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॥ दंडकेषु दर्शनद्वारवर्णनम् ॥ (९३ ) ४ पनना-४वचनना--ने १ वैक्रियकाययोग एम ९ योग होय ए प्रमाणे सामान्यपणे ११ योग जेम 'देवमां कह्या तेम नारकमां पण विचारवा.
तिरिएसु तेर--ग तिर्यंचने पूवोक्त ११ मां औदा०मिश्र अने औदा० मेळवतां १३ योग थाय ते आ प्रमाणे
मार्गमां आवताने अने उत्पत्तिना प्रथम समये तै०, का०, उत्पत्तिना द्वितीय समयथी शरीरापर्याप्तपणा सुधी अथवा अपर्या प्तपणा सुधी ओदा० मिश्र०, शरीर पर्याप्तने अथवा पर्याप्तने
औदार, पर्याप्तने ४ मनना ने ४ वचनना, कोइक वै० लब्धिवंत तिर्यंच वैक्रिय रचना करे तो रचनाना प्रारंभमां ने अन्ते वै० मिश्र, अने वै० शरीर संबंधि शरीर पर्याप्ति वा सर्वपर्याप्ति समाप्त थया बाद वैक्रिय काययोग ए प्रमाणे १३ योग होय अहीं वैक्रिय रचनाना प्रारंभमा जे वैक्रिय मिश्रयोग कह्यो छे. ते सिद्धान्तकारना मते जाणवू अने कर्मग्रन्थकारने मते प्रारंभमांतो औदा०मिश्र मान्योछे पण अन्ते एटलेके वैक्रियशरीर छोडती वखतेज वैक्रियमिश्रयोग मान्यो छे. तिथंचमां जे तिर्यंचो पोपट विगेरे स्पष्ट भाषा बोली शके तेश्रोने वचनना चारे योग छे, अने अस्पष्ट भाषा बोलनार तियचो पण मनसंज्ञा पूर्वक सत्यादिक सूचवता होवाथी अस्पष्ट भाषकोने पण ४ भाषायोग मानी शकाय, अन्यथा तो सम्मू० तिर्यचवत् १ व्यव० वचनयोग होय,
पन्नर मणुएसु-गर्भज मनुष्योने १५ योग होय. तेमां
१ नव ग्रैवेयक देवोने उत्तर वैक्रिय संबंधि वै मिश्र-ने वै० काययोग न होय, अने अनुत्तर वासी देवोने शब्दोच्चारना अभावे प्रवृत्ति रूप वचनयोग पण न होय.