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दंडकविस्तरार्थः॥ जीवोनी कंइक बुद्धिपूर्वक इष्टमां प्रवृत्ति अने अनिष्टथी निवृत्ति हो. वाथी ए जीवो अभिसंधिज हेतूपदेशिकी संज्ञावाला छे, पण मनः पर्याप्तियुक्त नहिं होवाथी संज्ञीवत् अति स्पष्ट बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति निवृत्तिवाला नथी छतां पण हेतूपदेशिकी संज्ञावडे द्वीन्द्रियादि जी. वो संबी अथवा मनवाळा गणायछे, ने एकेन्द्रियो ( हेतु वडे ) असंशि-मनविनाना गणाय छे. परन्तु शास्त्रव्यवहारमांतो हेतूप० संज्ञावडे संझी एवा दीन्द्रियादिकोने पण विशिष्ट मनोविज्ञानमां कारणरूप मनःपर्याप्तिना अभावे असंज्ञिज गण्या छे. पुनः ए हेतूप० संज्ञा वर्तमानकाळ विषयिक छ, पण भूत भविष्यना विचारथी विकल-(रहित ) छे, ते कारणथी जेम हेतूप० संज्ञावडे संज्ञि छतां पण अल्पधनवाळो धनवान् न कहवाय, अने अल्परूपवाळो रुपवान् न कहेवाय तेम द्वीन्द्रियादि जीवो हेतूप० संज्ञावडे अल्प वि. चारवाळा छतां संज्ञि न कहेवाय.
तथा मनःपर्याप्तिद्वारा मनोवर्गणा ग्रहणे करी मनपणे परिणमान्याधी विशिष्ट मनोविज्ञान लब्धिवडे अतिव्यक्त अने त्रणे काळनी विचारशक्ति ते दीर्घकालिकी संज्ञा मनःपर्याप्त जीवने एटले गर्भज पर्या० तियेच गर्भज पर्या० मनुष्य सर्व देव अने सर्व नारक ने होय छे. शास्त्रमा संज्ञि असंज्ञिपणानो व्यवहार आ दीर्घकालिकी संज्ञाने अगेज प्रवर्ते छे, कारणके जे जीवो दीर्घका० संज्ञावाला होय ते संनि अने दीर्घका० संज्ञा विनानां जे जीवो होय ते सर्व असंज्ञि कहेवाय छे.
तथा दृष्टि-सम्यकदर्शनादि संबंधि वाद-कथन तेना उपदेश-अपेक्षावडे जे संज्ञा ते दृष्टिवादोपदेश संज्ञा. अर्थात् दृष्टिवादना एटले श्रुतज्ञानना उपदेशवडे-क्षयोपशमवडे जे सम्यगज्ञान ते दृष्टिवादोपदेश संज्ञा. तात्पर्य एछे के क्षयोपशमजन्य सम्मान