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॥ वनद्वारपर्णन ॥ (4) ____ अवतरण-आ गाथामां सर्वे दंडके दर्शनद्वार कहे छ.
..... ॥ मूळगाथा १९ मी ॥ । थावरबितिसु अचरकू, चउरिं दिसु तदुर्गसुए भणियं मणुआ चउदंसणिणो, सेसेसु तिगं तिगंभणियं ॥१९॥
॥ संस्कृतानुवादः ॥ स्थावरदित्रिष्वचक्षुश्चतुरिन्द्रियेषु तद्धिकं श्रुते भणितं । मनुजाश्चतुर्दशनिनः, शेषेषु त्रिकं त्रिकं भणितं ॥ १९॥
॥शब्दार्थः ॥ थावर-स्थावरजीवोने भणियं-कहेल छे, वि-दीन्द्रियने
मणुओ-मनुष्यो तिम्-त्रीन्द्रियने
चउदंसगिणो-४ दर्शनवाला अचरकू-अचक्षुदर्शन
सेसेसु-बाकीना दंडके चरिंदिसु-चतुरिन्द्रियने
तिग तिगं-त्रण त्रण तदुग-ते वे (-बे दर्शन) भणियं-कयुं छे, सुए-सिद्धान्तमां
गाथार्थः-स्थावर-द्वीन्द्रियने त्रीन्द्रियने अचक्षुदर्शन अने चतुरिन्द्रि यने बे दर्शन (चक्षु सहित) श्रुतने विषे कह्यां छ' मनुष्यो ४ दर्शनवाला छे, अने बाकीना दंडकोमा त्रण त्रण दर्शन कयां छे,
विस्तरार्थः-थावर वितिसु अचस्कू-स्थावरना ५ दंडक तथा द्वीन्द्रिय ने त्रीन्द्रिय ए ७ दंडकमां अचक्षुदर्शन छ, त्यां अचक्षुदर्शन स्पर्शेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-श्रोत्रंन्द्रियने मन संबंधी एम ५ प्रकारनु छ, तेमज इन्द्रिय अने मन सिवाय स्वाभाविक लब्धिरूप दर्शनगुणने पण अचक्षुदर्शन मानतां ६ प्रकारनु' पण अचक्षुदर्शन गणाय, मां पूर्वभवमांथी आवता