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॥ पं०पवि०णि प्रणीतम् ॥
एक अचक्षु यावर बि ति इंद्रिय तणे,
चक्षु अचक्षु ओहि केवल चउ मनुजने; (द्वारे १३)-त्रण ज्ञान अज्ञान नरक देव तिर्यंचने.
थावरने मति श्रुत अज्ञान ए बिहुं भणे ॥४॥ विगलेन्द्रियने ज्ञान अज्ञान दुधा भ',
मनुजने ज्ञान पंच अज्ञान ते त्रण गj (द्वार १४)-औदारिक आहारक दुग विणु सुणो,
योग अग्यार नारक देव दंडके भवि मुणो ॥७॥
औदारिक दुग कर्म भू जल वन्हि वण प्रते, वैक्रिय दुग युत पंचयोग वायु मते; औदारिक दुग कर्म चोथो वाग योग ए विगलेन्द्रियने चार योगनो भोग ए तिरिपंचेन्द्रिने आहार दुग विण जाणीए,
पनर योग मनुष्यने भवि मन आणीए; (बार १५)-त्रण ज्ञान अज्ञान दर्शन देव नरक तिरि,
ज्ञान अज्ञान दो एक अचक्षु बे तिरिंदरि ॥७॥ ज्ञान अज्ञान दर्शन दोय ए छ चरिदिने, मइ सु अज्ञान अचक्षु थावर एकदिने
१५ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपयवज्ञान, केवलज्ञान. ए पांच ज्ञान तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान ए त्रण अज्ञान छे, १६ सत्यमन, असत्यमन, मिश्रमन, व्यवहार (असत्यामृषा) मन, सत्यवचन, असत्यवचन, मिश्रवचन, व्यवहारवचन,ए चार मनना अने चार वचनना मली आठ योग, तथा औदारिकयोग, औदा० मिश्रयोग, वैक्रिय,वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र, तैजसकामग, ए सात काययोग मळी १५ योग छे, १७ ५ज्ञान, ३ अज्ञान, ४दर्शन ए १२ उपयोग छे,