग ए तिरिपंचेन्द्रिने आहार दुग विण जाणीए,
पनर योग मनुष्यने भवि मन आणीए; (बार १५)-त्रण ज्ञान अज्ञान दर्शन देव नरक तिरि,
ज्ञान अज्ञान दो एक अचक्षु बे तिरिंदरि ॥७॥ ज्ञान अज्ञान दर्शन दोय ए छ चरिदिने, मइ सु अज्ञान अचक्षु थावर एकदिने
१५ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपयवज्ञान, केवलज्ञान. ए पांच ज्ञान तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान ए त्रण अज्ञान छे, १६ सत्यमन, असत्यमन, मिश्रमन, व्यवहार (असत्यामृषा) मन, सत्यवचन, असत्यवचन, मिश्रवचन, व्यवहारवचन,ए चार मनना अने चार वचनना मली आठ योग, तथा औदारिकयोग, औदा० मिश्रयोग, वैक्रिय,वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र, तैजसकामग, ए सात काययोग मळी १५ योग छे, १७ ५ज्ञान, ३ अज्ञान, ४दर्शन ए १२ उपयोग छे,
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(१५४)
|| दंडकस्तवनम् ॥
बार उपयोग मनुष्यने लहिए इम सुणो, नाण अन्नाण दर्शन पण तिच क्रम थुणो ॥८॥
(द्वोर १६ - १७ - नारक देव तिच पंचेन्द्रि विगल तथा, उपपात चवन कहुं भवि भगवति कहे यथा; एक वे त्रण जघन्यथी संख्य असंख्याता, 'उत्कृष्टा उपपात वचन समे विख्याता एक समे असंख्याता थावर प्राणिया, उपजे चवे अनंत। साधारण जाणिया; एक आदि देइ जात्र संख्य मनुष्य लहो, समुर्छिम नरमहि असंख्याता सदहो
॥ ढाळ ३ जी.
||
॥९॥
॥१०॥
हवे कुमर इस्युं मन चितवे, ए राग. (द्वारं १८ ) - रत्नप्रभार जघन्यथी, दस सहस वरसना आयोरे; सागर एक उत्कृष्टो लहो, बीजे ऋण सागर थायोरे.
जिनवर भारखे इम वयणडां ॥ १ ॥
वालुप्रभा नरके सातनुं पंके दश सत्तर ते घूमे रे कधी बावीश तम नरकमां, सागर तेत्रिश तमतमेरे. जि० ॥२॥ आदि उत्कृष्टी जे कही, उत्तरनी तेह जघन्यरे:
१८ अमुक दंडकमां एक समये केला जीवो जघन्यथी या उत्कृष्टथी उपजे ! एम कहेतुं ते उपपातद्वार अने अमुक दंडकन एक समयमां केउला जीवो जव० थी वा उत्कृ थी मरण पामे एन कहेतुं ते च्यवनद्वार, १९ करा दंडके कंटलु जघन्य आयुष्य अने उत्कृष्ट आयुष्य होय एम कहेवुं ते आयुष्यद्वार,
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॥ पं० पद्मवि०णि प्रणीतम ||
(१५५)
तेर प्रतर पहेली नरकमां, तस उत्कृष्ट सुणो देइ कर्णरे. जि० ॥३॥ ने सहस तथा नेउ लक्ष छे, पुरव कोडि श्रीजे जाणोरे;
एक सागरना दश भागमां, एक भाग चोथे मन आणोरे, जि० ॥४॥ एम भाग एकेक वधारतां, तेरमे थाय दश भागरे,
सागर एक पुरुं थइ रहे, हवे जघन्यनी सुणो वागरे. जि० ॥५॥ दश सहस तथा दश लक्ष छे, नेतुं लाख ने पूरव कोडी रे; हवे आगलीनुं उत्कृष्ट जे, उत्तर जघन्ये जोडी रे. जि० ॥६॥ एकादश नव सत पण तथा, त्रण एक अनुक्रम धारोरे: प्रतरे गुणवान कहुं, आमनाय ते एक उदारोरे जि० ॥७॥ जे नरकनी स्थिति उत्कृष्ट छे, तस कीजे जघन्य ते बादीरे; प्रतर जेटला ते नरकना, कीजे भाग प्रतरे साधीरे. जि० ॥८॥ दस सहस वरस ते जघन्यथी, आयु भवनपति तणु होय रे; उत्कृष्ट चमरनुं सागरतणु, बलि इन्द्रनुं अधिकुं जोयरे. जि० ॥९॥ साडा त्रण तथा साडा चार छे, तस देवी तणु अनुक्रमे रे; हवे नव निकाय दक्षिणतणुं, आउखु दोढ पल्योपमरे. जि० ॥ १० ॥ पल्य दोय देशोन उत्तरतणुं, तस देवीनं अड एकोरे;
देशे उण पल्योपम कहूं, क्रमे गणीए धरी विवेकोरे जि० ॥ ११ ॥ सन्ना शुद्धा विजी वालुका, चोथी मणशिला नाम
शर्करा खर पूढवी जाणीए, अनुक्रमे सुणो आयु ठामरे, जि० ॥ १२ ॥ एक बार चउद सोल तेम वली, अष्टादश ने बावीसोरे: सहस शब्द ते तीहां जोडीए, आउखु भाखे जगदीशोरे; जि० ॥ १३ ॥ सात सहस वरस अपूकायनुं, वासर त्रण अग्निनुं आयुरे;
त्रण सहस वरस वायुकायनुं, दश सहस वरस वणकायरे. जि० || १४ | बेइन्द्रिनुं बार वरसतणुं, तेइन्द्रिनुं ओगणपचास दिनरे;
पट् मासनुं चौरेन्द्रितणु, वन्य मुहूर्त होय भिन्नरे. जि० ॥ १५ ॥
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॥ दंडकस्तवनम् ॥
जनपर गर्भज समुर्छिम तथा, गर्भज उरभूजपरिसप्परे; पूष कोडी वरसनु आउखु, भिन्नमुहूर्त सप्पनुं भल्परे. जि० ॥१६॥ थरुचर गर्भम प्रण पल्यनु, समूर्छिम वर्ष सहस चोरासीरे: भाग पल्योपम असंख्यातमो, गर्भज खेचरनुं खासीरे. जि० ॥१७॥ खेचरनुं बहोतेर सहस, उरपरिनुं त्रेपन हजार रे भूजपरिनुं बेतालीश सहस, ए त्रण सम्मूर्छिम धाररे. जि०॥१८॥ गर्भज नरनुं त्रण पल्यन, जघन्यथी भिन्नमुहूर्त रे। दश सहस वरस व्यन्तरतणुं उत्कृष्ट पल्य- इंतरे. जि० १९॥ भय पल्यन तस देवी तणु, लाख वरस ने पल्य शशिकेरुरे; सहस वरस ने पल्योपमतणु, सूर्यनु ग्रह पल्य धारुं रे. जि० ॥२०॥ चंद्र सूर्य ने ग्रह देवीतj. निज आयु अरध करी दीयोरे; अर्ध पल्य तथा पा पल्यनु, नभत्र तारानुं लहीयोरे. जि० ॥२१॥ चोथो आठमो भाग झाझेरडो पल्यनो देवीनो मान रे; बे सागर सोहम जाणीए, बे उदधि झाझेरां इशान रे. जि० ॥२२॥ एक पल्य तथा अधिकरई, जघन्य आउखु सारो रे सात सागर अथ झाझेरडं, त्रीजे ने चोथे उदारोरे. जि० ॥२३॥ बे सागर अधीकेरडं, आयु जघन्य का तासरेः । हवे उत्कृष्ट अनुक्रमे कहूं, सुणजो ते धरी उल्लासरे, जि० ॥२४॥ दश चउद सत्तर अष्टादश, सागरनुं अनुक्रमे जाणीरे; आगळे एकेक वधारीए, एकत्रीश अवेक लगे आणीरे. जि० ॥२५॥ तेत्रीश सागर विजयादिके, चारने एकत्रिश जघन्यरे; आगळने उत्कृष्ट जघन्य ते, उत्तरतुं धारो सज्जनरे. जि० ॥२६॥
॥ ढाल ४ थी. ॥ देशी एकत्रीशानी.
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॥ पं०पद्मविगणि प्रणीतम्॥ (१५७) (बार-१९) थावर पंचनेरे, चार पर्याप्ति अगली,
विगलेन्द्रियनेरे, टाळो मन एक छेहली;
शेष सर्वनेरे, षट् पर्याप्ति द्वारे भणी, (द्वार-२०) द्वार वीसमुरे, भाखे हषे त्रिभुवनधणी ॥१॥ [त्रुटक] मनुष्य तिरि विगलेन्द्रि पण ए दंडके त्रण आहार ए
शेषने करल आहार टाली दोय आहार निरधार ए; (द्वार-२१) तिरि पंचेन्द्रि मनुजमांहि.नारकी जाइ सहि,
आवे पण ए बिहुमांथी पाये वेदना बहुतही ॥२॥ ( ढाळ ) व्यंतर ज्योतिषिरे, भुवनपति वळी जाणीए,
सोहम इशानरे, पांच दंडकमांहि आणोए; पृथ्वी अरे, वण तिरि पंचेन्द्रिय मनु,
उपजे तिहार, तिरि पंचेन्द्रि मनुज ननु ॥२॥ (घुटक ) त्रीजाथी सहसार जावत गत्यागति मनु तीरितणी,
नवमाथी सर्वार्थसिद्ध मनुजनी जिनवरे भणी; चोविशमाहे मनुज जाए, भाय तेउ वाउ विणु,
चोवीशमाहे गत्यागति करे तिरि पंचेन्द्रिय घणुं ॥४॥ ( ढाळ ) गति आगतिरे. विगलेन्द्रिने दश दंडके,
निरि पंचेन्द्रिरे, थावर विगल मनुज जीके; भू अप वणनेरे, एहीज दशनी गति कही,
वीशमारे, नारक विणु आगति लही (घुटक ) नवनी गति आगति दशनी तेउ वाउने तदा,
२० आहार पर्याप्त, शरीरप०, इन्द्रिय प. उच्छवास पo, भाषा पर्या० मनः पर्या० ए ६ पर्याप्ति छे, २१ ओजसूआहोर, लोमआहार, प्रक्षेपाहार ( कवलाहार ). ए ३ आहार छे, २२
अमुक दंडकना जीव कया कया दंडकमां जइ उपजे ते गति, अमुक दंडकमां कया कया दंडकना जीवो आवी उपजे ते आगति,
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(१५८)
॥ दंढकस्तवनम् ॥
थावर विगल तिरि पणेन्द्र मनुज सहि करो जदा: श्री वीरजिनवर तणा पदयुगपद्मने अवलंबता, गत्यागति सवि दूर थाय पामीए सुख शाश्वता॥६॥
॥ ढाळ ५ मी.॥
॥ चोपाइनी देशी, ॥ (दार-२२) नारक थावर विगल नपुं वेद, देवने पुं त्रि वेद मन घेद; तिरि पंचेन्द्रि मनुज त्रण जाणं, हवे भुवन द्वार मन आण ॥१॥ सात नरकना अनुक्रमे सुणी, त्रीश पचवीश पन्नर दश त्रीणि; लाख शब्द सयले जोडीए, छठ्ठीए लखमां पण छोडीए ॥२॥ सातमीए पण नरकावास, चोराशी लख सर्वनि वास; चोत्रिश चोयालिश (४४)अडत्रीश, नवमी निकाय विना चालिश३ नवमीने पचास उदार, लक्ष शब्द सघळे विस्तार; दक्षिण दिशे दश इन्द्रना एह, चउ कोडि षट् लख सर्व गुणेह हवे उत्तर दश इन्द्रना कहुं, उणा प्रत्येके चउ लख लहु ; सात कोडि ने बहोतेर लाख, सर्व थइ ए जिनवर भाख ॥५॥ एक लाख अंशी सहप्त जोजन, स्त्नप्रभा पिंड भाखे जिन; सहस जोजन उपरि अध टाल, वचमां भुवनपतिने भाळ ॥६॥ संख्य असंख्यात जोजन मान, भवन कह्या छे तेहने थान; लोकव्यापी सूक्ष्म थावरा, वादर देशे कहे जिनवरा ॥७॥ बादर अग्नि मुनुज ए दोय, अढो द्वीपमां कहीए सोयः उपरी सहस जोजनमा थकी, उपरी अध शत जोजन मुकी ॥८॥ नगर असंख्याता तिहां कह्यां, नाना भरत जेवडा लह्या: महाविदेह सम मध्यम जाण, मोटा जंबुद्वीपप्रमाण ॥९॥
२३ स्त्रीवेद, पुरुषवेदन, पुसकवेद, ए ३ वेद छे,
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॥ दंडकपणेतुः प्रभुनीमार्थना ।।
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संभूतल पृथ्वी मर्याद, सातशें नेवू जोजन संवाद, ताराथी दश जोजन रवि, अंशी जोजन तिहाथो शशि पवि॥१०॥ नक्षत्र बुध जोजन चार चार, शुक्र गुरु मंगल शनि त्रण धार; ज्योतिषीनो छे असंख्य विमान, हवे देवलोकनी संख्या जाण।।११॥ बत्रीश अडवीश बार अड चार, लाख शब्द जोडीए उदार: पचास चालिश ने छ हजार, आनत प्राणते चउ शत धार ॥१२॥ आरण अच्युते पणशें रखा, ए मान विमान संख्यामां लक्षा, प्रथम त्रोके एफसो अग्यार, बीजे एकसो सात विचार ॥१॥ त्रीजे सो ने उपरि पंच, अनुत्तरमा पण पुण्यनो संच: बार जोजन उंची सिद्धशिला, द्वार२४'प्राण कहुं हवे दश माहीला१४ फरस इन्द्री तनु बळ श्वासोश्वास, आउखु ए थावर होय तास; रस इन्द्री ने वचन सहित, बेइन्द्रियने षट् ए रीत; नारक सहित तेइन्दिने सात चौरेन्द्रिने चक्षु अवदात; मन ने श्रोत्र इन्द्रिय ए युत, शेष दंडकने दश ए उत्त ॥१७॥
॥ ढाळ ६ हो.॥
राग वेलावल. (छार २५) नवनिधान चोद रतन ए. भाख्या भगवते चक्र, छत्र, दंड, असि वलि, कांगणी, चर्म मणि,
ते नमिये जिनरायने ॥१॥ सात एकेंद्रिय रतन ए, गाथापति, सेनापति: पुरोहित, वार्षिक, अश्व, गज, स्त्री संपत्ति. ते ॥२॥ तीर्थकर, चक्री. पळ, वासु, केवलि, साधु, श्रार; समकिति, मंडलिक मळि, सनि त्रैवीश लाधु. ते ॥३॥
२४ प्रागदश आगल का छे ते. २५. चौद चक्रवर्तिना रत्न अने नव तीर्थकरादि मली २३ संपत्तिद्वार.
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दंडकस्तवनम् ॥
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॥५॥
पहेली नरकनो नीकळ्यो, सोळ संपदा पामे; सात एकेन्द्रिय टाळीने, गुणज्यो इणे ठामे. ॥४॥ बीजीनो पंदर चक्री विना, त्रीजीनो तेर; बल वासुदेव ए टाळजो, चोथीनो बार. तीर्थंकर विणु पांचमीनो, पामे अगीआर; केवली विणु दश छठ्ठीनो, साधु विणु निरधार. ते० ॥६॥ अश्व गज समकीत त्रण, सातमीनो जाण; भवनपति वण जोतिषी, एकवीश लहे ठाण. ते० ॥७॥ तीर्थंकर वासुदेव विना, भू अप वण नर तिरीनो: तीर्थकर चक्री बल वासु, विणु ओगणीश कीनो. ते० .८॥ तेउ वाउनो नीकल्यो, अश्व गज ए दोय .. सात एकेन्द्रि इम नव, पामे जीव कोय. ते० ॥९॥ विगल अढार संपद लहे, तीर्थंकर चक्री बल वासुः केवली ए पांच टालजो, सोहम इशाने ते वीशु. ते० ॥१०॥ पहेली नरक परे जाणजो, सोल संपद इहां; त्रीजाथी आठमा लगे, नवमाथी चौद जिहां. ते ॥११॥ एकोन्द्र अश्व गज टाळजो, अनुत्तरना कहीए; * आठ नियान वासुदेव विना, द्वार संपदा लहिए. ते०॥१२॥ (द्वार-२६) करणीरूप धर्म मनु तथा, तिरि पंचंद्रिमांहिः
बावीश दंडके ते नहि, धर्म द्वार ए त्यांहि. ते॥१३॥ (द्वार-२७) भु अप तेउ वाउ सत, दश लाख प्रत्येक
साधारण वण मनु चौद, चउ चउ लख तिरि नरक ते० १४
* तीर्थंकरादि आठ पदवीओ प्रत्येकवनस्पति २१ दंडके अविरतिनो उदय छे. २६ विरतिरूपधर्म. २७ ८४ लाख जीया.
