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________________ (९४) ॥ दंडकविसरार्थः॥ - १३ योग तो ग. तियेचवत् 'जाणवा अने शेष वे योग आ प्र. माणे-आहारक शरीर रचनार चौद पूर्वधर मुनिने सिद्धान्तकारने मते रवनाना प्रारंभे अने अन्ते अने कर्मग्रन्थकारने मते प्रारंभमांतो औदारिक मिश्र मान्यो छे पण अन्ते एटले के आहारक श. रीर छोडती वखते आहा. मिश्र, अने आहारक शरीरपर्याप्ति पूर्णथया बाद अथवा ६ पर्याप्ति पूर्ण, थया बाद आहा० योग हो. य ए प्रमाणे अनेक जीव आश्रयि मनुष्यने १५ योग कहा, विगले चउ-विकलेन्द्रियोने ४ योग होय ते आ प्रमाणेपूर्वभवथी ओवतां मार्गमां अने उत्पत्तिना प्रथम समये ते०का०, उत्पत्तिना बीजा समयथी शरीरापर्याप्तावस्था अथवा अपर्याप्ता. वस्था सुधी ओदा मिश्र, अने पर्याप्तावस्थामां आखो भवपर्य स ओदा. अने व्यवहार वचनयोग ए वे योग छे ए प्रमाणे विकलेन्द्रियना ४ योग. पण वाए--वायुकायने ५ योग छे तेमां तै० का०-औदा० -ने औदा०मिश्र ए ३ योग विकलेन्द्रियवत् जाणवा अने वै.. मिश्र तथा वै०काययोग गर्भनतिर्यंचवत जाणवा, वायुकायने व. धनयोग होय नहि. जोगतिगं थावरे होइ-वायुकाय सिवायना ४ स्थावरीने तैका०-औदा. मिश्र-अने औदा० ए ३ योग छे ते विषलेन्द्रियवत् जाणवा. ____ अहिं तै० का० काययोग जो के पर्याप्त अवस्थामां पण होय छतां भवधारणीय शरीरनी मुख्यता होवाथी भवधारणीय शरीर १ परन्तु विशेष ए छे के.-श्री सर्वज्ञने समुद्रात समये आठ समयमां वीजे छठे ने सातमे समये औदा. मिश्र तथा पीजे चोथे ने पांचमे समये काभण योग होय छे,
SR No.022358
Book TitleDandak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajasarmuni, Vijayodaysuri
PublisherGranth Prakashak Sabha
Publication Year1925
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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