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|| संघयणद्वारवर्णनम् ॥
( ६९ ) गेरे द्वीन्द्रियोनुं शरीर हाड विनानुं छे, तथा केटलाएक त्रीन्द्रियोने तथा केटलाएक चतुरिन्द्रिय जीवोने हाडनो संभव छे, पण स्पष्ट रीते ओळखातां नहि होवाथी नाम आपत्रां अशक्य छे, माटे ए प्रमाणे जे जे विकलेन्द्रियाने हाड होय ते ते विकलेन्द्रियोने संघयण होय, ने बीजाने न होय, तेमां पण ए जीवोने मात्र छेदस्पृष्ट संघयणज होय छे, कारण तेओना हाडना बे छेडा संधिस्थाने मळेला होय छे, अथवा जेओने एकज आखुं हाडकुं पण ककडा न होय तो प
(सेवा वडे करीने पीडायलं ए अर्थने अनुसारे ) सेवा संघ - यण ज होय (अहिं छेदस्पृष्ट अने सेवा बन्ने नाम छेवडा संघयणनां छे. ) संघयण छगं गन्भयनर तिरिएसु वि मुणेयवं - गर्भज मनुष्यने अने तिर्यचोने ६ संघयण होय परन्तु एक जीवने एकसंघयण होय छे. माटे अनेक गर्भज मनुष्य वा तिर्यचनी अपेक्षre ६ संघयण हो शके. अहिं कोइपण गर्भ० मनुष्य वा कोइ पण गर्भज तिर्यच संघयण विनानो होय नहिं,
तथा दंडकमा अनधिकारी सम्मू० तिर्यच अने सम्मू० मनुष्यने दरेकने सेवा संघयण श्री जीवाभिगमजीमां कह्युं छे. •(0)<
अवतरण - आ गाथाना हेला चरणमां सर्व दंडकोने विवे संज्ञा कहेवाय छे, अने शेष त्रण चरणमां संस्थान कहेवाय छे.
॥ मूळ गाथा १२ मी ॥
सव्वेसिं चउ दह वा, सन्ना सव्वे सुरा य चउरंसा । नरतिरि छ स्संठाणा, हुंडा विगलिंदि नेरइया ॥१२॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥
सर्वेषां चत्वारि दश वा संज्ञाः सर्वे सुराश्च चतुरस्त्रा: (रंशाः) नरतिर्यचः पत्र संस्थाना - हुंडकाः विकलेन्द्रियनैरयिकाः ॥ १२ ॥