योनिद्वार,
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॥ पं. पद्मवि० प्रणीतं ॥ (१६१) लाख लाख दो दो विगलेंद्रिमां, देवने लख चार:
इम चोराशी लख जीवायोनिमां, नव नव अवतार ते॥१५॥ (द्वार-२८) पचवीश छवीश बार सान, त्रण सात अडवीश;
सात आठ नव बार लाख, कुळकोटि जगीश. ते० ॥१६॥ साडीवार दश बार दश, नव लाख कुलकोडि; नारक देव अनुक्रमे, पांच थावर जोडि. ते ॥१७॥ बि ति चौरेंद्रि अनुक्रमे, मनुज जलचर थलचर
खेचर उरपरि भुजपरि, अनुक्रमे सवि विस्तर. ते ॥१८॥ (द्वार-२९) गर्भन नर थोडा सर्वथी, षड् गुण असंख्याता;
बादर अग्नि वैमानिक, भुवनपति आख्याता. ते० ॥१९॥ नारक व्यंतर ज्यातिषि, संख्य गुण चरिंदि; प्रण विशेषाधिक लहो. पंचेंद्रि बि तिइंदि. ते ॥२०॥ त्रण असंख्यातगुण करो, पृथ्वी अपकाय; चौदमे बोल वनस्पति, अनंत गुण थाय. ते० ॥२१॥ उत्तम विजय गुरुतणा, साधु कहेवाय: भावनगरमां वीरना, पद्मविजय गुण गाय. ते ॥२२॥ इति श्री वीरजिनस्तुतिगर्भित चोवीश दंडक स्तवन.
चोविश दंडकनुं स्तवन.
( गति आगतिनु स्वरूप.) - ढाळ १ ली.
आदर जीव क्षमा गुण आदर, ए देशी. पुरे मनोरथ पास जिनेश्वर, एह करूं अरदासजी: तारण तरण विरुद तुज सांभळी, आव्यो ताहरी पासजी. पुरे० ॥१॥ एणे संसार समुद्र अथागे, भमीयो भवजलमांहिनी; गोलगीलीयो जीम आयो गीलतो, साहेब हाथे साहीनी. पुरे ॥२॥
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(१६२)
॥ दंडकस्तवनम् ॥
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तुं ज्ञानी तो पण तुज आगळ, वीनक कहीए वातजी; चोवीशे दंडके हुं फरीओ, वर्णवु एह विख्यातजी. पुरे० ॥३॥ साते नरकतणो एक दंडक, असुरादिक दश जाणजी; पांच थावर ने त्रण विकलेंद्रिय, ओगणीश गणतां आणजी. पुरे० ॥४॥ पंचेंद्रिय तिर्यंच ने मानव, एह थया एकवीशजी; व्यंतर ज्योतिषी ने वैमानिक, एम दंडक चोवीशनी. पुरे० ॥५॥ पंचेंद्रिय तिथंच ने मानव, पर्याप्ता जे होयजी; ए सघळा देवमाहे उपजे, एम देव आगति दोयजी. पुरे० ॥६॥ असंख्यात आयुषे नर तीरि, निश्चे देवज थायनी: निज आयुषे सम के ओछे, पण अधिके नव जायजी. पुरे० ॥७॥ भुवनपति ने व्यंतरमांहे, संमुर्छिम तिर्यंचजी; स्वर्ग आठमे तांइ पुहवे, गर्भन सुकृत संचजी. पुरे० ॥८॥ आयु संख्याते जे गर्भज, नर तिर्यंच विवेकजी: बादर पृथ्वी ने बळी पाणी, वनस्पति प्रत्येकजी. पुरे० ॥९॥ पर्याप्ता एणे पांचे ठामे, आवो उपजे देवनी; एणे पांवे माही पण आगे, अधिकाइ कहुं हेवजी. पुरे० ॥१०॥ त्रीजा स्वर्गथकी मांडीने सुर, एकेंद्रिय नवी थायनी; आठमाथी उपरला सघळा, मानवाहि जायजी. पुरे ॥११॥
ढाल २ जी. आज नही जोरे दीसे नाहलो, ए देशी. नरकतणी गति आगति एणी पेरे, जीव भमे रे संसार; दोय गति ने दोय आगति जागीए, वळो विशेष विचार. नरक० ॥१॥ संख्याते आयुष पर्याप्ता, पंचेंद्रिय तिर्यंच: तिमहोज मनुष्य एहिज नरकमें, जाए पाप प्रपंच. नरक० ॥२॥ प्रथम नरकलगे जाए असनीयो, गोह नकुल तीम बीय;
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(१६४)
॥ दंडकस्तवनम् ॥
ढाळ ४ थी. हेम घडो रत्ने जडयो रे, ए देशी. हवे तिर्यंच तणी गति, आगति कहीए अशेष, जीव भमे एणी परे, भवमांहि कर्म विशेष आयु संख्याते जे, नर तियेच विचार. ते सघला तिर्यंच, मांहे लहे अवतार. ॥१॥ जिणे तिर्यंचमांहे, आवे नारक देव, ते कह्यो पहेले, तिण कारण न कहुं हेव; पंचेंद्रिय तिर्यच, संख्याते आयुषे जेह, ते मरी चउगति माहे, जावे इहां न संदेह... ॥२॥ थावर पंच त्रण, विगलेंद्रिय आठे कहावे, तिहांथी आयु संख्याते, नर तिर्यंचमां आवे: विकल चवी लहे सर्वविरति, ते पण मोक्ष न पावे, तेउ वाउथी आयो, तेहने समकित नावे. नारक वर्जीने, सघला ए जीव संसार, पृथ्वी आउ वनस्पति, मांहे लहे अवतार, ए त्रण इहांधी चवी, ते आवे दश ठामे, थावर विगल नीरि, नरमांहे उत्पत्ति पामे. ॥४॥ पृथ्वीकाय आदे, लइ दश दंडक एह, तेउ वाउ मांहे, आवी उपजे तेह; मनुष्यविना नव माहे, तेउ वाउ वे जावे, विगलेंद्रिय ते दशमांही, जावे पाछाही आवे. एम अनादि तणो ए, मिथ्या जीव एकंत, .. वनस्पति मांहे तिहां, रहिओ काल अनंत;
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॥ दंडकमकरणं सटीकम् ॥ (१६५) पृथवि पाणी अग्नि, अने चोथो वलि वाय, कालचक्र असंख्याता, त्यांइ जीव रहाय. बेइंद्रिय तेइंद्रियने, वली चौरेंद्रि मझार, संख्याता वरसा लगे, भमीयो कर्म प्रकार: सात आठ भव लगे, नर तियेचमें रहियो, मानव भव लहिने, साधुनो वेष में प्रहियो. ॥७॥ राग द्वेष छुटे नहि, किम थाये छुटकबार, पीण छे साध्य मन माहरे, तुंहीज एक आधार; तारण तरण में त्रिकरण, शुद्धे अरिहन्त लाधो, हवे संसारतणा भवमें, भमवो पुद्गल आधो ॥८॥ तुं मनोवांछित पूरण, आपदाचूरण स्वामी, ताहरी सेव लहिने में, हवे नव निधि पामी, अवर काइने इच्छु नहि, इण भव तुहिज देव, छ मने एक ताहरी, होजो भव भव सेव. ॥९॥
॥ कळा ॥ इम सकळ सुखकर नगर जेसलमेर महीमा दिने दिने संवत सत्तर ओगणत्रीशे, दिवस दिवाली तणे; गुरू विमळचंद समान वाचक,विजयहर्ष मुशिष्य ए, श्री पार्थना गुण इम गावे, धर्मचंद्र सुजगीशए. ॥१॥
॥ इति चोवीश दंडकस्तवन ।।
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॥ ॐ अर्ह नमः ॥
स्वपरसमयपारावारपारीणेभ्यः सूरिगणसार्वभौमेभ्यः तपोगच्छाचार्यश्री विजयने मिसूरिभगवद्भ्यो नमः ।
स्वोपज्ञावचूर्णि - श्रीरूपचन्द्रमुनिविनिर्मित विनृत्यलङ्कृतं श्रीगजसारमुनिप्रणीतं
॥ दण्डकप्रकरणम् ॥
(अव०) श्रीवामेथं महिमामेयं, प्रणिधाय बालधीगम्यम् । स्वोपज्ञ कुर्वेऽहं विचारषत्रिंशिका सूत्रम् ॥ १ ॥
इह चतुर्विंशतिदण्डकेषु प्रत्येकं संक्षिप्तसंग्रहणी २४ पदानामतारणं चिकोiिng, तथाईडिङ्गतिद्वारा प्रकटयमाह सूत्रकृत्
नमिउं चउवीसजिणे, तस्सुत वियरलेस देसणओ । दण्डगपएहिं ते च्चिय, थोसामि सुणेह भो भव्वा ! |१| (अव०) नत्वा मनोवाक्कायैः महीभूय, कान?, चतुर्विंशतिजिनान्, अत्र भरते साम्प्रतीनाऽवसर्पिणीमाश्रित्य अन्यथाऽतीतानागतकापश्चदशकर्मभूमीश्च प्रतीत्य जिनबहुत्वापत्तेः । अहं तानेव जिनान, स्तोष्ये । कुत: ?, तेषां सूत्रमागमो जिनागमस्त चेह " सरीरमोगाहणा य संघणा सण्णेत्यादिरूपं " तस्य विचारो विचारणं तस्य लेशस्तस्य देशनतः कथनतः । कैः सह, श्रीभगवत्या दिगाथाक्रमनिबद्धदण्डक
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(२)
॥सावचूणिक सटीकं च ॥
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संशित २४ जीवस्थानः, शृणुत भो भव्या इति- “ अपतिपद्धे श्रोतरि, वस्तुर्वाचः प्रयान्ति वैफल्यम्" इतिवचनात् श्रोत्समा. खीकरणार्थम् ॥ १ ॥ अथ दण्डकमाह(टीका) प्रणम्य परया भत्त्या, जिनेन्द्रचरणाम्बुजम् ।।
लघुसङ्ग्रहणीटीका, करिष्येऽहं मुदा वराम् ॥ १॥
नमि० चतुर्विशतिजिनान् नत्वा-अभिनम्य चतुर्विश. तिदण्डकैः कृत्वा तानेव-जिनानेवादिनाथप्रभृतीनहं स्तोध्यामि-स्तवोमीत्यर्थः । कस्मात् ? तस्तुत्तति तत्सूत्रविचारलेशदेशनतः तेषां-भगवतां सूत्र-सिद्धान्तस्तरसूत्रं तत्सूत्रस्य विचारस्त. स्सूत्रविचारः तत्सूत्र विचारस्य लेशो-लवः तत्सूत्रविधारलेशः तत्सूत्र विचारलेशस्य देशनं-कथनं तस्मात इति तत्सूत्रविचारलेशदेशनतः 'भो भव्या ! ' भी भविका! यूयं शृणुत-श्रवणविषय कुरुत इत्यर्थः।सुकरत्वाल्लेशतः प्रथमगाथाया व्याख्यानं कृतम्॥२॥
অথ অৰিহানিকন্যা नेरइथा असुराई, पुढवाई बेइंदिआदओ चेव । गब्भयतिरियमणुस्सा वन्तरजोइसियवेमाणी ॥२॥
(अव०) सप्तपृथिवीनरयिकाणामेको दण्डका, भवनपतीनाममुं. रादिदशनिकायभेदादश दण्डकाः, पृथिव्यादीनां पञ्च विकलानां यः, गर्भनतिर्यगमनुष्यन्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकदण्डकावेति सर्वे २४, इह सूक्ष्मा अपर्याप्तकाश्च पाया नाधिक्रियन्ते ॥ २॥
( टीका )नेरेति. अत्र नैरयिकाः पृथिवीभेदेन सप्तधा ज्ञातव्याः, सप्तविधाः सप्त प्रकारा येषां ते सप्तविधाः । यथा-१ रत्नप्रभा २ शर्कराप्रभा ३ वालुकाप्रभा ४ पङ्कप्रभा ५ धुमप्रभा ६ तमःप्रभा ७ तमस्तमःप्रभा । एतासु भवानां नैरयिकानामेको दण्डको शेयः । इह हि दण्डकाधिकारत्वात् चतुर्विशतिस्थानेषु
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॥ दंडकपकरणं ।।
पूर्वगायोक्तदण्डकशब्दो योजनीयः । असुरकुमारादीनां भवनपतिनिकायभेदेन दश दण्डकाः स्युरित्यर्थः, अस्यन्ति क्षिपन्ति देषान् सुरान् ते असुराः, कुमाराकाराः कुमारपत्क्रीडाप्रियत्वाञ्च कुमाराः, ते च ते कुमाराश्च असुरकुमाराः । ते आदौ येषां ते असुरकुमारादयः । तेषां दशप्रकारत्वादश दण्डकाः स्युरित्यर्थः, तथा पृथिव्यादीनां पृथिव्यप्तेजोवायवनस्पतिनिकायभेदानां पश्च दण्डकाः स्युः । द्वीन्द्रिया आदौ येषां ते हीन्द्रियादयः । तत्र (a) शरीररसनालक्षणे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः । यथाशतकपर्देत्यादयः। त्रीणि शरीररसनाघ्राणलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः । यथा-पिपीलिकामत्कुणेत्यादयः । चत्वारि शरीररसनाघ्राणचक्षुलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः। यथा-मक्षिकाभ्रमरपतवृश्चिकेत्यादयः । एवं द्वित्रिचतुरिन्द्रियैः कृत्वा दण्डकास्त्रयो जाताः स्युरित्यर्थः । गर्भ भवाः गर्भजाः ते च ते निर्यश्चश्च मनुष्याच गर्भजतियग्मनुष्यास्तेषां द्वौ दण्डको स्यातामित्यर्थः । तथा विविधमन्तरं बनान्तरादिकमाश्रयतया येषां ते व्यन्तराः यद्वा भृत्यवञ्चक्रवाराधकन्वन विगतोऽन्तरं -विशेषो मनुष्येभ्यो येषां ते तथा, वनानामन्तरे भवाः पृषोदरादित्वान्मागमः वानमन्तराः तेषामेको दण्डकः स्यात् । ज्योतिष्काणां चन्द्र सूर्यग्रहनक्षत्रताराणामेको दण्डको. ज्ञेयः । वैमानिकानामेको दण्डकः । ते च द्विधा-कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च । तत्र कल्पः स्थिति तं मर्यादेत्येकार्थाः । स च इन्द्रतत्स. मानिकादिव्यवस्थारूपस्तं प्रतिपन्नाः कल्पोपपन्नाः ग्रैवेयकानुत्तरवासिनस्तु कल्पानीताः, तेषां सवैषामप्यहमिन्द्रत्वा । विमा. न्ति वर्तन्तेऽस्मिन् देवा इति विमानं तत्र भवा वैमानिकाः । नैरयिकादिवैमानिकान्ता एते चतुर्विशतिदण्डकाः ज्ञातव्याः । अत्र चकारः समुच्चयार्थः एवशब्दो निश्चयाथै ज्ञेयः । अत्र गाथा. यां दण्डकशब्दोऽनुक्तोऽपि दण्डकशब्दो ग्राह्यः । अत्र दण्डक. शब्देन किमुच्यते ? तबाह-तजातीयसमूहप्रतिपादकत्वं ज्ञेयमित्यर्थः । संक्षेपतो गाथाद्वितीयस्य (द्वितीयगाथायाः ) व्या. ख्यानं विहितं । इह सूक्ष्मा अपर्याप्ताश्च प्रायो नाधिक्रियन्ते ॥२॥
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(४) ॥ सावचूर्णिकं सटीकं च ॥
अथ चतुर्विशतिद्वारेषु गाथाद्वयेन शरीरादिस्वरूपवक्तव्यमाहसंखित्तयरी उ इमा, सरीरमोगाहणा य सङ्घयणा । सन्नासंठाणकसाय, लेसिन्दियदुसमुग्घाया ॥३॥ दिछीदंसणनाणे, जोगुवयोगोववायचवणठिई । पज्जत्तिकिमाहारे, सन्निगइथागई वेए ॥ ४ ॥
