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॥ उत्तरवैक्रियकालवर्णनम् ॥ (-७५) ल्प कषाय छे, पुनः अनुत्तरविमानवासी देवो अति वैराग्यवान, देवलोकने केदखाना तुल्य समजी मनुष्यमा आवी मोक्ष जवानी आकांक्षा वाळा, अने सदाकाळ द्रव्यानुयोगना चितवनमा अनुरक्त छे, तथा अति मंदकषायी छे, तथा गर्भज तिर्यंचोने तो कषाय प्रत्यक्ष देखीए छोए, तथा गर्भज मनुष्योमां वीतराग सिवायना सर्वे कषायवाला छे, परन्तु युगलिक तिर्यंचो बहु अल्प कषायवाला छे, तथा उत्तरोत्तर गुणद्धिने प्राप्त थयेला एवा अवीतरागी मुनिमहात्माओ पण अल्पकषायवाळा छे. युगलिक तिर्यचोमां सिंहादि हिंसक प्राणीमी पण अति दयाई चित्तथी मृगनां बच्चांनी साथे वात्सल्य भाववाला छे, पोतानां मात पिता साथे पण अल्प राग धारण करनार छे तो युगलिक मनुष्योनी तो वातज शी? तथा स्थावरो अने विकलेन्द्रियो पण अस्पष्ट अथवा स्पष्ट कषायवाला छे. तेमज सम्मू० नियेच अने सम्मू० मनुष्यो पण चारे कषायवाला छे. ॥ इति कषायद्वारम् ॥
लेसछगं गभतिरियमणुएसु-गर्भजतिर्यच अने मनुष्य ए बे दंडकमां ६ ए लेश्या होय छे, त्यां एक ति० वा मनु० ने अन्तर्मुः ' सुधी एकन लेश्या होय पण एक जीवने समकाळे वे लेश्या न होय, तथा मनुष्यमां अप्रमत्तने ३ शुभ लेश्या, अने श्रेणिगततथा सर्वज्ञने केवळ शुक्ल लेश्या छे.
नारय तेऊवाऊ विगला वेमागिय तिलेसा- नारक-अग्नि-वायु-विकले०-वैमानिक-मां त्रण लेश्या छे एम सामान्यथी कह्यु अने विशेषतः आ प्रमाणे
१ सर्वज्ञने शुक्ल लेश्या दे गुण पूर्वनोड वर्ष सुधी हीय छे माटे ते सिवायना शेष काळमां सर्च-तिर्यंच मनुष्योने मा. टे एज नियम छे.