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॥ दंडकविस्तरार्थः ॥
कहेवाय छे.-जीवो परभवमा जतां वे प्रकारनी गति करे छे, त्यां रमण समुद्घातपूर्वक उपजनार जीवनी इलिकागति होय छे, कारणके येळ जेम शरीरना अग्रभागने आगळ फेंकया बाद शरीरना पश्चात् भागने उपाडी आगळ फेंके छे, तेम मरण समुद्घातने प्राप्त थयेलो जीव उत्पत्ति स्थाने आत्मप्रदेशो फेंकथा बाद अन्तर्मु० काळे पूर्वभवसंबंधि शरीरमांथी आत्मप्रदेशो संकोची लइ उत्पत्ति स्थाने लावी मूके छे, आ इलिकागति वा मरणसमुद्घात ऋजुगतिए अने वक्रगतिए पण होय छे, त्यां जीवनुं उत्पत्तिक्षेत्र समश्रेणिए होय त्यारे ऋजुगति थाय छे, अने विषम अणिए होय त्यारे वक्रगति थाय छ, तथा दडो अथवा तोपमांथी छूटेलो गोलो जेम सर्वपिंडात्मकरूपे चाल्यो जाय छे तेम शरीरमांथी छुटेलो आत्मा पिंडितरूपे-(दीर्घ श्रेणिरूपे नहिं ) परभवमा चाल्यो नाय ते कंदुक-(दडासरखी) गति कहेवाय. आ कंदुक गति प्रायः ऋजुगतिमां संभवे छे. ने वक्रगतिमां होय छे के नहि ते श्री बहुश्रुतथी जाणवू.
तथा मस्तक भागमांथी निकळेलो आत्मा देवलोकमां जाय, उदरथी निकळेलो आत्मा मनुष्यगतिमां जाय, पगथी निकळेलो आत्मा नरकगतिमां जाय, अने सर्वांगथी निकळेलो आत्मा मोक्षे जाय.
॥ २४ वेदहारम् ॥ वेद एटले नोकषायमोहनीयकर्मना उदयथी उत्पन्न थयेल विषयाभिलाष ते पुरुषवेदादि भेदे ३ प्रकारनो छे. त्यां पुरुषको ( स्त्रीप्रत्ये) विषयाभिलाष ते पुरुषवेद, स्त्रीनो (पुरुषप्रत्ये ) जे विषयाभिलाष ते स्त्रीवेद, तथा नपुंस कनो ( स्त्री ने पुरुष उभय प्रत्ये ) विषयाभिलाष ते नपुंसक वेद कहेवाय. एमां पुरुष पणु