(अव०) गाथाद्वयं लघुसंग्रहणीसत्कमिहेषामेव पदानां विचारणी यत्वात् पदिशिकायां लिखितम्, व्याख्यालेशश्च यथा-स्वाभाविकशरीरं च पञ्चधा,औदारिकवैकियाहारकतैजसकार्मणभेदात् ।। एषां चावगाहनोच्छयमानं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदाव त्रिधा ।। कार्मग्रन्थिकाभिप्रायेण अस्थिरचनाविशेषः संहननं तच्च षोढा-वज्रऋषभना. राच १ ऋषभनाराच २ नाराचाश्र्धनाराच ४ कीलिका ५ सेवात्त ६ भेदात्, संहननादिलक्षणं तल्लक्षणशास्त्रादवसेयम् ।३। संज्ञा चतस्रः--आहार-भय-परिग्रह-मैथुनलक्षणाः, दश वा एतास्ते च चतुष्कषायसंज्ञा ४ लोकसंज्ञा १ ओघसंज्ञा २ क्षेपात् ।४। समचतुरस्र १ न्यग्रोध २ सादि ३ वामन ४ कुब्ज ५ हुंडक ६ भेदानि संस्थानानि ।५। कषायाश्चत्वारः । ६। लेश्याः षट्-कृष्ण १ नील २ कापोत ३ तैजस ४ पद्म ५ शुक्ल ६ रूपाः परमत्र ता द्रव्यरूपा अवस्थिता विचार्याः, न भावरूपाः ।७। इन्द्रियाणि पश्च।८। द्वौ समुद्घातौ-समवहननमात्मप्रदेशविकरणं समुद्धातः स चाजी. वविषयोऽचित्तमहास्कन्धरूपः, नोजीवविषयः सप्तधा, "वेयण १ कसाय २ मरणे ३, वेउविय ४ तेउए य ५ आहारे ६ । केवलिए चेव भवे,जीवमणुस्साण सत्तेव ॥१॥'त्तिा। दृष्टिस्त्रिधा-मिथ्यात्वसास्वादनमिश्रभेदाव।१०।दर्शन-चारचक्षुरवधिकेवलभेदाचतुर्विधम्।११॥ज्ञान
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॥ दंडकपकरणम् ॥
मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदात् पञ्चधा ।१२। अत्र ज्ञानसाहचदिनुक्तमप्यज्ञानं ग्राह्यम् । तच्च विधा, मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानरूपम् । १३ । योगाः पञ्चदश, मनोयोगश्चतुर्धा वाग्योगचतुर्धा, औदारिको १ दारिकमिश्र २ वैक्रिय ३ वैक्रियमिश्रा ४ हारका५ हारकमिश्र ६ तैजसकार्मणरूप ७ सप्तधा काययोगभेदेन ।१४। उपयोगो द्विधा, तत्र ज्ञानाज्ञानभेदाष्टकरूपः साकारोपयोगः, चतुर्भेददर्शनरूपोऽनाकारोपयोगः,संयोगे द्वादश ।१६। एकसमये उत्पद्यमानानां च्यवमानानां सङ्ख्येति द्वारद्वयं ।१६।।१७। स्थितिरायुषो जघन्योत्कृष्टमानं ।१८। आहारादिग्रहणशक्तयः पर्याप्नयस्ताश्चषटू आहार १ शरीरे २ न्द्रिय ३ श्वासोच्छ्वास ४ भाषा ५ मनः ६ स्वरूपाः ।१९। के जीवाः कतिभ्यो दिग्भ्य आगतमाहारद्रव्यमाहारयन्तीति किमाहारद्वारं ।२०। विशिष्टाः संज्ञास्तिस्रः । यया त्रिकालमर्थ जानाति सा दीर्घकालिकी संज्ञा मनस्कानामेव १, यश्च देहपालनातोरिष्टवस्तुषु प्रवर्तते अहिताच्च निवर्तते वर्तः मानकालविषयं च चिन्तनं यस्य तस्य हेतुवादोपदेशसंज्ञा द्वीन्द्रियादीनामेव २, यश्च सम्यग्दृष्टिः क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तो यथाशक्ति रागादिनिग्रहपरस्तस्य दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा ३ ॥२१॥ गतिभंवान्तरगमनं ।२२। आगतिः परभवात. १२३॥ वेदश्च स्त्रीनपुंसकभेदात् ।२४। ॥३-४॥ अथैतानि द्वाराणि २४ दंडकेऽवतारयति
(टीका)--सखित्त० दिछी० गाथाद्वयस्य व्याख्यानं सुकरमपि तु पुनः किमपि क्रियते-मयेति कर्तृपदं बहिर्गम्य । संक्षिप्ततरा तु संग्रहणी इयं शरीरादिचतुर्विशतिद्वारात्मिका । तत्र शरीराणि पश्च औदारिकादीनि । शीर्यते इति शरीरः विनाशकारित्वात् ( विनाशित्वात् ) । पुंक्लोबलिङ्गः । अवगाहन्ते अवतिष्ठन्ते जीवा अस्यामिति अवगाहना । संहन्यन्ते दृढी क्रि
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॥ सावर्णिकं सटीकं च ॥
यन्ते शरीरपुद्रला. येन तत् अथवा संहन्यन्ते संहति. विशेष प्राप्यन्ते शरीरावस्थापयवा यैस्तानि संहननानि । तानि ( च ) वज्रर्षभनाराचादिभेदात् षोढा । संस्थान द्वेधा, जीवानां अजीवानां च । सतिष्ठन्ते प्राणिनोऽनेनाकारविशेषेणेति संस्थान तञ्च षोढा समचतुरनन्यग्रोधसादिवामनकुब्जहुंडभेदः संस्थानानि भवन्ति । द्वितीय तु अजीवानां रूपिणां पञ्चधा संस्थान यथा,-परिमण्डलं वृत्तं यत्रं चतुम्रमायतं च । इह तु जीवानां संस्थाने (न ) प्रयोजनमित्यर्थः । संज्ञाश्चतुर्धा दशधा वा भपन्ति । चत्वारः प्रकारा यासां ताः । अथवा दश प्रकारा या. सां ताः । यथा-आहारभयपरिग्रहमैथुनभेदाच्चतुर्धा । ( पूर्वोक्तभेदचतुष्क ) क्रोधमानमायालोभओघलोकभेदाच्चेति दश संज्ञाः स्युरित्यर्थः । तथा ग्रन्थान्तरोक्ताः सुखदुःखमोहधर्मरूपाश्चतस्रः एतास्वेवान्तर्भवन्ति इत्यर्थः ( अनया ) संजानातीति संज्ञा । कष्यन्ते हिंस्यन्ते प्राणिनोऽस्मि निति कषः संसारस्तस्यायो लामो येभ्यस्ते कषायाः क्रोधादयश्चत्वारोऽप्यनन्तानुबन्ध्यादिभेदेन षोडश भवन्ति । लेश्याः कृष्णाद्याः षोढा स्युः । लिश्यते -श्लिष्यते कर्मणा सह जीवः आभिरिति लेश्याः । यदुक्तं.. " कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामों य आत्मनः । स्फटिक.स्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ” ॥ १ ॥ कृष्णानीलकापो. ततेजःपद्मशुक्लरूपाः,परमत्र ता द्रव्यरूपा अवस्थिता विचार्या न भावरूपाः । इन्द्रियं श्रोत्रादिभेदात् पञ्चधा । दुसमुग्धायेति. बौ समुद्घातौ जीवाजीवसम्बन्धिनौ भवतः । तत्राचं जीवसमु. घातमाह-तथाहि-सम्यक् आत्मनो वेदनादिभिरेकीभावेन उ. स्प्राबल्येन घातः समुद्रातः । स च सप्तधा, यथा-वेदनाकषायमरणवैक्रियेत्यादि । वेदनादीनां षण्णां मानमन्तर्मुहूर्त स्यात् सप्तमस्तु केवलिसमुद्घातो दण्डादिना लोकव्यापी, दण्डादि क्रमेण सकललोकस्य पूरणात्, कालतोऽष्टसामयिकः । द्वितीयन्तु समुद्घातोऽचित्तमहास्कन्धरूपः; स च केवलिसमुद्घातवत् अ. टसामयिकः परमिहानधिकारान्नोक्तं । दिट्टी० दृष्टिविधा, यथा सम्यग्दृष्टिः १, मिथ्यावृष्टिः २, सम्यग्मिथ्यावृष्टिः ३ ( च ) ।
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...॥ देश्काकरण ।
(७)
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दर्शनानि चत्वारि भवन्ति; यथा-चक्षुदर्शनं अचक्षुदर्शनमधः धिदर्शन केवलदर्शन (च) घटपटीदिपदार्थसार्थसामान्याकारपरिक्षानं ज्ञातव्यं । पदार्थविशेषाकारपरिज्ञानं पुनशनि ज्ञातव्यम् । अयमेष ज्ञानदर्शनयो दः । पञ्च ज्ञानानि भवन्ति । यथा पञ्चभिरिन्द्रियैः षष्ठेन मनसा जीवस्य यत् ज्ञान स्यात् तन्मतिज्ञान । श्रतं द्विधा भवति । द्रव्यश्रुतं भाषश्रुतं च, यथा-द्रव्यश्रुतं द्वादशाजीरूपं, भावभुतं पादशाहीसमुत्पन्नोपयोग. रूपं । अबंधिज्ञानं द्विप्रकार-भवतुक श्राद्धसाधुतिरश्चों (गुण. हेतुकं ) च । मनःपर्यायज्ञानं साधती (वय) द्वीपसमुद्रस्थितसं. ज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोविषय विभेदं ऋजुमतिविपुलमतिरूपं साधूना. मेव भवति । केवलज्ञानं धनघातिकर्मचतुष्टयक्षयसमुत्पन्न सकललोकालोकविषयं । ज्ञानसाहचर्यादत्राप्यनु(धानुक्कमपि विधा. ऽज्ञानं, यथा-मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभाज्ञानं । सप्त द्वीपसमुद्रान् यावत् विभाज्ञानं तु पश्यति मिथ्यादृष्टीनामेव त्रीण्यज्ञानानि भवन्ति । एतत्सूत्रे नोक्तं बहिर्गम्यं । पाचां मनसां चाप्रती व. क्ष्यमाणाः प्रत्येक चतुर्धा (चत्वारो ) योगाः । तथा कायानां योगाः सप्तधा (सप्त सर्वमीलनेन पञ्चदश योगाः स्युरित्यर्थः। उपयोगो विधा-तत्र ज्ञानाज्ञानभेदाष्टकरूपाः साकारोपयोगाः (इतरे ) चस्वारः, यथा- चक्षुर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनम्पाः । संयोगे एवं द्वादश उपयोगाः स्युरित्यर्थः । उत्प. धन्ते ( पपत्तिः ) उपपातः । च्यवन्ते चेति (च्युतिः) यधनं । जीवानां उपपातच्यवनयोरिहापि सम्बन्धादुपपातस्यवनविषययोविरहकाललक्षण-अपान्तरालकाललक्षणमेकसमयसल्या चेदि गृघेते इत्यध्याहारः । तिष्ठन्ति नरकादिभवे शृङ्खलाबद्धा इव जन्तवः पाप(पुण्य)कर्मपरिणत्या स्थितिरायुर्जीवितमित्येकार्थाः। 'पजत्तिति' आहारादीनामंत्र निर्वृत्तिनिष्पतिर्यतो दलिकाद्-दलभूतात्पुलसमुहाद् भवति नस्य दलिकस्य तामेवाहाराघभिनिवृत्तिं स्वस्वविषयपरिणमनरूपां प्रति यत् करणं जीवसम्बन्धि. शक्तिरूपं सो पर्याप्तिः । ताच षोढा आहुः, यथा-आहारशरी. रेन्द्रियश्वासोच्छ्वासभाषामनःस्वरूपाः । किमाहारेत्ति० किमाहारकोऽनाहारको वा जीवः ? यहा किंस्वरूपः सचित्तादि
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॥ सावर्णिकं सटीकं च ॥
आहारकः १ केन वा शरीरेणाहारोऽस्येति किमाहारः ? । आह. रणं आहारः । सन्नीत्ति० विशिष्टा संज्ञास्तिनः । यया त्रिकाल. विषयमर्थ जानाति सा दीर्घकालिकी(क्ये)समनस्कानामेव । यथ स्वदेहपालनहेतोरिष्टवस्तुषु प्रवर्तते अहिताच निवर्तते वर्तमान. कालविषयं च चेतनं ज्ञानं यस्य तस्य हेतुवादोपदेशिकीसंज्ञा हीन्द्रियादीनामेव । यश्च सम्यग्दृष्टिः क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तो यथाशक्तिहेयोपादेयनिग्रहपरस्तस्य दृष्टिषादोपदेशिकीसंज्ञा छन. स्थसम्यग्दृशामेष इति संज्ञात्रिकमधमन्तव्यं । गमनं गतिः । आगमनमागतिः । अथ वेदत्रयमाह-पुंवेदः बीवेदः नपुंसकवेदः । प्रज्ञापनादिषु विस्तरेणाभिहिताः अर्थाः ततः संक्षिप्य गृह्यन्ते प्रतिपाद्यन्तेऽभिधीयन्ते वाऽस्यामिति ग्रहेरणिरित्यौणादिके अणिप्रत्यये डीप्रत्यये व सग्रहणोति निष्पन्नं । संक्षेपतो द्वार• गाथा यस्य व्याख्यानं कृतमित्यर्थः । अत्र चकारः समुच्चयार्थ: ॥ ३ ॥४॥
अथ चतुर्विशतिदण्डकेषु चतुर्विशतिद्वाराणि निरूपयन्नाहचउ गप्भतिरियवाउसु, मणुश्राणं पंच सेस तिसरीरा। थावर चउगे दुहयो, अंगुलअसंखभागतणू ॥ ५॥
( अव० ) 'दुव्बयणे बहुवयण' मिति प्राकृत लक्षणेन गर्भजतिर्यवाद्योश्चत्वारि शरीराणि सम्भवन्ति, सम्भवश्च न भवन्त्येवेति निश्चयः, एवं सर्वत्रापि ज्ञेयम् । आहारकत्यागेन कयोश्चितयोक्रियकरणेन चतुर्णी सम्भवः, मनुष्याणां पश्चापि । शेषा दण्डकास्त्रिशरीरा औदारिकयुक्ताभ्यां च तैजसकार्मणाभ्यां । १ । स्थावरचतुष्के पृयिव्यप्तेजोवायुरूपे 'दुहतोचि दाभ्यां प्रकाराभ्यां जघन्योत्कृष्टरूपाभ्यां अङ्गुलासंख्येयभागानि शरीराणि, यद्यपि बादराणां वातान्यपृथिवीनां शरीराणि मिथोङ्गुलासख्येयगुणवृद्धानि तथापि यथोक्तमानान्येव ॥ ५॥ ..
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.:-- ॥ दंडकपकरणम्
(९)
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(टीका)-चउगल्भेत्ति० गर्भज तिर्यग्वायोश्चत्वारि औदारिक· फैक्रियतजसकामणलक्षणानि शरीराणि भवन्ति भवन्तीय॑ध्या
हार । " दुग्धयणे बहुवयणमिति र प्राकृतलक्षणेन (द्वित्वेऽपि : बहुवचनं ) गभजतिर्यग्वाय्वोश्चत्वारि शरीराणि सम्भवन्ति, १. संभव एष न निश्चयेम । आहारकत्यागेन चैप्रियकरणेन च चतु. oणां संभवः। 'मणुआणं पञ्चेति' मनुष्याणां पञ्च औदारिकप्रियआहारकतैजसकामणलक्षणाः शरीराः स्युः । सेसेति शेषेषु दण्डकेषु त्रीणि शरीराणि भवन्ति, तान दण्डकान् विस्तरेणाहप्रयोदश देवानां सप्तपृथिवीभेदेनैकः नैर निकाणी सर्वमीलनेन चतुर्दश दण्डकाः जातास्तेषु यो वैक्रियतैजसकार्मणलक्षणाः शरीरा भवन्ति । तथा पृथिव्यप्तेजोबनस्पतीनां चत्वारः पञ्चमो बीन्द्रियाणां षष्ठस्वीन्द्रियाणां सर्वमीलनेन सप्त दण्डका जातास्तेषु त्रीणि औदारिकतजसकामणलक्षणानि भवन्ति । सर्वमीलने नैव विंशतिर्दण्डका जातास्तेषु श्रीणि शरीराणि भवन्ति इत्ययं भावः । प्रथम शरीरद्वारं व्याख्यातं । अथावगाहनाद्वारमाह, थावरे ति० वनस्पति मुक्त्वा स्थावरचतुष्केषु शरीरं द्विधा, यथा जघन्यतः उत्कृष्ट तश्चाङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणं शरीरं स्यात् , अगुलासंख्यातभागवपुर्मानं स्यादित्यर्थः, परं. जघन्यापेक्षया उत्कृष्टमसङ्ख्येयगुणमित्यर्थः ॥ ५ ॥ सव्वेसिपि जहन्ना, साहाविय अंगुलस्ससंखेलो। उक्कोस पणसयधणू, नेरइया सत्तहत्थ सुरा ॥६॥ (अव०)शेषाणां सर्वेषां विंशतिदण्डकजीवानां स्वाभाविकस्य मौलग्य शरीस्य जघन्यावगाहना अङ्गुलस्यासङ्ख्यातों भागः । उत्कृष्टतः पञ्चशतधनुरुच्चा नैरयिकाः, सुराः सप्तहस्तोच्चाः ॥ ६ ॥
(टीका)-सम्वेसिपि जहन्ने ति० पृथिव्यप्तेजोवायून स्थाघर. चतुष्कान संत्यज्य विहाय सर्वेषामपि विंशतिदण्डकानां स्वभा. घतो जघन्याङ्गुलासंख्यातभागतनुः स्यात् । सर्व निकृष्टं धपुर्मानं स्यादित्यर्थः । अथ उत्कृष्टदेहमानमाह उक्कोस पणसयेति.
