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॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
स्पष्ट मिथ्यात्व छे ते अव्यक्तमिथ्या०, अथवा अनाभोगमिध्या०५ ए प्रमाणे मिथ्यात्व - ( मिथ्यादृष्टिपणुं ) पांच प्रकारनुं छे. १३ मिश्र - जे पदार्थ जोयो- सांभळयो- के अनुभव्यो नथी ते पदार्थ उपर रुचि के अरुचि भाव न होय तेम सर्वज्ञोक्त तत्वपर जे रुचि अने अरुचि बन्ने न होय ते मिश्रदृष्टिपणुं ? ज प्रकारतुं छे. आ मिश्र० फक्त अन्तर्मु०ज रहे छे, त्यारबाद. जीव मिथ्यात्वे वा सम्यक्त्वे जाय छे. ॥ इति दशमं दृष्टिद्वारम् ॥ १० ॥
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॥ ११ दर्शनद्वारम् ॥
दर्शन एटले सामान्य उपयोग अर्थात् घटादि पदार्थनो "आ कां के " एवो प्रथम जे सामान्यबोध थाय ते दर्शन, चक्षुअचक्षु अवधि - ने केवळ एम ४ प्रकारनुं छे ते आ प्रमाणे
९ चक्षु इन्द्रियद्वारा देखेला पदार्थनो जे सामान्य बोध ते चक्षुदर्शन.
२ चक्षु इन्द्रिय सिवाय शेष ४ इन्द्रिय अने मनथी थतो सामान्यबोध ते अचक्षुदर्शन, अथवा इन्द्रिय अने मन विना पण जीवनी जे दर्शनलब्धि छे ते पण अचक्षुदर्शन, ( आ बीजो अर्थ ग्रन्थोमां के सिद्धान्तमां स्पष्ट उपलब्ध नथी परन्तु जीवने पूर्वभ
मांथी आतां मार्गमा अने अपर्याप्तावस्थामां इन्द्रिय-मन विना पण उक्त प्रकारनं अचक्षु दर्शन गणेलुं छे, माटे अहिं तेवा प्रकारनो बीजो अर्थ पण लख्यो छे. ).
ते संशय न कहेवाय, कारणके तर्क, तथा संशय, शंका ए बे भिन्न छे तर्क जिज्ञासारूप ले, अने संशय ते अविश्वासरूप छे.