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|| दंडकविस्तरार्थः ।
पुनः आ मनः पर्यव ज्ञान जो के अध्यवसायनी निर्मलताथी थाय छे. पण तथाप्रकारनी जगत्मर्यादाए ए अध्यवसायो द्रव्यभावमुनिलिंगधारीनेज आवी शकेळे माटे ए ज्ञान मुनिवेष सिवाय बीजा गृहस्थादि वेषमां होतुं नथी माटे तिर्यचादि १५ दंडकमाँ मुनिलिंगपूर्वक अध्य वसायी तथाप्रकारनी निर्मलताना अभावे अप्रमत्तादिपणानो अभाव होवाथी चारित्रप्रत्ययिक मनः पर्यवज्ञान होतुं नथी, अने भावचारित्रना अभावे केवळ ज्ञाननो अभाव होवाथी केवळ ज्ञान अने केवळदर्शन पण होय नहि माटे तिर्यचादि ९५ दंडकमां ए बेउपयोगनो पण अभाव छे तथा ए९ उपयोग पण अनेक तिर्यंचपंचेन्द्रिय अनेक देव अने अनेक नारकनी अपेक्षाए कला छे. पण दरेक तिर्यपंचेन्द्रियादिने लब्धिभावे समकाळे न होय माटे एकतिर्यंचने या १ देवने वा १ नारकने केटला उपयोग होय ते पूर्वोक्त पद्धतिए स्वयं विचारवा.
विगलदुगे पण - विकलद्विक एटले द्वीन्द्रियने तथा त्रीन्द्रियने मतिज्ञान मतिअज्ञान - श्रुतज्ञान - श्रुतअज्ञान - ने अचक्षुदर्शन ए ५ उपयोग के तेमां पूर्वभवे उपशम सम्यकत्व वमीने सास्वादन सम्यक्त्व किंचित् शेष रहेतां मरण पामी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियपणे उ स्पन्न थयेला जीवोने अपर्या० अवस्थामा अन्तर्मु० मात्र वे ज्ञान ने अचक्षु० द० सहित ३ उपयोग होय ने त्यारबाद ते तथा अन्य सर्व द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय जीवोने सदाकाळ वे अज्ञान ने अचक्षुदर्शनरूप ३ उपयोग होय .
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छक्कं चउरिंदिसु - चतुरिन्द्रियजीवोने चक्षुदर्शनसहित ६ उपयोग होय शेष सर्वभावना द्वीन्द्रियवत जाणवी.
थावरे तिथगं - स्थावरना ५ दंडकमां मति अज्ञान श्रुतअज्ञान -ने अचक्षुदर्शन ए ३ उपयोग छे, कर्मग्रन्थकारमते पूर्वे ज्ञानाज्ञान