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(१०)
॥ सावचूर्णिकं सटीकं च ॥
सप्तम्यां माघवत्याख्यायां नरकपृथिव्यां धनुःपञ्चशतप्रमाणवपुषः पञ्चशतकोदण्डशरीरमानाः नैरयिकाः जीवाः स्युः, स्युरित्यध्याहारः । ततोऽद्धों( (ो )ना ज्ञेया रत्नप्रभां यावत् । सौधर्मशान योर्देवानां तथा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्काणां तूच्चत्वं वपुः.. प्रमाणं उत्कृष्टतः सप्त हस्ताः ज्ञेयाः, सप्त रत्नयो भवन्ति इत्यशः, “बद्धमुच्टिरसौ रनिः" इति वचनात् ॥ ६ ॥ गब्भतिरि सहसजोयण,वणस्सई अहियजोयणसहस्सं । नरतेइंदि तिगाऊ, बेइंदिय जोयणे बार ॥७॥ जोयणमेगं चउरिं-दिदेहमुच्चत्तणं सुए भणिों । वेवियदेहं पुण, अंगुलसंख समारंभे ॥८॥
(अव०) गर्भजतिरश्चां मत्स्यादीनां योजनसहस्र, वनस्पतेः साधिकयोजनसहस्रं तवं तु पृथ्वीविकारः। नरास्त्रीन्द्रियाश्च त्रिगव्यूतोचाः । दीन्द्रिया 'जोयणे बारत्ति' द्वादशयोजनो छूपाः। चतुरिन्द्रियदेहमुच्चत्वेन योजनमेकं । श्रुते प्रज्ञापनादौ भणितमुक्तं प्रस्तावादाह-वैक्रियदेहं पुनः प्रारम्भेऽङ्गुलसङ्ख्यातभागमानं, उत्कृटं तु ' देवनरअहियलक्खंति' २द्वा० ॥ ८ ॥
(दीका)-गब्भतिरिसहसेतिक मत्स्योरगादयो गर्भजास्तिर्यञ्चः सहस्रयोजनमानाः सहस्रयोजनप्रमाणा भवन्ति भवन्तीत्यध्याहारः । वणस्सेति. प्रत्येकवनस्पतीनां सागगदिगता मनालादीनां शरीरं देहमान किञ्चिदधिकं योजन सहस्रमुच त्वं स्यात् । ननु शरीरमानं. उत्सेधांगुलेन समुद्रपद्मदादीनां प्रमाणांगुर योजनयोजनसहस्रावगाहत्वात् ता तप दानालापीनां तु. उत्सेधांगुलापेक्ष
यात्यन्तदैर्घ्यं स्यात् ? अत आह- उत्सेधार लयोजनसहस्रमाने · जल शये गोतीर्थादिस्थाने वनस्पतेः साधिक योजनसहस्रं, तदु
ज़ तुं पृथिवीविकार इत्यर्थः । नरतेइन्ति० श्रुते सिद्धारते नरा.' - णां मनुष्याणां त्रीन्द्रियाणा कर्णमृगालिकादीनां क्रोत्रिकं देहो
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॥ दंडकपकरणं ॥
चत्वं भणितं कथित अहतेति कर्तृपदं । गव्यूतित्रयमुञ्चत्वं शरीरमानेन नरत्रीन्द्रियो भवत इत्यर्थः । बेईदियेति. हीन्द्रियाणां शङ्खप्रभृतीनां द्वादशयोजनप्रमाण देहोश्चत्वं वपुर्मानं स्यादित्यर्थः ॥ ७ ॥ जोयणे ति० चतुरिन्द्रियाणां मक्षिकाभ्रमरदंशककंशारिशलभपतनवृश्चिकप्रमुखाणामुत्कृष्टतो योजनमेकं देहमानमुच्चत्वं भणितं कथितं । अत्र खण्डान्वयो ज्ञेयः, गाथात्रयेणावगाहनास्थरूपं व्याख्यातं । अथ पुनर्वैकियावगाहनामाह-वेउठिवयेति ,पुनक्रिय देहस्य प्रारम्भे जघन्यतोऽङगुलस्य संख्यांशः संख्येयभागं वपुर्भवति उत्तरवैक्रियशरीरापेक्षया । भवधारणीयं तु अगुलासंख्येयभाग प्रारम्भे ॥ ८ ॥
अथोत्कृष्टां वैक्रियाधगाहनामाहदेवनर अहियलक्खं, तिरियाणं नव य जोषणसयाई । दुगुणं तु नारयाणं, भणियं वेनवियसरीरं ॥ ९॥
(अव०) लब्धिक्रियशरीरिणो जीवतोऽन्तर्मुहर्चात तपरो न वैक्रियशरीरेऽवस्थानमस्ति । पुनरौदारिकशरीरस्य अवश्यं प्रतिपतेरिति ॥९॥
(टीका ) देवनरेति० असुरकुमारादिव्यन्तरज्योतिष्कसौधधर्माद्यच्युतावसानदेवानां च उत्कृष्टतः सहजशरीरग्रहणोत्तरकालं कार्य माश्रित्य विविधा मियत इति उत्तरवैक्रिया च पुनदेवानां उत्तर क्रियतनोर्योजनानां किञ्चिदधिकं लक्षं । तथा नराणां वैक्रियशरीरं किञ्चिदधिकं योजनलक्ष भणितं कथितं ।
वेयकानुत्तरेषु देवानामुत्तरवैक्रियतनुर्नास्ति, सामर्थ्य सनि कार्याभावात्तदकरणमित्यर्थः । तिरियेति०, अत्र तुशब्दः पुनरर्थे तिरश्चां उत्कृष्टा वैक्रियतनुषयोजनशतप्रमाणा भणिता । तु पुनः नैरयिकाणां स्वस्वाभाविकदेहादुत्तरवैक्रियशरीरं द्विगुण क्षेयं,
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(१२)
॥ सावचूर्णिकं सटीकं च ॥
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यथाऽऽधायां रत्नप्रभायां धनुःपञ्चदशकं हस्तद्वयं द्वादशांगुलप्रमाणं । ततो द्वितीयायां धनुष(नषि) एकत्रिंशद्धस्तमेकं । तृतीयायां द्वाषष्टि हस्तद्वयं । तुर्यायां धनुषः (षां) पञ्चविंशत्य. धिकं शतं । पञ्चम्यां पञ्चाशदधिकं शतद्वयं नैरयिकाणां देहमानमुञ्चत्वेन स्यात् । षष्ठयां नारकाणां धनुःपञ्चशतानि शरीरं स्यात् । पुनः सप्तम्यां नैरयिकाणामुच्चत्वेन धनुःसहस्रमेकं उत्तरवैक्रियदेहमान स्यादित्यर्थः । जघन्यतस्तु तदेव नारकाणां द्विविधाऽपि स्वाभाविक उत्तरवैक्रियश्च क्रमादंगुलासख्यातांशोऽऽङ्गुलसंख्यातांशश्च, जघन्पश्चोत्पत्तिसमय एव नान्यदा ॥ ९ ॥
अथ उत्तरवैक्रियशरीरमानमाहअंतमुहुर्त निरए,मुहुत्तचत्तारि तिरियमणुएसुं। देवेसु श्रद्धमासो, उक्कोस विउवणाकालो ॥१०॥
(अव०) इतिवचनसामर्थ्यात् अन्तर्मुहूर्तचतुष्टयं तेषां देशबन्ध इत्युच्यते सन्मतान्तरमित्यवसेयम् । तृतीयसंहननद्वारमाह ॥१०॥
टीका-अन्तमुहुत्तन्ति नरकस्थजीवानां वैकियशरीरस्यान्त. मुहूर्तमुत्कृष्टमानं भवति । तिर्यग्मनुष्ययोक्रियशरीरस्य चत्वारो मुहूर्ताः उत्कृष्टाः स्थितयो भवन्ति (तिर्भवति) इत्यध्याहारः । भवनपत्यादिसौधर्माद्यच्युतान्तदेवानां उत्कृष्टत: उत्तरवैक्रियवपु. षोऽर्द्धमासः काल: स्यात्। क्रिश्चिद्विशेषमाह-देवनैरयिकयोः स्वाभाविकवैक्रियदेह उत्तरवैक्रियदेहच स्यात्,च पुनः तिर्यग्नरयोकियदेह. (अस्वाभाविकः) स्यात्। वायोरस्वाभाविकं स्वाभाविकदेह स्यात् । केषाञ्चिन्मते औदारिकं वैक्रियं च, केषाञ्चिन्मते वैक्रियमेवेत्यनुयोगद्वारवृत्तौ प्रोक्तमित्यर्थः । पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिषु विकलेन्द्रियेषु च वैक्रियदेहा न स्युरिति भावः । देहशब्दः पुं. क्लीबत्वं (बः) । अवगाहनाद्वारं द्वितीयं प्ररूपितं ॥ १० ॥
अथ संहनन द्वारं तृतीयमाहथावरसुरनेरइया, अस्संघणा य विगलवहा।
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॥ दण्डकपकरणं ॥
(१३)
संघयणछक्कं गब्भय-नरतिरिएसुं मुणेयव्वं ॥ ११ ॥
(अव०)स्थावरमुरनैरयिकाः संहननरहिताः अस्थ्यभावादेव । चः समुच्चये किं समुच्चिनोति सैडान्तिकमतेन सुरा नारकाच प्रथमसंहननिनः विकलाः सेवार्ता इति अस्थिसम्बन्धमात्रसंहननवन्तः,गर्भजनरतिरश्चोः संहननषदकं ज्ञातव्यम् । ३ द्वा० ॥ ११ ॥ चतुर्थे मंज्ञाद्वारमाह
टीका-थावरसुरेति. पानां स्थावराणां, त्रयोदशदेवानां, सातपृथिवीभेदेनैकः नारकाणां सर्वमीलनेनैकोनविंशतिर्दण्डका जातास्तेषु दण्डकेषु षडपि महननानि न सन्ति न ज्ञातव्यानि इत्यर्थः । विकलेन्द्रियाणां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां संमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्नराणां च संहननं सेवार्त ज्ञातव्यम् । कार्म ग्रन्थिकास्तु संमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिरश्चां अपि षडप्याहुः। क्वचिदेकेन्द्रि. याणां सेवात देवानां च वर्षभनाराचमुक्त, तदोपचारिकं । तुशब्दार्थ अपिशब्दः, तु पुनः गर्भजतिर्यग्मनुष्ययोः षडपि संहननानि ज्ञातव्यानि । को भावः ? गर्भज तिर्यग्नरेषु षडपि मंहननान्याहुः विकलेऽवेक सेवात मन्येष्वेकोनविंशतिदण्डकेषु न संहननानि भवन्ति इत्यर्थः । अत्र चकारः समुच्चयार्थः ॥११॥
संहननद्वारं तृतीयं निगमयन्नथ संज्ञाद्वाराभिधित्सया चतुर्थ मझादवारं व्याख्यानयति--- सव्वेसिं चउ दह वा, सन्ना सव्वे सुरा य चउरंसा । नर तिरि छस्तंठाणा, हुंडा विगलिन्दिनेरइआ॥१२॥ (अव०)संज्ञा सर्वजीवानां चतस्रो दश वा, केषाश्चिन्नृणां षोडशापि परमल्पत्वान्न विवक्षितम । ४द्वा० । पञ्चमं संस्थानद्वारमाह- सर्वे मुराश्च भीमो भीमसेन इतिन्यायेन समचतुरस्र संस्थानाः। नरतियश्चौ षट् संस्थानौ विकलेन्द्रियनैरयिका हुण्डसंस्थानाः ॥१२॥ स्थिराणां षइविधसंस्थानराहित्येऽपि संस्थानानां आकारभेदत्वादेव एतच्छरीराकारानाह
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(१४)
॥ सावचूर्णिकं सटीकं च ॥
टीका--सव्वेसिं चउ दहेति० सर्वेषां चतुर्विशतिदण्डकजी. वानां आहारभयभैथुनपरिग्रहलक्षणाश्चतस्रः संज्ञाः स्युः । अथवा दश संज्ञाः स्युः यथा- पूर्वोक्ता तस्रः क्रोधमानमायालोभलोकआघलक्षणाः(णाश्चेति) संज्ञाः दश भवन्ति, भवन्तीत्यध्याहारः। चतुर्थ संज्ञाद्वारं व्याख्यातं । अथ पञ्चमं संस्थानहरं प्रोच्यते । सम्वे सुरेति भवनपत्यादिवैमानिकान्ता देवाः सर्वेऽपि समचतुरस्र संस्थानाः स्युः, समाश्चतस्रोऽनयश्चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवाः यत्र समा वा चत्वारोऽस्राः कोणाः यत्र ते (तत्) समचतुरस्राः (टे) गभजनरा गर्भतिर्यञ्चश्च तयोः समचतुरस्र. न्यग्रोधपरिमण्डल.सादिकुटज वामन हुण्डाख्यानि षड पि संस्थानानि भवन्ति । हुंडा वीति० विकले न्द्रियाणां नरयिकाणां स्थावराणां च हुण्डाख्य संस्थान स्यात् । हुण्डस्य किं लक्षणं स्यात् ? तदुच्यते । यथा- सर्वावयवेषु अलक्षण स्यात, शुभाकाररहित हुण्डं भवति इत्यर्थ । ननु चतुर्विशतिदण्डकानां षडपि संस्थानानि प्रोक्तानि, यदि स्थावराणां नानाविधध्वजर चिखुदखु. दार्धमर रा (आ)कारा वर्तन्ते तर्हि बहूनि संस्थानानि भवन्ति ! प्रोच्यते, अमी भेदा हुण्डान्तर्गता भवन्ति इत्यर्थः ॥ १२ ॥
हुण्डस्य भेदनाहनाणाविह धयसूइ, बुब्बुय वणवाउतेउअपकाया । पुढवामसूरचंदा-कारा संठाणओ भणिआ ॥३॥
(अव०) नानाविधं, १ ध्वजः पताका, २ सूची, ३ बुद्बुदाकाराणि क्रमेण वनस्पतिवायुतेजोऽप्कायशरीराणि । पृथ्वी अर्द्धममुराकारा भणिता भगवत्यादौ ॥ १३ ॥ षष्ठं कषायद्वारमाह
टीका-नाणाविहे ति० बनस्पतयो नानाविधसंस्थाना विचि. घसंस्थानाः भणिताः। च पुनः वायवो ध्वजसंस्थाना भणिताः । अग्नयः सूचिकलापसंस्थानाः भणिताः प्रोक्ताः । आप: स्तिबुकबिन्दुसंस्थानाः बुदबुदाकाराः भणिताः कथिताः पंपोटा इति लोकोक्तिः । पृथिव्यो मसूरचन्द्राकारा अर्धम उराकारा इत्यर्थः ।। १३ ॥
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॥ दण्डकप्रकरणं ॥
( १५ )
सव्वेवि चउकसाया, लेसछगं गभतिरियमणुएसुं । नारयतेवाऊ, विगला वेमाणिय तिलेसा ॥१४॥
(अव०) सर्वेपि जीवाः चतुष्कपायवन्तः । निष्कनायाच केचन मनुष्येषु । सप्तमं लेण्याद्वारमाह- लेय्यापट्कं गर्भज तिर्यग्मनुव्येषु नारकतेजोवायुविकला वैमानिकाय त्रिलेश्याः प्रथमद्वितीयोः पृथिव्योः कपोता । तृतीयस्यामुपरि कापोता अधो नीला । पंकायां नीला धूमायां नीला कृष्णा च । षष्ठीसप्तम्योः कृष्णा एवं | तथा सौधर्मेशानयोस्तेजः कल्पत्रये पद्मा लान्तकादिषु शुक्ला एवेति ।। १४ ।।
पञ्चमं संस्थानद्वारं संहरन् षष्ठं कायद्वारं प्ररूपयति || टीका 'सव्वैविचउ० इति केवमिद्धजीवान् मुक्त्वा चतुविशतिदण्डकानां जीवेषु चत्वारः वृषायाः भवन्ति । षष्ठं कषायद्वारं वर्णितं । अथ सप्तमं लेश्याद्वारं विवृणोति । लेसेति० गर्भज तिर्थग्मनुष्ययोर्लेश्याः षडप्याहुः । च पुनः नारयेति० नैरयिकानां तेजसां वायूनां विकलेन्द्रियाणा च. कृष्णाद्यास्तिस्रो लेश्या भवन्ति । वैमानिकानां देवानां तेजआद्यास्तिस्रो लेश्या भवन्ति, भवन्तीत्यध्याहारः || १४ ||
4
जोइसिय तेउलेसा, सेखा सव्वेवि हुंति चउलेसा ।
वयदारं सुगम, मणुआएं सत्त समुग्धाया ॥ १५ ॥ (अ) ज्योतिकाः केवलज लेश्यावन्तः । शेषाः सर्वेऽपि पृथिव्य छन पनिपतुय्या भवन्ति । तेजोलेश्यावतां केषादेवानां वने कित्कालं तल्लेश्यासम्भवः ॥ ७ ॥ इन्द्रियद्वारं सुगमम् | ८ | नवमं समुद्यतद्वारमाद - मनुष्येषु सप्त समुद्वात॥ १ सप्तसमुद्वायानां नामान्याह
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(१६)
॥ सावचूर्णिकं सटीक च ॥
