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॥ दंडकेषु गत्यागतिद्वारम् ॥ (१३५)
॥संस्कृतानुवादः॥ गमनागमनं गर्भजतिरश्चां सकलजीवस्थानेषु सर्वत्र यान्ति मनुजास्तेजोवायुभ्यां नो यान्ति ॥ ३९ ॥
॥शब्दार्थः॥ गमण-गति- जQ
सम्बत्य-सर्व स्थानके आगमण-आवq
जति-जाय छे, गम्भय गर्भज
मणु-मनुष्यो तिरियाण-तिर्यंचोन तेउ-अग्निकायमांथी सयल-सकल-सर्व
वाऊहिं-वायुकायमांधी जीवठाणेसु-जीवस्थानोमां
नो-नथी (जीवभेदोमां) । जंति-जाय छे
गाथार्थ:-गर्भन तिर्यंचोनी गति आगति सर्व जीवभेदोमा होय छे, (ग. तिर्यचो सर्व जीवभेदोमां जाय छे ), मनुष्यो सर्वे जोवभेदोमां जाय छे, ( अने सर्व जीवभेदोमांथी आवे छे परन्तु ) अग्नि अने वायुपांथी जता ( आवना ) नथी.
विस्तरार्थः-गभंज तिर्यंचोनी गति ने आगति सर्व जीव स्थानोमांछे एटले गर्भज तिर्यंचो सर्व दंडकमां उपजे छे, अने ग० ति० मां पण सर्व दंडकना जीव आवी उपजे छे. तोपण विशेष जीवभेदने आश्रयि ग० तियेचनी गति आ प्रमाणे
पर्या० ग० जलचर-आनतादि १८देवलोक सिवायना५२७ जीवभेदमां उत्पन्न थाय छे.
पर्या० ग० उरपरिसर्प-अर्चना 'ट देवलोक तथा ६-७ पृ. थ्वीना नारक सिवाय ५२३ भेदमां.