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________________ (७०) ॥ दंडकविस्तरार्थः ।। ॥ शब्दार्थः ॥ सव्वेसिं-सर्वे दंडकोने चउरंसा-समचतुरस्र संस्थानवाला चउ-चार नर-मनुष्य तिरि-तिर्यच वा-अथवा छ-छ (६) सन्ना-संज्ञाओ संठाणा-संस्थानवाळा सबवे सर्व हुंडा-हुंडक संस्थानवाळा मुरा-देव विगलिंदि-विकलेन्द्रिय य-अने नेरइया-नारको गाथार्थ:-सर्व दंडकने (-जीवोने ) ४ अथवा १० संज्ञा होय छे, अने सर्व देवो समचतुरस्त्र संस्थानवाला छे. मनुष्य अने तियेची ६ संस्थान वाळा, अने विकलेन्द्रिय तथा नारको हुंडक संस्थान वाला छे.. विस्तरार्थ:--आ गाथामां संज्ञाधार तथा संस्थान हार कहेवाय छे. सब्वेसिं चउ दह वा सना-सर्व दंडकोमा चार अथवा १० संज्ञा होय छे. अहिं गर्भन मनुष्य सिवाय २३ दंडकमां प्रा. वेला सर्व संसारी जीव मात्रने ४ के १० संज्ञा होय छे, पण गर्भ ज मनुष्यमां दरेक गर्भन मनुष्यने ज्यां सुधी मोहनीय कर्मनो उदय छे, त्यां सुधी सर्व दशे संज्ञाओ होय, अने मोहनीयनो उपशम वा क्षय थतां वीतरागी जीवने फक्त वेदनीयजन्य, अथवा सर्वज्ञने आहारसंज्ञा पण न होय आहारसंज्ञा होय. सम्वे सुरा य चउरंसा-सर्व देवो समचतुरस्र संस्थानवाला छे, ए मूळ वैक्रिय शरी नी अपेक्षाए तेमन उत्तर वैक्रियनी अ. पेक्षाए पण समचतु० कर्मनो उदय होबाथी अन्य संस्थानवाळे
SR No.022358
Book TitleDandak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajasarmuni, Vijayodaysuri
PublisherGranth Prakashak Sabha
Publication Year1925
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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