टीका--जोइसियेति० तेजोलेश्याका ज्योनिष्काः भवन्ति । आद्यपदं व्याख्यातं । गाथाद्वितीयपादस्य व्याख्यानमाह-सेसा सव्वेवित्ति० शेषाः सर्वेऽपि चतुलेश्यावन्त: स्युः । को भावः । चतुर्दशदण्डकेषु चतस्रो लेश्याः भवन्ति । तद् विस्तरेणाहभवनपतीनां व्यन्तराणां च कृष्णा नोला कापोता तैजसी चेति चतस्रो लेश्याः स्युः । च पुनः पृथिव्यवनस्पतीनां कृष्णाचाच. तस्रो लेश्याः स्युः, अत्रापि विशेषमाह-परमाधार्मिकाणां कृष्णैव ज्योतिष्केषु आधकल्पद्विके च तेजोलेश्या । कल्पत्रिके सनत्कु मारादिके पालेश्या लान्तकादिषु चानुत्तरान्तेषु शुक्ललेश्या भवति भवति इत्यध्याहारः । सप्तमं लेश्याद्वारं निरूपितं । अथ अष्टम इन्द्रियद्वारं व्याख्यानयति-इंदियेति. इन्द्रियद्वारं सुगममपि वहिस्तः किमपि विशेषमाह-तत्र इन्द्रियाणि पञ्च श्रोत्रादीनि प्रसिद्धान्येव सामान्यतः, विशेषतः पुनस्तानि विधा द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि ( च ) । तत्र द्रव्येन्द्रियाणि पुद्. लद्रव्यरूपाणि भावेन्द्रियाणि लब्ध्युपयोगलक्षणानि, तत्र पुन व्येन्द्रियाणि निर्वृत्युपकरणभेदात् । विधा । निर्वृतिरपि द्विधा अन्तर्बहिश्च । तत्र श्रोत्रेन्द्रिस्यान्तमध्ये कदम्बपुष्पाकारदेहाथयवरूपा चक्षुषोर्मसूराकारा घ्राणयोरतिमुस पुष्पाकार' रसना. याः क्षुरप्राकारा स्पर्शेन्द्रियस्य च नानाकारा पिचित्रसंस्थाना निवृत्तिरस्ति इत्यर्थः । द्रव्येन्द्रियस्वरूपं प्रोक्तं, अथ भावेन्द्रि याणि लब्ध्युपयोगरूपाणि जीवस्य ज्ञानावरणादिकर्मक्षयोपश. मभावात् या शब्दग्रहणशक्ति: सा लब्धिः , येन पुनः शदादी. नां ग्रहणपरिणामः स उपयोगः, एतद्वयरूपाणि भावेन्द्रियाणि । द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रिययोः संस्थानं स्वरूपं च व्याख्यातं । अथ एषां पञ्चेन्द्रियाणां विषयमाह- श्रवणयोर्वादशयोजनविषयः स्यात्, द्वादशयोजनात् मेघादीनां शब्दग्रहणशक्तिरस्ति इत्यर्थः। च पुनः चक्षुषोः किञ्चिदधिकं एकं लक्ष विषयः स्यात, उत्कृटतः किञ्चिदधिकमेकं लक्ष दृष्टिप्रमरणं भवति इत्यर्थः, अत्र ज्ञातं विष्णुकुमारदृग्गोचरता । च पुनः घ्राणेन्द्रियस्य नव यो. जनानि यावत् विषयः स्यात्, नवयोजनात् विषयं गृह्णाति इ. त्यर्थः । पुनः उत्कृष्टतो रसनायाः नव योजनानि यायद्विषयः
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॥ दण्डकप्रकरणं ॥
( १७ )
स्यात, नवयोजमात्पुलरसमास्वादयतीत्यर्थः । यथा दूरतस्तितिडीरसाल क्षारादीन् दृष्ट्वा मुखे जलं समेति इति दृष्टातो ज्ञेयः । तथा स्पर्शेन्द्रियस्य नवयोजनानि यावत् विषयो भवति, स्वशरीरं प्रारभ्य नवयोजनप्रान्तं यावत् पुद्गलद्रव्यं स्पर्शेन्द्रियो गृहणाति इत्यर्थः । च पुनरेषां पञ्चानां विषयभेदं विवृणोति - श्रोत्रयोराकर्णनं श्रवणं त्रिधा भवति, यथा- शुभः अशुभः मिश्रश्च । अथवा जीवेभ्यो द्वीन्द्रियादिभ्यः, अजीवेभ्यः पटहादिभ्यो मिश्रेभ्यो भेर्यादिभ्यः, ( शब्दानामुत्पन्नानां ) कर्णयोराकर्णन त्रिविधं स्यात् । च पुनः चक्षुषोर्विलोकनभेदाः पञ्चधा भवन्ति, यथा-चक्षुषा पञ्च शुक्लपीतरक्तनीलकृष्णा वर्णा गृह्यन्ते, पञ्चवर्णा दृष्टिगोचरा भवन्ति इत्यर्थः । तथा घ्राणेन्द्रियस्य द्वौ सुगन्धदुर्गन्धविषयभेदौ भवतः, घ्राणेन्द्रियं सुगन्धदुर्गन्धे गृह्णाति इत्यर्थः, घ्राणविषये समभ्येत इत्यर्थः । रसना - याः पञ्च कटुकादिविषयदा भवन्ति । केऽपि पडण्याहुः, यथा कटुकतिक्तकषायाम्ल मधुरक्षारभेदात् । षण्णामपि रसानां स्वाद जिह्वा जानाति इत्यर्थः । तथा स्पर्शेन्द्रियस्याष्टौ सुकुमालादिविषयभेदा भवन्ति, यथा - सुकुमालकर्कश गुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षभेदात् स्पर्शेन्द्रियः स्पर्शन स्पर्श जानाति इत्यर्थः । पञ्चेन्द्रियाणां सर्व्वेऽपि त्रयोविंशनिर्विषयभेदा जाता इत्यर्थः । अथ श्रवणादीनामवगाहनामाह-चतुर्णां कर्णचक्षुर्धाणरसनानामङगुलासंख्येयभागावगाहना भवति । च पुनः स्पर्शेद्रियस्य स्वदेहप्रमाणावगाहना ज्ञातव्या । अथ केषामिन्द्रियाणां कामभोगेच्छा भवति तल्लक्षणमाह-श्रवणचक्षुषोः कामेच्छा भवति, च पुनः घ्राणरसनास्पर्शेन्द्रियाणा भोगेच्छा भवति, आद्यौ द्वौ कामिनौ ज्ञेयौ त्रयः प्रान्ताः भोगिनो ज्ञेया इत्यर्थः । अथ पषां पञ्चेन्द्रियाणां पुनरुपकरणं किं स्यात्तदाह- कर्णेन्द्रि यादीनां निजनिजविषयग्रहणशक्तिर्यथा चन्द्रहासस्य छेदनशतिरिव । इन्द्रियाणां सदृष्टान्तो विचारः प्रवचनसारोद्धारवृतितो भावनीयः । अष्टममिन्द्रियद्वारं व्याख्यातं । अथ नवमं समुद्वातद्वारं प्ररूपयांत - मणुपसु इति मनुष्ये सप्त समुद्रघाता भवन्ति ॥ १५ ॥
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(१८) ॥ सावचूर्णिकं सटीकं च ॥ वेयणकसायमरणे, वेउविय तेथए अ आहारे। केवलिय समुग्घाया, सत्त इमे हुंति सन्नीणं ॥१६॥
टीका-वेयणकसायेति० संज्ञिमनुष्याणाममी सप्त वेदनाकषायमरणादि(द्याः)समुद्घाता भवन्ति, भवन्तीत्यध्याहारः ॥१६॥ एगिदियाण केवल-तेउयाहारग विणा उ चत्तारि । ते विउवियवज्जा, विगला सन्नीण ते चेव ॥१७॥
टोका-- एगिन्दियाणेति. एकेन्द्रियाणां केवल तैजमआहारकान् विना- वर्जयित्वा चत्वागे वेदनाकषायमरण क्रियलक्षणा: समुद्घाता भवन्ति । तु पुनः वैक्रियवस्तेि पूर्वज्ञाः ( काः )। के ते ? केवलतैजस आहार कवै क्रियसमुद्घात वर्जा विकला भव न्ति, विकलानां त्रयो वेदनाकषायमरणरूपाः समुद्घाता भवन्तीत्यर्थः । संज्ञिनां ते सप्त समुदघाता भवन्ति । तुः पुनरर्थे । एव निश्चयार्थे । चः समुच्चयार्थे ॥ १७ ॥ पण गब्भतिरिसुरेसु, नारयवाउसु चउर तिय सेसे । विगल दुदिछी थावर, मिच्छत्ति सेस तिय दिही।१८।
(अव०) गर्भतिर्यकसुरयोः पञ्च, नारकवावोश्चन्वारः । शेषे स्थावरे विकले च त्रयः समुद्घाताः सर्वत्रानुक्रमेण ।९। दशमं दृष्टि द्वारमाह- विकलेषु दृष्टिद्विकं सम्यक्त्वमिथ्यात्वरूपं,स्थावरा मिथ्याविनः । शेषास्तिर्यकसुरनारकनरास्त्रिदृष्टयः सम्यमिथ्यात्वमिश्र सहिता भवन्ति १० ॥ १८ ॥ अथैकादशदर्शनद्वारमाह
टीका-पणगब्भेति, गर्भज तिर्यक्षु भवनपत्यादिवैमानिकान्तेषु देवेषु चाद्याः पञ्च समुदघाता भवन्ति । तत्राहारककेवलि समु. दुधाताभावात् । नारयेति. नैरयिकवायवोराद्याश्चत्वारः समुदघा
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॥ दंडकपकरणं ॥
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ता भवन्ति । तियसेसे इति०, शेषेषु त्रयः समुद्घाता भवन्ति । चकारात् चतुषु पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिषु विकलेन्द्रियेषु चाद्यास्त्रयः समुदघाता भवन्ति । अर्थात् सप्तदण्डकेषु त्रयः समुदघाता भवन्तीत्यर्थः । नवम समुदघातद्वारं व्याख्यातं । अथ द. शमं दृष्टिद्वारं कथ्यते । विगलेति० विकलेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु , दृष्टी भवतः, सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिश्चेत्यर्थः । स्थावराणामेका मिथ्यादृष्टि: स्यात् । सेसति शेषेषु दण्डकेषु तिम्रो दृष्टयो भवन्ति । सविस्तरेणाह-नैरयिकाणां भवनपत्यादिवैमानिकान्तानां देवानां मनुष्याणां गर्भज तिरश्चां च तिस्रो दृष्टयः प्राप्यन्ते । कोऽर्थः ? षोडशदण्डकेषु तिस्रो दृष्टयो भवन्तीत्यर्थः । दशमं दृष्टिद्वारं व्याख्यातं । चः समुच्चयार्थः ॥ १८ ॥
अथ एकादशं दर्शनद्वारमाहथावरबितिसु यचक्ख, चउरिदिसु तद्गं सुए भणियं मणुआ चउदंसणिणो, सेसेसु तिगं तिगंभणिअं ॥१९॥ __ (अव.) स्थावरद्धीन्द्रियत्रीन्द्रियेषु केवलमचक्षुर्दर्शनं, चतुरिन्द्रियेषु तद् द्विकं चक्षुरचक्षुरूपं श्रुते कर्मग्रन्थादौ णितं,मनुष्याश्वतुर्दशनिनः। शेषेषु सुरनारकतिर्यक्षु त्रिकं त्रिकं दर्शनस्य चक्षुरचक्षुरवधिरूपं ।११। ॥ ९॥ द्वारद्वयं समकमाह
टीका-थावर वितिसुक्तिः पञ्चसु स्थावरेषु द्वीन्द्रियेषु त्रीन्द्रि येषु च अचक्षुर्दर्शनमेकं भणितं प्रोक्तं श्रुते । चतुरिन्द्रियेषु तद्द्विकं भणितं तयोश्च चक्षुरचक्षुदर्शनयोढिकं तद्विकं । च पुनः मनुष्याः चतुर्दश निनो भवन्ति, मनुष्येषु चत्वारि चक्षुरचक्षुरव धिकेवलरूपाणि दर्शनानि भणितानीत्यर्थः । सेसेसु तिग तिगं. ति० शेषेषु दण्डकेषु त्रिकं त्रिकं भणितम् । नैरयिकेषु भवनप. त्यादिवैमानिकावसानेषु तिर्यक्षु चाद्यानि त्रीणि दर्शनानि भवन्ति, एतावता पञ्चदशदण्ड केषु त्रीणि आद्यानि दर्शनानि भषन्तीत्यर्थः । दर्शनद्वारं समुदीरितम् ॥ १९ ॥
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(२०)
॥सावर्णिकं सटीकं च ॥
अथ द्वादशं ज्ञानद्वारं व्याख्यानयतिअन्नाण नाण तिय तिय, सुरतिरिनिरए थिरे अनाणदुगं नाणन्नाणदु विगले, मणुए पण नाण ति अनाणा२०॥
(अव०) द्वन्द्वैकवद्भावात् सुरतियग्निरये ज्ञान त्रिकं ज्ञानत्रिकं च भवति सम्यत्तवप्राप्तौ स्थिरे ज्ञानद्विकं,यद्यपि भूदकवनेषु सडान्तिकमतेन सम्यत्तवं वमता देवानां तेषूपादे सास्वादनसद्भावाच्च श्रुनमती भवतः, पर नेहाधिकृते विकले ज्ञानाज्ञानयोटिवं,मनुष्येषु पश्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि भवन्ति ॥ २० ॥ चतुर्दशं योगद्वारमाह
टीका- अन्नाणनाणेति० मर्वेषु देवेषु तियक्षु नरयिथेषु च ज्ञानत्रिकं भवति, त्रीणि मतिज्ञानश्रुतज्ञानाधिज्ञानरूपाणि भव. सीत्यर्थः । च पुनः विकलेषु वित्रिचतुरिन्द्रियेषु ज्ञान द्विकं भ. पति, मतिज्ञानश्रतज्ञाने स्यातामित्यर्थः । च पुन: मनुष्येषु पञ्चज्ञानानि भवन्ति, मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यायज्ञान केवलज्ञानरूपाणि भवन्तीत्यर्थः । द्वादशं ज्ञानद्वार प्ररूपितम् । अथ गाथान्तभूतं प्रयोदशमशानद्वारं निरूप्यते-सर्वेषु देवेषु तिर्यक्षु नैरयिकेषु त्रीणि मत्यज्ञानश्रताज्ञान विभङ्गज्ञानरूपाणि अज्ञानानि भवन्ति । च पुनः स्थावरेषु अज्ञान द्विकं भवति, मत्यज्ञानं श्रताज्ञानं च स्यादित्यर्थः । पुनः विकलेषु अज्ञान हि कं भवति, मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं च स्यादित्यर्थः । मनुष्येषु मत्यज्ञानश्रता ज्ञानविभाज्ञानरूपाणि त्रीण्यज्ञानानि भवन्ति । ज्ञानद्वारान्तरज्ञा नदारमन्तभूतं तच्च प्रादुष्कृतं । अत्र चकार: समुच्चयार्थ: ॥२०॥
अज्ञानद्वारं संहरनथ चतुर्दशं योगद्वारमाहसच्चेअरमीसअसच्च-मोस मणवय विउव्विाहारे । उरलं मासा कम्मण, इय जोगा देसिया समए॥२१॥
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॥ दंडकपकरणम् ॥
(२१)
टीका-सच्चेअरेति० प्रथमः सत्यमनोयोगः १ । इतरो द्विती. योऽसत्यमनोयोगः २ । तृतीयो मिश्रमनोयोगः ३ । चतुर्थोऽस. त्यामृषामनोयोगः ४ । तथैव वचनस्यापि चत्वारो योगा क्षेयाः । नवम औदारिकयोगः ९ । दशम औदारिकमिश्रयोगः १० । एकादशो वैक्रिययोगः ११ । द्वादशो क्रियमिश्रयोगः १२ । त्रयोदश आहारकर्यगः १३ । चतुर्दश आहारकमिश्रयोगः १४ । प्रयाणामौदारिकादीनां प्रत्येक मिश्रशब्दः प्रयोज्यः। पञ्चदशस्तु तैजसकार्मणयोगः १५ । को भाव: ? मनोवचनयोरष्टौ योगाः कायस्य सप्त योगाश्च स्युः, सर्व पञ्चदश योगा शेगा इत्यर्थः । समये सिद्धान्ते भगवता इति योगा दर्शिता:, आगमे योगा: कथिता इत्यर्थः । कथमितीति किं ते पूर्वोक्ता एवेत्यर्थः ॥२१॥ . केषां कियन्तो योगा भवन्ति तदाहइकारस सुरनिरए, तिरिएसुं तेर पनर मणुएसुं । विगले चउ पण वाए, जोगतियं थावरे होइ ॥२२॥
