SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६८) ॥ दंडकविस्तरार्थः॥ छगं-छ ॥ शब्दार्थः ॥ थावर-स्थावर छेवट्ठा सेवा संघयण वाळा संघयण-संघयण नेरइया-नारक असंघयणा-संघयण रहित । गप्भय-गर्भज य-अने नर-मनुष्य विगल-विकलेन्द्रियो तिरिएसु-तिर्यंचमां मुणेयव्यं-जाणवां गाथार्थ:-स्थावर-देव-अने नारको संघयण रहित छे, अ. ने विकलेन्द्रियो सेवा संघयणवाळा छे, अने गर्भज मनुष्य तथा तिर्यंचोने छ ए संघयण जाणवां - विस्तरार्थ:-हवे आ गाथामा २४ दंडके संघयणद्वार कहेवाय छे. थावरसुरनेरच्या असंघयणा--स्थावरना ५ दंडक, देवना १३ दंडक, अने नारकनो १ दंडक ए प्रमाणे १९ दंडक संघयण विनाना छे, कारणके देवोने नारकोने अने स्थावरोने हा. डकां होय नहो, अने हाडकां न होय तो हाडकांनी रचनारूप सं. घयण पण क्याथी'होय? __ य विगलछेवट्ठा--चळी विकलेन्द्रियो छेदस्पृष्ठ संघयणवाळा होय छे, अहिं द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-ने चतुरिन्द्रिय जीवोमा केटलाएकने हाडकांनो संभव छे, जेमके शंख-कोडा चंदनक इत्यादि द्वीन्द्रियोनुं शरीर हाड अने मांसयुक्त छे, शेष अळसीयां वि १ श्री जीवाभिगममां देवीने पण वर्षभसंघयणवाळा, अने एकेन्द्रियोने छेदस्पृष्ट संघयणवाळा कह्या छे ते शक्तिनी भपेक्षाए पण हाड रचनानी अपेक्षाए नहिं. अने त्यांज नार. कने असंघयणी कया छे.
SR No.022358
Book TitleDandak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajasarmuni, Vijayodaysuri
PublisherGranth Prakashak Sabha
Publication Year1925
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy