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॥ दंडकविस्तरार्थः॥
छगं-छ
॥ शब्दार्थः ॥ थावर-स्थावर
छेवट्ठा सेवा संघयण वाळा
संघयण-संघयण नेरइया-नारक असंघयणा-संघयण रहित । गप्भय-गर्भज य-अने
नर-मनुष्य विगल-विकलेन्द्रियो तिरिएसु-तिर्यंचमां
मुणेयव्यं-जाणवां गाथार्थ:-स्थावर-देव-अने नारको संघयण रहित छे, अ. ने विकलेन्द्रियो सेवा संघयणवाळा छे, अने गर्भज मनुष्य तथा तिर्यंचोने छ ए संघयण जाणवां - विस्तरार्थ:-हवे आ गाथामा २४ दंडके संघयणद्वार कहेवाय छे.
थावरसुरनेरच्या असंघयणा--स्थावरना ५ दंडक, देवना १३ दंडक, अने नारकनो १ दंडक ए प्रमाणे १९ दंडक संघयण विनाना छे, कारणके देवोने नारकोने अने स्थावरोने हा. डकां होय नहो, अने हाडकां न होय तो हाडकांनी रचनारूप सं. घयण पण क्याथी'होय?
__ य विगलछेवट्ठा--चळी विकलेन्द्रियो छेदस्पृष्ठ संघयणवाळा होय छे, अहिं द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-ने चतुरिन्द्रिय जीवोमा केटलाएकने हाडकांनो संभव छे, जेमके शंख-कोडा चंदनक इत्यादि द्वीन्द्रियोनुं शरीर हाड अने मांसयुक्त छे, शेष अळसीयां वि
१ श्री जीवाभिगममां देवीने पण वर्षभसंघयणवाळा, अने एकेन्द्रियोने छेदस्पृष्ट संघयणवाळा कह्या छे ते शक्तिनी भपेक्षाए पण हाड रचनानी अपेक्षाए नहिं. अने त्यांज नार. कने असंघयणी कया छे.