(अब० ) औदारिकद्विकाहारकद्विकाभावात्सुरनिरययोर्विषये एकादश योगाः। तिर्यक्षु त्रयोदश केषांचिदै क्रियल ब्धिसम्भवेन तद्धिकसम्भवात् । पञ्चदश मनुष्येषु, विकले औदारिकद्विककार्मणान्तिमभाषारूपं योगचतुष्क, पश्च बाते औदारिकद्विकवैक्रियद्विककार्मणरूपं योगत्रिकं स्थावरचतुष्के भवति ॥ २२ ॥ पश्चदशमुप. योगद्वारमाह
टीका-इकारेति० भवनपन्यादिवैमानिकान्तेषु नैरयि केषु चौदारिकौदारिकमिश्राहारकाहारकमिश्रवर्जा एकादश योगा भवन्ति । ते के ? मनोवचनयोरष्टौ कायस्य त्रयो वैक्रियवैक्रिय. मिश्रतैजसकामणरूपाः योगाः स्युः । तथा तिर्यक्षु आहारकाहारकमिश्री विहाय अन्ये त्रयोदश योगा भवन्ति । च पुनः मनुज्येषु पञ्चदश पूर्वोक्ता योगा भवन्ति । च पुनः विकलेषु विधि
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(२२)
॥ सावचूर्णिकं सटीकं च ॥
चतुरिन्द्रियेषु असत्यवचनौदारिकौदारिकमिश्रतैजसकार्मणभेदाचत्वारो योगाः स्युः । च पुनः वायौ औदारिकौदारिकमिश्रवैक्रियवैक्रियमिश्रतैजसकामणलक्षणभेदात् पञ्च योगा भवन्ति । वायून वर्जयित्वा चतुषु स्थावरेषु औदारिकौदारिकमिश्रतैजस. कार्मणलक्षणाः प्रयो योगाः स्युः । योगद्वारं ब्याख्यातम् । अत्र चकारोऽध्याहारः ॥ २२ ॥
अथ पञ्चदशमुपयोगद्वारं व्याख्यानयतिति अनाण नाण पण चउ, दंसण बार जिअलक्ख
णुवओगा। इय बारस उवओगा, भणिया तेलुकदंसीहिं ॥२३॥
टीका-तिअनाणनाणेति०, त्रिलोकदर्शिभिर्वादश उपयोगाइति भणिताः । त्रयाणां लोकानां समाहारस्तत्रिलोकं, त्रिलोकं पश्यन्ति ते त्रिलोकदर्शिनस्तैः कथमितीति किं ते ? तानाह-मत्यज्ञान-Qताज्ञान-विभङ्गज्ञानरूपाणि त्रीण्यज्ञानानि तथा पञ्चज्ञानानि च प्रसिद्धानि, च पुनः चत्वारि चक्षुर वक्षुरवधिकेवलदर्श नलक्षणानि दशनानि, सर्वऽपि मिलिता द्वादश उपयोगा जाता भवन्ति, भवन्तीत्यध्याहारः तत्र ज्ञानानि विशेषार्थावगाहोनि । दर्शनानि तु सामान्यार्थावगाहीनि । एतेषां ( एते ) द्वादश जोय लक्षणानि, इति म्वरूपकथनम् । उपयोगा नाम्ने ति ज्ञात ध्याः ॥ २३ ॥
केषु केषु कति कति उपयोगा भवन्ति ? तानाहउवओगा मणुएसु, बारस नव निरयतिरियदेवेनु । विगलदुगे पण छकं, चउ रेदिसु थावरे तिअगं ॥२४॥
(अव० ) मनुष्येषु द्वादशोपयोगाः । अष्टौ साकाराश्चत्वारो निराकाराः,एत एव मनःपर्यायकेवलज्ञान केवलदर्शनरहिता नव नि
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॥ दण्डकप्रकरणम् ॥ (२३) रय तिर्यगदेवेषु, विकलद्रिके मति १ श्रुत २ मत्यज्ञान ३ शुताज्ञान४ अचक्षुदर्शनरूपाः पञ्चोपयोगाः । चतुरिन्द्रियेषु पञ्च पूर्वोक्ताः चक्षु. दर्शनसहिताः पट् उपयोगाः । स्थावरे त्रिकं.मत्यज्ञानश्रुताज्ञाना चक्षुर्दर्शनरूपम् ॥ २४ ॥ षोडशं सप्तदशं च संख्याद्वारमाह
टीका-उवओगा मेति० मनुष्येषु द्वादश उपयोगा भवन्ति । च पुनः नैर यि केषु तिर्यक्षु च भवनपत्यादिवैमानिकान्तेषु नध उपयोगा भवन्ति, त्रीण्यज्ञानानि आद्यानि त्रीणि ज्ञानानि केष. लदर्शनरहितानि त्रीणि दर्शनानि ज्ञेयानि. सर्वेऽपि मिलिता नव उपयोगा जाता इत्यर्थः । च पुनर्विकल द्विके द्वीन्द्रिये त्रीन्द्रिये च मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-मत्यज्ञाम-श्रुताज्ञान-अचक्षुदर्शनभेदात् पक्ष उपयोगा भवन्ति । तथा चतुरिन्द्रियेषु मतिज्ञानश्रतज्ञानमत्यज्ञानताज्ञानचक्षदर्शनाचक्षुर्दर्शनभेदात् षट् उपयोगा भवन्ति । पञ्चसु स्थावरेषु मत्यज्ञानश्रुताज्ञानअचक्षुदेशनभेदास्त्रय उपयोगा भवन्ति । उपयोगद्वारं व्याख्यातम् ।। २४ ॥
अथ षोडशमुपपाताख्यं सप्तदशं च्यवनाख्यं चेति द्वारवयं गाथयाऽऽह ( एकयैवाह )संखमसंखा समए, गब्भयतिरिविगलनारयसुरा या मणुआ नियमा संखा, वणणंता थावर असंखा ॥२५॥
(अव०) चतुर्दशरज्ज्वान्मकेऽपि लोके एकस्मिन् समये उत्पद्यमाना नियमेति पदं सर्वत्र ग्राह्य, तेन नियमानिश्चयेन गर्भजतियविकलनारकसुराश्च एको द्वौ त्रयो दश विंशतिर्यावत्सङ्ख्याता
असङ्ख्याता वा प्राप्यन्ते नत्वनन्ताः । मनुष्यास्तु नियमात्सङ्ख्याता एव । वनस्पतयोऽनन्ताः " निच्चमसंखो भागो अणंतजीवो चयइ एइ ” इतिवचनात् शेषाश्चत्वारः स्थावरा असङ्ख्याता एव न सङ्ख्याता न चानन्ताः ॥ २५ ।। प्रस्तावादाह
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॥ सावर्णिकं सटीकं च ॥
टीका-गर्भजतियञ्चो विकला द्वित्रिचतुरिन्द्रिया नैरयिका भवनपत्यादिवैमानिकान्ताश्चैकस्मिन् समये जघन्यत एको हो प्रयो वा उत्कृष्टतः संख्याता असंख्याता वोपपाते तथैव च्यवने च भवन्ति । को भावः ? एकस्मिन् समये उत्कृष्टतः संख्याता असं ख्याताश्च गर्भज तिर्यगादयः उत्पद्यन्ते च्यवन्ते चेत्यर्थः । विशेषमाह-केवलं सहस्रारादूर्ध्व सर्वत्र देवाः संख्याता उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च, यतस्तत्र मनुष्या एव यान्ति, आनतादिच्युता देव श्च नरेष्वागच्छन्ति अयं विशेषः । तथा एकस्मिन् समये एक दिसंख्यानां चीपपाते तथैव च्यवने क्षेया, अथवा नियमेति पदं सर्वत्र योज्यम् । सम्मूच्छिममनुष्या असंख्येया उत्पद्यन्ते ध्यवन्ते च । च पुनः घनस्पतिकायिका जीवाः स्वस्थानतः प्रतिसमयमनन्ता एवोत्पधन्ते । तथैव च्यवन्ते, यधस्मात् कारणात एकैकस्मादपि निगोदात् तदसंख्येयभागोऽनन्तजीवात्मको नित्यं च्यवते उद्वर्तते एति चोत्पद्यते । यदा तु परस्थानत उ. त्पद्यमानाश्चिन्त्यन्ते तदा संख्याता असंख्याता एवेत्यर्थः । अथ स्थाघराः पृथिव्याद्याः एकेन्द्रिया: स्वस्थानतः परस्थानतो वेत्यनपेक्ष्य सामान्यतः उत्पत्तौ चिन्त्यमानाः प्रत्येकमनुसमयमसंख्याता भवन्त्युत्पद्यन्ते तथैव असंख्याता एव च्यवन्ते, न पुनः समयाधन्तरेण नाप्येकाचाः संख्याताः ॥ २५ ॥ असैन्निनर असंखा, जह उववाए तहेव चवणे वि बावीससगतिदसवास-सहस्स उकिट्ठ पुढवाई ॥२६॥
(अव०) असंज्ञिनो नरा उत्पद्यमाना असख्याता लभ्यन्ते । अत्रैवातिदेशमाह- यथोपपातद्वारं सङख्यामाश्रित्य व्याख्यातमेवं च्यवनद्वारमप्यवसातव्यम, समानत्वादुपपातच्यवनयोः । अष्टादशं
आगरमाह- अग्रेस्थितमप्यायुरिति पदं सर्वत्रानुवर्तनीयम, तेन पृथि: गाः द्वाविंशतिवर्षसहस्राण्युत्कृष्टमायुरिति सर्वत्र योज्यम् । एवं उदकस्य सप्त वायोस्त्रीणि, वनस्पतेर्दशवर्षसहस्राणि ॥ २६॥
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॥ दण्डकप्रकरणम् ॥
(२५)
टीका-असन्नित्ति. असं शिनो मिथ्यादृष्टयः सर्वपर्याप्तिभिरपप्तिाश्च एवंविधा नरा असंख्याताः प्रादुर्भवन्ति तथैवासख्याता एष ध्ययन्ते-म्रियन्ते च । यथा उपपातो भवति तथव च्यवनमपि शेयमित्यर्थ: । अपिशब्दः समुच्चयोर्थः । उपपातच्यवनद्वारमभिधाय अथाष्टादशं स्थितिद्वारमाह- बावीर से ति० पृथिवी. कायजीवानां द्वाविंशतिवर्षसहस्रा उत्कृष्टा स्थिति: स्यात् । अ. थाप्कायस्थितिमाह- अप्कायस्य सप्तवर्षसहस्रा उत्कृष्टा आ. युःस्थितिमवति । अथ धायुकायस्य स्थितिमा- वायुकायस्य त्रयो वर्षसहस्रा उत्कृष्टा स्थितिः स्यात् । अथ बनस्पतिकाय. ज्योत्कृष्टां स्थितिमाह- वनस्पतीनां तरुगणानां उत्कृष्टा दशवर्षसहस्रा स्थितिर्भवति ॥ २६ ॥ तिदिणग्गि तिपल्लाऊ, नरतिरिसुरनिरयसागरातत्तीसा वंतरपल्लं जोइस, वरसलवखाहियं पलियं ॥ २७ ॥
( अव० ) अग्नेः त्रीणि दिनान्यायुः । गर्भजतिर्यग्नरा त्रिपल्यायुषो देवकुर्वादिषु सुरनारकाणां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ध्यन्तराणां पल्पोपमम, ज्योतिषां वर्षलक्षाधिकं पल्योपमम् ॥ २७ ॥ अमुराणामायुःस्थितिमाह
टीका-तिदिणग्गीति तेजस्कायस्य उत्कृष्टा स्थितिः त्रीणि दिनानि भवन्ति । स्थावराणां स्थिति प्ररूप्याथ मरतिरश्चाः स्थितिमाह-तिपहले ति० नरतिरथोत्रीणि पक्ष्योपमानि स्थिति. भवति । अथ सुरनैरयिकानां स्थितिमाह-सुरनैरयिक योस्रयस्त्रिं. शत्सागराणि उत्कृष्टा स्थितिर्भवति । अथ व्यन्तराणां स्थिति. माह-वन्तरेति० व्यन्तरदेवदेवीनां दशवर्षसहस्राणि जघन्या स्थितिः स्यात् । अथ उत्कृष्टां स्थितिमाह- व्यन्तरदेवानां पहयोपमं व्यस्तरदेवीनां तु पत्याई ज्योतिष्याणां चन्द्ररविग्रहनक्षत्राणां च वर्षाणां लक्षणाधिकं पल्योपममुत्कृष्टमायुर वगन्तव्यम्। एषां किञ्चिद्विवरणमाह-चन्द्राणां लक्षणाधिकं पल्योपममायुस्ततो रवीणां वर्षाणां सहस्राधिकं पत्योपमं ततो प्रहाणां पल्यापमं
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(२६)
॥सावचूर्णिकं सटीकं च ॥
ततो नक्षत्राणां पल्योपमार्द्ध ततस्तारकाणां पल्यस्य चतुर्थी भा. गः । एषां देवीनां स्थितिमाह-चन्द्रधिमानवासिदेवीनां पञ्चाशवर्षसहस्राधिक पल्याई तत: सूर्यदेवीनां पञ्चशतवर्षाधिकं प. ल्याई ततो ग्रहदेवीना पल्याद्धमेव नक्षत्रदेवीनां विशेषाधिकः पल्यस्य चतुर्थो भागः ततस्तारकदेवीनां किञ्चिदधिकः पल्यम्याष्टमो भागः । अथ ज्योतिष्काणां जघन्यां स्थितिमाह-चन्द्रा दिदेव देवीरूपाणां चतुर्णी युगलानां पल्यस्य चतुर्थो भागः प ऽचमके युगले तारकदेवदेवीरूपे पल्याष्टमो भागः ॥२७॥
असुराणां स्थितिमाहअसुराण अहियअयरं, देसूणदुपल्लयं नवनिकाए । बारस वासुणपणदिण, छम्मासुकिट्ट विगलाऊ ॥२८॥
(१०) असुराणां चमरादीनां कियताप्यधिकमतरं सागरोपम. शेषे निकायनवके देशोनपल्योपमट्रिकं दक्षिणदिशमाश्रित्य वयपल्योपमं उत्तरस्यां तु द्वे देशोनपल्योपमे । द्वीन्द्रियाणां बादशवर्षाणि । त्रीन्द्रियाणामेकोनपश्चाशद्दिनानि । चतुरिन्द्रियाणां षण्मासा उ. स्कृष्टामायुः । २८ । उक्तोत्कृष्टा स्थितिः । अथ जघन्यान्तामेवाह
टीका-असुराण अहियेति. असुराणां किञ्चिदधिकमेकमतर. मेकं सागरोपम मित्यर्थः । तत्र दाक्षिणात्यानाम सुराणामेकमतर. मौत्तराणां साधिकमतरमित्यर्थः । दाक्षिणात्यानां धरणेन्द्रादीनां नक निकायानां द्वितीयमई यस्य ..( द्वितीयस्याध यत्र ) तद् वयई सार्द्धपल्योपमा स्थितिर्भवति इत्यर्थः । तथा उत्तरदि. ग्वतिनां नवनिकायानां देशोने किञ्चिदने द्वे पल्योपमे भवतः। तरीतमशक्यं प्रभूतकालतरणीयत्वादतरं सागरोपमं । असुगणां स्थिति प्ररूप्य अथ विकलानां स्थितिं प्ररूपयति । बारसेति. विकलानां-द्वीन्द्रियाणां त्रीन्द्रियाणां चतुरिन्द्रियाणां च दादश वर्षाणि एकोनपञ्चाशद्दिनानि षण्मासाश्च क्रमेणोत्कृष्टा स्थिति. या ज्ञातव्या इत्यर्थः ॥ २८ ॥
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॥ दंडकपकरणं ॥
पृथिव्यादिदशपदानां जघन्यां स्थितिमाहपुढवाइदसपयाण, अंतमुहुत्तं जहन्नआउठिई। दससहसवरिसठिइआ, भवणाहिवनिरयवंतरिया॥२९॥
(अव०) स्थावरपंचकविकलत्रिकतिर्यकनराणामतर्मुहत्तै जघन्या. युः स्थितिः । भवनाधिपनरकव्यंतरा जघन्यतो दशसहस्रस्थितिका भवति . २९ ॥ अथ वैमानिकानामायुःस्थितिमाह ।
टीका-पुढवाइदसे तिः पञ्च स्थावरानयो विकलेन्द्रिया द्वौ मनुष्यतिर्यञ्चो सर्वाणि मीलितानि पृथिव्यादीनि दश पदानि जातानि । एतेषां पृथिव्यादिदशपदानामन्तर्मुहूर्त जघन्यमायुर्भवति । अथ भवनाधिपानां जघन्यस्थितिमाह- ससहसेति. -भवनाधिपानां नैरविकाणां व्यन्तराणां च दशवर्षसहस्राणि जध. न्या स्थिति:या ॥ २९ ॥
अथ वैमानिकानां स्थितिमाहवेमाणिजोइसिया, पल्लतयउंसआउआ हुंति । सुरनरतिरिनिरएसुं, छ पजत्ती थावरे चउगं ॥ ३०॥
( अव० ) वैमानिका ज्योतिषिकाच जघन्यतः क्रमेण एकपल्योपमाष्टभागायुषो भवन्ति । अथैकोनविंशतितम पर्याप्तिद्वारमाह । सुरनरतियनिरयेषु पर्याप्तेषु षट्पर्याप्तयो भवन्ति । स्थावरे आहारशरीरइंद्रियश्वासोवासरूपं पर्याप्तिचतुष्कं, अपर्याप्ता अपि जीवा पर्याप्तित्रयं समाप्यैव म्रियते नार्वाक् ॥ ३० ॥
टीका-वेमाणीति० वैमानिकानां जघन्य पल्योपममायुभवति । ज्योतिष्काणां च तदष्टांश आयुर्भवति । तस्य पल्यस्य अ. ष्टांशः पल्यस्याष्टांशोऽ( पल्याष्टांशोऽ ) ष्टमो भागो भवती.
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(२८)
॥सावचूर्णिकं सटीक च ॥
त्यर्थः । उत्कृष्टजघन्ययोः स्थितिमभिधाय अथैकोनविंशतितम पर्याप्तिहारमाह-सुरनरेतिक भवनपत्यादिवैमानिकान्तेषु सुरेषु नरेषु नै यिवेषु तिर्यक्ष च षडपि पर्याप्तयो भवन्ति । पञ्चसु स्थावरेषु आहारशरीरेन्द्रिय श्वासोच्छ्रवासभेदात् चतस्रः पर्यातयो भवन्ति ॥ ३० ॥
अथ विकलानां पर्याप्तिमाहविगले पंच पजत्ती, छदिसि आहार होइ सव्वेसिं । पणगाइपए भयणा, अह सन्नतियं भणिस्सामि ॥३१॥
( अव० ) पूर्वोक्तं पर्याप्तिचतुष्क भाषापर्याप्त्यधिकं विकले पर्याप्तिपनकम । अथ विंशतितममाहारबारमाह । सर्वेषां जीवानां पदिक्क आहारो भवति । सर्वे जीवा दिवषट्कस्थानाहारपुद्गलान् गृहन्तीति भावः । पञ्चदिक्कादिके आहारे भजना। यथा लोकात्वर्तिजीवानां पश्चदिक्कः । लोकनिष्कूटस्थानां त्रिचतुर्दिक्कः । एकविंश संज्ञाद्वारमाह । अथ संज्ञात्रिकं भणिष्यामि ॥ ३१॥
टीका-विगले पञ्चेति विकलानां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामा. हारशरीरेद्रयश्वासोच्छ्वासभाषाभेदात् पञ्च पर्याप्तया भवन्ति । पर्याप्तिद्वारं व्याख्यातं । अथ विंशतितममाहारद्वारं वि. वृणोति । छ दिसित्ति० षट्सु दिक्षु सर्वेषां संसारिणां जीवानां गत आहारो भवति । षड्भ्यो दिग्भ्यो जीवा आहारं गृति इत्यर्थः । लोकान्ते लोकप्रान्ते च पुन: लोककोणे लोकाटे ये जीवास्संति तेषां जीवानां पञ्चसु अथवा चतसृषु तिसृषु यथा संभवमाहारो भवति, पञ्चकाटि पदेषु भजना कोऽर्थः ? केचन जीवाः पञ्चसु दिक्षु गतान पुगलान केचन चतसृषु दिक्षु गतान् पुगलान केचन तिसृषु दिक्षु गतान पुदलान् आहारयन्ति इति भावः । किमाहारद्वारं व्याख्यातं । अथैकविंशतितमं संज्ञाद्वारं व्याख्यानयति । अहे ति० अथ संज्ञात्रिक भणियामि भणामी. त्यर्थः ॥ ३१ ॥
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॥ दण्डकमकरणं ॥
(२९)
चउविहसुरतिरिएसुं, निरएसु य दीहकालिगी सन्ना । विगले हेउवएसा, सन्नारहिया थिरा सव्वे ॥ ३२ ॥
( अव० ) चतुर्विधसुरतिर्यक्षु निरयेषु च दीर्घकालिकी संज्ञा । दीर्घौऽतीतानागतवर्त्तमानविषयः कालो ज्ञेयो यस्या इति व्युत्पत्तेः, विकले हेतूपदेशिकी संज्ञा । किञ्चिन्मनोज्ञानसहिता वर्तमानविषया संज्ञेत्यर्थः । विशिष्टैतत्संज्ञात्रयरहिताः सर्वे स्थिरा ज्ञेयाः ||३२||
टीका - चउविहेति० चतुर्विधसुरेषु तिर्यक्षु नैरयिकेषु च दी. कालिकसंज्ञा भवति । अत्र चकारः समुच्चयार्थः भवतीत्य ध्याहारः । यः पुरुषः दीर्घमपि कालं विषयमतीतमर्थ स्मरति भविष्यश्च वस्तु चिन्तयति । कथं नु नाम मया कर्तव्यमिति स दीर्घकालिक्युपदेशेन युक्तः । विकलेषु विकलेन्द्रियेषु हेतूपदेशिकी संज्ञा स्यात । यस्तु संविन्त्येष्टानिष्टेषु छायातपादिवस्तुषु स्वदेहपालन हेतोः प्रवृत्तिनिवृत्ती विधत्ते स हेतूपवादोपदेशेन युक्तः । सर्वे स्थावराः संज्ञारहिता भवन्ति । स्थावरेषु संज्ञा न भवन्तीत्यर्थः ॥ ३२ ॥
केषु केषु काः संज्ञा भवन्ति ? ता आहमाण दीहकालिय, दिट्ठीवाऊवइसिया केवि । पण पजतिरिमणुअच्चिय, चउविहदेवेसु गच्छेति ॥ ३३ ॥
( अ० ) मनुजानां दीर्घकालिकी संज्ञा । दृष्टिवादोपदेशिकी क्षायोपशमिकादिसम्यक्तसहिताः केऽपि । पञ्चेन्द्रिय तिर्यचोऽप्येत संज्ञायुक्ता भवन्ति । केचित् परमत्यत्वान्न विवक्षिताः, द्वाविंशं ग विद्वारं त्रयोविशमागतिद्वारं चाह । पर्याप्ताः पञ्चेन्द्रियाश्च तिर्यचो मनुजाश्चतुर्विधदेवषु गच्छन्ति । न शेषजीवाः । इति देवानामागति द्वारम् || ३३ || अथ देवानां गतिद्वारमाह
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(३०)
॥सावचूर्णिकं मटीकं च ॥
___टोका--मणुआणेति. मनुष्यामां सामान्यतः दीर्घकालिकीसंज्ञा भवति, विशेषस्तु केऽपि मनुजाः दृष्टिपादोपदे शिकाः स्युः । यस्तु सम्यग्दृटितोयथाशक्ति रागद्वेषादिरिपून पराभवति जयतीत्यर्थः, स दृष्टिवादोपदेशिक्या सम्यग्दृष्टिरेवेन्यर्थः । केऽ. पि पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चोऽपि एतत्संज्ञायुक्ता अपि, परमल्पत्यान्न विवक्षिः । सुखावबोधाय स्वामितया संज्ञात्रयं योजगति, यथा-धीन्द्रियादीनां अर्थात् सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियाणां च हेतू पदेशिकीसंज्ञा, गर्भजतिर्यग्नरसुरनारकाणां दीर्वकालिकीसंज्ञा, छमस्थसम्यग्दृशां मनुष्याणां केषाञ्चित् तिरश्चां च वृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा, तु पुनः मनुष्याणां दीर्घकालिकीसंज्ञा स्यात्, अतो मनुष्येषु वे दृष्टी भवत इत्यर्थः । पृथिव्याघेकेन्द्रियाणां घल्ल्यारोहणाधभिप्रायरूपा ओघसंहवेत्यर्थः । संज्ञाद्वारं प्ररूपितं । अथ द्वाविंशतितमं गतिद्वारमाह- पणपजेति. चतुर्विधदेवेषु पर्याप्तिभिः पूर्णाः गर्भजपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याच गच्छन्तियन्तीत्यर्थः । चतुर्विधदेवेषु संख्यातायुषो मनुष्यास्तेषां गमनं अत्र गमनं प्राप्तिः स्यादवादो भवतीत्यवसेयम् । देवानां गतिद्वारं समाप्तम् ॥ ३३ ॥
अथ देवानामागतिद्वारमाहसंखाउ पजपणिदि, तिरियनरेसु तहेव पजते । भूदगपत्तेयवणे, एएसुच्चिय सुरागमगं ॥३४॥
(अव० ) संख्यातायुःपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्नरेषु । तथैव प. प्तिाभूदकान्येकवने एतेष्वेव सुराणामागमनमुत्पादो भवति । इति सुरेषु गत्यागती नारकाणां गत्यागती आह ॥ ३४ ।'
टोका-संखाउ पजेति संख्यातायुष्षु पर्याप्तेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु तथा मनुष्येषु च तथैव पर्याप्तयोभू दकयोभूजलयोः प्रत्येक नापतौ च एतेष्वेव पञ्चस्वेवेत्यर्थः. सुराणामागतिराग. मनं भवति । सुराणामागतिद्वारं व्याख्यातं ॥ ३४ ।।
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|| दंडकप्रकरणम् ॥
पज्जत्तसंखगब्भय, तिरियनरा निरयसत्तगे जंति । निरयउवा एएसु, उप्पजंति न सेसेसु ॥ ३५ ॥
( ३१ )
( अव० ) पर्याप्त संख्यातायुषो गर्भजतिर्यग्नराः नरकसप्तके यांति 'असन्नि खलु पढम' मिति वचनात् असंज्ञिनोऽपि प्रथमां पृथिवीं यावद्यांत । परं तेषामिह नाधिकृतत्वात् । नरकादुडताथ जी - वा एतल्लक्षणेषु एतेष्वेव तिर्यङ्नेरपृत्पद्यते न शेषेषु जीयेषु । इति नारकगत्यागती ||३६|| अथ पृथ्व्यब्वनस्पतीनां गत्यागती आह
टीका पज्जत्तेति० पर्याप्ताः संख्यातायुषो गर्भजतिर्यचः सं. ख्यातायुषो नराश्च सप्तसु निरयेषु यान्ति - गच्छन्ति । “ असन्नी खलु पढमं " इति वचनात् असंज्ञिनोऽपि प्रथमां पृथिवीं यावत् यान्ति परं तेषां इहानधिकृतत्वात् नोक्तं । नैरयिकगतिद्वारं व्याख्यातं । अथ नैरयिकागतिद्वारं व्याख्यानयति । निरउत्ति० तथा निरयान्नरकात् उध्धृताश्च्युता जीवा एतेष्वेव संख्याताroy गर्भज तिर्यग्मनुष्येष्वप्युत्पद्यन्ते आयान्तीत्यर्थः शेषेभ्यो द्वाविंशतिद्वारेभ्यो नैरयिका जींवा न भवन्ति, एतेषु च नोत्पद्यन्ते नायान्तीत्यर्थः । नैरयिकागतिद्वारं प्ररूपितं ॥ ३५ ॥
अथ पृथिव्यवनस्पतिषु जीवानां गतिद्वारमाहपुढवी आउवणस्सइ, मज्झे नारयविवज्जिया जावा । सव्वे उववज्जंति, नियनियकम्माणमाणेणं ॥ ३६॥
(अव० ` पृथिव्यन्वनस्पतिकायमध्ये नारक विवर्जिताः सर्वे त्रयोविंशविदंडकस्था जीवा उत्पद्यते । निजनिजयथाकृतकारितानुमोदितकर्मणामनुमानेन । नजनिजेतिवदता सूत्रकृता स्वयं कृतं कर्म भुज्यते न परकृतमित्यावेदितम् । कर्मनुमानेनेति सत्कर्मणा शुभस्थाने असत्कर्मणाशुभस्थाने || ३६ || एतेषामेव गतिद्वारमाह ।
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(३२)
॥सावर्णिकं सटीकं च ॥
टीका पुढधीति. पृथिव्यवनस्पतीमां मध्ये नारकविवर्जिता इति, काऽर्थः-निरयजीवान विहाय अन्ये सर्वे प्रयोविंशतिद. पडकस जीवा निजनिजकर्मानुमानेन-निजशुभाशुभकर्मानुसारे. गात्पद्यन्ते प्रादुर्भवन्तीत्यर्थः । गतिवारं विवर्णितम् ॥ ३६ ॥
अथ पृथिव्यब्वनस्पतीनां त्रयाणामागतिहारमाहपुढवाइदसपएसुं, पुढवीआऊवणस्सई जंति । पुढवाइदसपएहि य, तेउवाउसु उववाश्रो ॥३७॥ (अव०)तस्यैव दंडकत्रयस्य जीवानां गतिबारमाह । पृथिव्यादिदशपदेषु अनुक्रमस्थितिषु पृथिव्यब्बनस्पतिजीवा यांति । न मारक. सुरेष्वित्यर्थः इति पृथ्व्यब्वनस्पतीनां गत्यागती। तेजोवायवोरागतिआरमाह। तेजोवाय्वोर्विषये पृथिव्यादिदशपदेभ्य एव उत्पद्यन्ते जीवाः ॥३७॥ अथ तेजोवास्वोर्गतिमह ___टीका-पुढवाइत्ति० पृथिव्यादिदशपदेषु- स्थावरविकलेन्द्रिय. तिर्यग्मनुष्येषु पृथिव्यवनस्पतयः- पृथिव्यवनस्पतिसत्कजीवा यान्ति गच्छन्तीत्ययः । पृथिव्यादिभ्यः दशपदेभ्यः जीवानां तेजोवायवोरुपपात उत्पतिर्भवति इत्यर्थः । त्रयाणां पृथिव्यवनस्पतीनामागतिवारं व्याख्यातम् ॥ ३७ ॥
अथ तेजोवाय्वोर्गतिद्वारमाहतेउवाउगमणं, पुढवीपमुहमि होइ पयनवगे। पुढवाइठाणदसगं, विगलाइतिथं तहिं जंती ॥३८॥
(अव० ) तेजोवायवोरागमनं पृथिवीप्रमुखे पदनवके भवति इति तेजोवायुगत्यागती । विकलेन्द्रिया पृथिव्यादिदशस्थानेभ्य एवोत्पते मृत्वा च तत्रैव यांति नान्यत्र । इति विकलगत्यागती 1३८ ।। अथ गर्भनतिर्यगमनुष्याणां गत्यागती आह ।
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|| दण्डकप्रकरणम् ॥
टीका - तेउवाऊ इत्ति० तेजोवाय्वोर्गमनं पृथिव्यादिनवपदेषु स्थावर विकलेन्द्रियतियक्षु तेजोवायुजीवानामुपपातः स्यात्, स्यादित्यध्याहारः । पृथिव्यादिनवपद सम्बन्धिनो (पु) जीवा (वेषु) (गच्छ) भवन्तीत्यर्थः । प्राकृतत्वात् द्विवचनं न स्यात् एकवचनं बहुवचनं च स्यात्, (तां), द्वयोस्तेजोवाय्वोर्गतिद्वारं कथितम् । अथ विकलानां गतिद्वारमाह-पुढवाइटाणेति० विकलेन्द्रियेषु पृथिव्यादिस्थानदशका जीवा यान्ति, स्थावरविकलेन्द्रियतिर्यग्मनुष्या गच्छन्ति इत्यर्थः । विकलानां गतिद्वारं व्याख्यातम् । अथ विकलानामागतिद्वारमाह-तेषु पृथिव्यादिस्थानदशकेषु विगलेति० द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियत्रिकं याति विकलेन्द्रियास्तेषु भवन्तीत्यर्थः विकलानामागतिद्वारं विवर्णितम् ॥ ३८ ॥
अथ गर्भजतिरश्रां गत्यागतिद्वारमाह
गमणागमणं गब्भय - तिरिआएं संयलजीवठाणेसुं । सव्वत्थ जंति मणुआ, तेउवाउहिं नो जंति ॥ ३९ ॥
(३३)
( अव० ) गर्भजतिर्यंचो मृत्वा चतुर्विंशतिदंडकेषु यांति । चतुर्विंशतिदंडकेभ्यश्वोत्प । इति गर्भजतिर्यगूगत्यागती । मनुजा मनुष्याः सर्वत्र यांति । सर्वत्रेतिवचनबलात् चतुर्विंशतिदंडकजीवेषु कालक्षेत्रसंहननसद्भावे च सिद्धावपि यांति | आयतश्च मनुजास्तेजोवायुवर्जितेभ्यो द्वाविंशतिदंडकेभ्यः समायति । इति समर्थिते सविस्तरं गत्यागतिद्वारे | अथ चतुर्विंशं वेदद्वारमाह ।
