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________________ (९२) ॥ दंडकविस्तरार्थः ॥ - - ॥ संस्कृतानुवादः॥ एकादश सुरनैरयिकयोस्तियक्षु त्रयोदश पंचदश मनुजेषु विकलेषु चत्वारि पंच वायुषु, योगत्रिकं स्थावरे भवति २२ ॥ शब्दार्थः ॥ इक्कारस-अगीआर, विगले-विकलेन्द्रियोने, सुर-देवने चउ-४ योगः निरए-नारकने, पण-५ योग, तिरिएम-तिर्यचोने वाए-वायुकायने, तेर-१३ योग, जोग-योगः पनर-१५ योग, तिगं-त्रण: मणुएसु-मनुष्योने; थावरे-स्थावरने, गाथार्थः-देव अने नारकने ११ योग, तिर्यंचने १३ योग मनुष्यने १५ योग, विकलेन्द्रियने ४ योग, वायुने ५ योग, अने स्थावरने ३ योग छे, - विस्तरार्थः--इकारस सुरनिरए-देव अने नारकने ११ योग होय ते आ प्रमाणे पूर्वभवमांथो आवता देवने मार्गमां तथा उत्पत्तिना प्रथम स. मये तैजस कार्मण योग, उत्पत्ति स्थान प्राप्त थयेला देवने द्वितीय समयथा अन्तर्मुः सुधी शरीरपर्याप्ति समाप्त थाय त्यां सुधी अथवा बीजे मते अपर्याप्त अवस्था सुधी तैजस कार्मण सहित वै० काययोग होवाथी वैक्रिय मिश्रकाय योग, अथवा उत्तरवैक्रिय रचनार देवने रचनाना प्रारंभमां अने अन्ते वै० मिश्रकाययोग, तदनंतर शरीरपर्याप्ति समाप्त थया बाद अथवा पर्याप्त थया बाद
SR No.022358
Book TitleDandak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajasarmuni, Vijayodaysuri
PublisherGranth Prakashak Sabha
Publication Year1925
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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