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|| दंडकस्तवनम् ॥
बार उपयोग मनुष्यने लहिए इम सुणो, नाण अन्नाण दर्शन पण तिच क्रम थुणो ॥८॥
(द्वोर १६ - १७ - नारक देव तिच पंचेन्द्रि विगल तथा, उपपात चवन कहुं भवि भगवति कहे यथा; एक वे त्रण जघन्यथी संख्य असंख्याता, 'उत्कृष्टा उपपात वचन समे विख्याता एक समे असंख्याता थावर प्राणिया, उपजे चवे अनंत। साधारण जाणिया; एक आदि देइ जात्र संख्य मनुष्य लहो, समुर्छिम नरमहि असंख्याता सदहो
॥ ढाळ ३ जी.
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॥९॥
॥१०॥
हवे कुमर इस्युं मन चितवे, ए राग. (द्वारं १८ ) - रत्नप्रभार जघन्यथी, दस सहस वरसना आयोरे; सागर एक उत्कृष्टो लहो, बीजे ऋण सागर थायोरे.
जिनवर भारखे इम वयणडां ॥ १ ॥
वालुप्रभा नरके सातनुं पंके दश सत्तर ते घूमे रे कधी बावीश तम नरकमां, सागर तेत्रिश तमतमेरे. जि० ॥२॥ आदि उत्कृष्टी जे कही, उत्तरनी तेह जघन्यरे:
१८ अमुक दंडकमां एक समये केला जीवो जघन्यथी या उत्कृष्टथी उपजे ! एम कहेतुं ते उपपातद्वार अने अमुक दंडकन एक समयमां केउला जीवो जव० थी वा उत्कृ थी मरण पामे एन कहेतुं ते च्यवनद्वार, १९ करा दंडके कंटलु जघन्य आयुष्य अने उत्कृष्ट आयुष्य होय एम कहेवुं ते आयुष्यद्वार,