I
टीका- गमणेति सकलजीवस्थानेषु चतुर्विंशतिदण्डकेषु गर्भजतिरश्चां गमनागमने - गत्यागती भवतः । अथ मनुष्याणां गतिमाह - सर्वत्र चतुर्विंशतिदण्डकेषु मनुष्या यान्ति गच्छन्ति । अथ मनुष्याणां गतिद्वारं च्यते- द्वाविंशतिदण्डकेभ्यो उधृताश्च्युता जीबा मनुष्या भवन्ति, तेजोवायुभ्याम् च्युता जीवा मनुष्यत्वेन नोत्पद्यन्ते, न मनुष्या भवन्तीत्यर्थः । सूत्रपाठत्वात् अ वापि व्यस्तं प्रतिपादितं, अनुक्रमेण नोक्तमित्यर्थः । गत्यागतिद्वारे विवर्णिते ।। ३९ ।।
०
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(३४)
॥ सावचूर्णिकं सटीकं च ॥
अथ चतुविशतितमं वेदद्वारमाहवेयतिय तिरिनरेसु, इत्थी पुरिसो य चउविहसुरेसु । थिरविगलनारएसुं, नपुंसवेओ हवइ एगो ||४०||
(अव०) वेद त्रिकं तिर्यङनरेषु, स्त्रीवेदः पुरुषवेदश्च चतुर्विधसुस्वरविकलनारकेषु नपुंसकवेद एक एव भवति । अथ संक्षितसङ्ग्रहणीगाथाद्वयानुक्तमपि सोपयोगित्वात्किंचिज्जीवाल्पबहुत्वं दश्यते ॥ ४० ॥
·
टीका - वेअतियेति० तिर्यग्नरेषु पुरुषस्त्रीनपुंसकलक्षणा वेदा भवन्ति । तथा चतुर्विधसुरेषु श्रीपुरुषलक्षणौ वेदौ भवतः । च पुनः स्थावर विकलेन्द्रियनैरयिकेष्वेको नपुंसकलक्षणो वेदो भवति । अत्र चकारः समुच्चयार्थः । तत्र येन स्त्रियं प्रति अभिलाषः स्यात् स नरवेदः तृणदाहृतुल्यः । येन पुरुषं प्रति अभिलाषः स्यात् स खीवेदः करीषदाहतुल्यः । येन पुंखीविवये अभिलाषः स्यात् स नपुंसक वेदः नगरदाहतुल्यः । वेदद्वारं प्ररूपितम् ||४०|| अथ गाथाद्वयेनाल्पबहुत्वद्वारमाह
पजम बायरग्गी, वेमाणिकप्रभवणनिरयवंतरिया । जोइस चउपणतिरिया, बेइंदि तेइंदि भू आउ ॥४१॥ वाऊ वणस्सइच्चिय, अहिआ अहिया कमेणिमे हुंति सव्वेवि इमे भावा, जिणा ! मएऽयंतसो पत्ता ||४२ ॥
( अव० ) पज्जत्तिपदं बायरतिपदं च वदतः सूत्रकृतोऽयमाशय:, यदहं पर्याप्तबादरजीवविषयमेवा ल्पबहुवं वदिष्यामिनोऽ पर्याप्तसूक्ष्मविषयमिति । इह संसारे स्तोकाः पर्याप्तमनुष्याः । मनुष्येभ्यो बादराग्निजीवाः असंख्यातगुणाः । एभ्यो वैमानिका अ
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॥ दण्डकपकरणम् ॥
(३५)
संख्यातगुणाः । एभ्यो भवनपतयोऽमंख्यातगुणाः । एभ्यो नारका असंख्यातगुणाः । एभ्यो व्यंतरा असंख्यातगुणाः । एभ्यो ज्योतिष्काः संख्यातगुणाः । एभ्यश्चतुरिंद्रियाः संख्यातगुणाः । एभ्यो पंचेन्द्रियास्तियचो विशेषाधिकाः । एभ्यो हींद्रिया विशेषाधिकाः एभ्यस्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः । एभ्यः पृथ्वीकाया विशेषाधिकाः । ततोऽपुकाया विशेषाधिकाः। अप्कायिकेभ्यो वायुकायिका असंख्यातगुणाः । ततो वनस्पतयोऽनन्तगुणाः । संख्यातगुणेन असंख्यातगुणेन अनन्तगुणेन च यथासम्भवमिमे जीवाः क्रमेणाधिका भवन्ति । अथ ग्रन्थकारो जिमान् स्तौति । सर्वेऽपि च इमे पूर्वोक्ता भावाः तेषु तेषु जीवस्थानकेषु गमनागमनरूपा हे जिनाः मया भवे भ्रमता अनन्तशः अनन्तकृत्वः प्राप्ताः यथा मया तथाऽन्यैरपि जीवैः । एतेन स्वामिनः पुरः स्वदुःख निवेदितम् । अथ तद्विमोचनलक्षणां प्रार्थनामाह।
टीका- पन्जमणुइति० पजत्ति बायरत्ति पदं वदतः सूत्रकृतो. ऽयमाशयः-यदहं पर्याप्तबावरजीवविषयमेवाल्पत्वबहुत्वं वदिष्या. मि नापर्याप्तसूक्ष्म विषयमिति । इह संसारे सर्वजीवेभ्यः सर्वस्तोका: गर्भजमनुष्यास्तेभ्योबादराग्नयः पर्याप्ताः असंख्येयगुणाधि कास्तेभ्यो वैमानिका देवा असंख्येयगुणाधिकास्तेभ्यो भवनवा सिनो देवा असंख्येयगुणाधिकास्तेभ्यो नैरयिका असंख्येयगुणाधिकास्तेभ्योव्यन्तरा असंख्येयगुणाधिकास्तेभ्यो ज्योतिष्काः संख्येय गुणाधिकास्तेभ्यश्चतुरिन्द्रियाः पर्याप्ताः संख्येयगुणाधिकास्तेभ्यः संज्ञिनः पञ्चेन्द्रिया विशेषाधिकास्ततो द्वी. न्द्रिया विशेषाधिकास्ततस्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकास्तेभ्यः पृथवीकायिका जीवा असंख्यातगुणाधिकास्तेभ्योऽप्कायिका जीवा असंख्य गुणाधिकास्तेभ्यो वायुकायिका जीवा असंख्येयगुणाधिकास्तेभ्यो वनस्पतिकायिका जीवा अनन्तगुणाः क्रमेण इमे पूर्वोक्तपदार्थाः अधिका अधिका भवन्ति, मनुष्यादिवनस्प.
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॥ सावचूर्णिकं सटीकं च ॥
त्यवसानानू शब्दान् प्रति प्रत्येकं भवन्तीति क्रिया प्रयोज्येत्यर्थः । अत्र चकारः समुच्चयार्थः । घण्टालालान्यायेन पूवमग्रतः सर्वत्र अधिका भवन्ति च इति ग्रहणीयम्ल्पबहुत्वद्वारं समाप्तम् । अथ गाथोत्तरार्धेन ( दण्डकभ्रान्ति दर्शयति-) सर्वेऽपि च इमे पूर्वोक्ता भावाः पर्याप्तास्तेषु तेषु जीवस्थानेषु गमनागमनरूपाः है जिना ! मया भवे भ्रमता अनन्तशोऽनन्तकृत्वः प्राप्ताः । यथा म्या तथाऽन्यैरपि जीवैः । एतेन स्वामिनां पुरः स्वदुःखं निवेदितम् । अथ तबिमोचनलक्षणां प्रार्थनामाह-सव्वेवि इमे भावेति. हे जिना ! परमेष्ठिनो ! मया सर्वेऽपि इमे चतु. विशरि दण्डकभाषाः अनन्तशः प्राप्ताः अनन्तवारानू संप्राप्ता इत्यर्थः, अनन्तधारान् अनन्तशः ॥ ४१ ॥ ४२ ॥
संपइ तुम्ह भत्तस्स, दंडगपयभमणभग्गहियअस्स । दंडतियविरय(इ)सुलहं,लहुं मम दिंतु मुक्खपयं ॥४३
( अव० ) हे जिना इति पदं पूर्वस्थित मिहापि गृह्यते । तेन हे जिनाः ! सम्पति इह भवे भवतां भक्तस्य त्रिकरणशुद्धया भक्तिमतः । दण्डकपदेषु सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तरूपेषु भ्रमणं पुनः पुनगत्यागतिरूपं तस्माद्भग्नं निवृत्तं हृदयं मनो यस्य एवंविधस्य मम विज्ञप्तिकत्तुः । दण्डत्रिकात् मनोवाक्कायानर्थप्रवृत्तिरूपाद्विरतानां सुलभं सुप्रापं दण्डत्रिकविरतमुलभं मोक्षपदं लघु शीघ्रं भवन्तो ददतु वितरन्तु ॥ ४३ ॥ ग्रन्थकारः स्वनाम कथयति
टीका-सम्पइ तुम्हे ति० हे जिना ! हे परमेष्ठिनो भवन्तः सम्प्रति शीघ्रं मम मोक्षपदं-शिवपदं ददतु दिशन्तु दिन्तु इति क्रियापदं भवन्त इति कर्तृपदमध्याहार्य । अथवा प्रा. कृते हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते इतिवचनात् युष्मदर्थे अन्य. दर्थवानप्रवृत्तिरित्यर्थः । कथम्भूतं ? मोक्षपदं दण्डत्रिकविरति. मुलभं दण्ड्यन्ते सर्वस्वापहारेण लुप्यन्ते जन्तवः प्राणिन एभि. रिति दण्डाः मनोवाक्कायरूपा इत्यर्थस्तेषां त्रिकं दण्डत्रिक
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(३७)
|| दण्डकप्रकरणम् ॥
दण्डक
दण्डत्रिकस्य विरतिविरमणं दण्डत्रिक विरतिः त्रिकरित्या सुलभं सुप्रापं दण्डत्रिकविरतिसु भं किंभूतस्य मम भक्तस्य-भक्तिमतः केषां ? युष्माकं पुनः किंभूतस्य मम ? दण्डक पदभ्रमण भग्नहृदयस्य दण्डपदेषु सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तरूपेषु भ्रमणं पुनर्गत्यागतिरूपं तस्मात् भग्नहृदयस्य निवृत्तचित्तस्येत्यर्थः । दण्डकानां पदानि दण्डकपानि दण्डपदेषु भ्रमणं दण्डकपदभ्रमणं दण्डपदभ्रमणात् भग्नं- नि वृत्तं हृदयं चित्तं यस्य स दण्डकपदभ्रमण भग्नहृदयस्तस्य दण्डकपदभ्रमण भग्नहृदयस्य इति गाथार्थः ॥ ४३ ॥
सिरिजिणहं समुणीसर- रज्जे सिरिधवल चंदसीसेणं । गजसारेणं लिहिया, एसा विन्नत्ति अप्पहिया ॥ ४४ ॥
( अव० ) श्रीजिनहं समुनिनामानो ये श्री जिनसमुद्रसूरिपट्टप्रतिष्ठिताः मुनीश्वराः खरतरगच्छाधिपतयः । तेषां राज्यं गच्छाधिपत्यलक्षणं तस्मिन् विजये सैद्धान्तिकशिरोमणानां श्रीभवलचन्द्रगणीनां शिष्येण संविग्नपण्डिताभयोदयगणि लालितपालितेन गजसारगणिना नाम्ना साधुना । एषा विचारषट्त्रिंशिकारूपा श्रीतीर्थकृतां विज्ञप्तिलिखिते तिपदेनौडत्यं परिहृतं । यद्वा पूर्व यन्त्र पत्रतया लिखिता ततः सुगमतायै सूत्रतया गुम्फिता इत्यर्थः । किभूता आत्महिता अनेन " न भवति हि धर्मः श्रोतुः सर्व स्यैकान्ततो हिवश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥ १ ॥ इति सूक्तं स्थापितम् ॥ ४४ ॥
"
निधिमुनिशरेन्दु (१५७९ ) संवल्लिपीकृता पत्तनेऽवचूर्णिरियम् । संशोध्या धीमद्भिर्मत्वेदं बालचापल्यम् || १ ||
॥ श्रीगजसारमुनिप्रणिता स्त्रोपज्ञाऽवचूर्णिः समाप्ता ॥
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(३८) ॥ सावणिकं सटीकं च ॥
टीका- सिरिजिणेति. हे जिनाः ! जिनहंसमुनीश्वरराज्ये गजसारेण एषा विचारषत्रिंशिकाकरणरूपा विज्ञप्तिलिखिता । किंभूतेन गजसारेण ?-श्रीधषलचन्द्रशिष्येण श्रिया युक्तो धवल. चन्द्रः श्रीधवलचन्द्रस्तस्य शिष्यः श्रीधवलचन्द्रशिष्यस्तेन श्रीधवलचन्द्रशिष्येण, किंभूता विज्ञप्तिः ?-आत्महिता आत्मने हिता आत्महिता, परेषां बोधो भवतु वा मा भवतु परं वक्तुर्बोधो भवति, यदुक्तं-अस्तु वा माऽस्तु वा बोधः, परेषां कर्मयोगतः । तथापि वक्तुमहती, निर्जरा गदिता जिनैः ॥ १ ॥ ४४ ॥
अथ टीकाकारप्रशस्तिः-- (आर्या) श्रीहीरविजयसूरीश्वरा बभूवुर्जगत्त्रयीविदिताः । तवाचका महोदयराजः श्रीभानुचन्द्राहाः ॥ १ ॥ जयन्तु ते वाचकभानुचन्द्रा, अभ्यस्तसवाङ्मयवीततन्द्राः । ये मानसे हंसतया बभूवुरकब्बरक्षोणिपतेस्तु भूते: ॥ २ ॥ श्रीभानुचन्द्रामलपट्टचारुप्रासादगार्जुनकुम्भकल्पाः । ते सन्तु चारूदयचन्द्रसन्तः, सुखापनोः सूरिकलालसन्तः ॥३॥ सर्वार्थसार्थाकृतिकामधेन्वाः, यस्य प्रासादाद गुणचक्रधाम्नः । षट्त्रिंशिकायाः किल रूपचन्द्रो वृत्तिं चकारोदयचन्द्रशिष्यः ४ संवत्शरर्ण्यङ्गनिशेश १६७५ वर्षे, ज्येष्ठस्य कृष्णेतरचारुपक्षे । षष्ठयां तिथौ वाक्पतिवर्यवारे,स्वस्यावबोधाय विनिर्मितेयम् ५ अनुष्टुभ-ग्रन्थाग्रगणितं सर्व, संख्ययाऽत्र विनिश्चितम् ।
षट्त्रिंशदधिकं पश्च, शतं जातमनुष्टुभाम् ॥ ६ ॥
॥ श्रीरूपचन्द्रमुनिप्रणिता वृत्तिः समाप्ता ॥ sexsexexexeySPEAKeysexsex
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. ॥ समाप्तमिदं वृत्त्यवचूर्णिविभूषितम् ॥ ys ॥ श्रीदण्डकप्रकरणम् ॥
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श्री जैन ग्रन्थप्रकाशकसभानुं पुस्तक प्रसिद्धि खातुं
जैनधर्मना महान् तत्त्वज्ञानथी भरपूर
१ संबोधप्रकरण,
मुल्य रु, १-८० २ न्यायालोकवृत्ति (तत्त्वप्रभा) " ३ स्याहादबिन्दु.
२-०-० ४ जैनतत्त्वपरिक्षा
०-६० ५ स्तोत्रभानु.
०-४०
हालमां ज बहार पडयो छे.
६ नवतत्त्वविस्तरार्थः ५० फरमानु डेमीसाइझमां ३-०.० ७ दण्डकविस्तरार्थः २५ फरमानु डेमीसाइझमां १-८-०
मळ्वानु ठेकाणु:श्रीजैनग्रन्थप्रकाशक सभा. घीकांटा, शेठ जेशींगभाइनी वाडीमां जैन एडवोकेट प्रेस-अमदावाद.
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