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॥ दंडकविस्तरार्थः ।
ना १० दंडकनी संख्या राखी अने सम्म० तिर्यंच तथा सम्मू० मनुष्यने कंइक वस्वत. तिर्यंच-तथा मनुष्यना दंडकमां अंतर्गत करेल छे. छतां दरेक द्वार वर्णन प्रसंगे हुए बन्ने भेदमां पण स्पष्ट समजाय तेवी रीते जुदो द्वारावतार करीझ.
तथा जेने विषे जीव स्वकृतकर्मनो दंड पामे ते 'दंडक कहे
१ एकार्थक सरखो पाठ जेनी अंदर आवे ते दंडक कहेवाय छे. जेम ' उख, नख, णख, वख, मख इत्यादि गती' ए दंडक धातु कहेवाय छे. तेम प्रायः साते नरकमां सरखा पाठ आळावा : नेरइया ' शब्दे करी सिद्धान्तोमा घणुं करी देखाय छे. माटे ते एक दण्डक जाणवो अने दश भुवनपतिओमां घणुं करी । असुरकुमारा ''जाव थणियकुमारा' इत्यादि शब्दो बडे अलंग अलग आलावाओ सूचव्या छे. माटे ते दशदण्डको समजाय छे. तेज रीते एकेन्द्रियना अधिकारमा घणे भागे 'पुढविकाइया ' इत्यादि शब्दो बडे अलग अलग आलावाओ आवे छे. माटे तेना पांच दण्डको अलग जणाय छे. धळी गुरुसम्प्रदायथी ए पण एक हेतु समजाय छे जे रत्नप्रभा तथा शर्फराप्रभानी वच्चे तेना आधार भूत घनोदधि-घनवात-तनुवात आकाशनुं अन्तर छे पण असुरकुमार अने नागकुमारनी वच्चे जेम नरकना पाथडानुं अने नारकी जीवोनुं अन्तर छ तेवू कोइ अन्तर नथो तेवीज रीते साते नरकमां पण एक बीजानी वच्चे बीजु कांइ अन्तर नथी माटे ते साते नारकीना जीवो अव्य. वहित गणाय छे. जेथी तेओनो एक दण्डक छे. अने भुवनप. तिमां एक बीजानी बच्चे नरकना पाथडानुं अन्तर होवाथी दरेकना अलग अलग मळी दश दण्डको जाणवा, आज कार
थी व्यन्तरोना अनेक प्रकारो होवा छतां पण तेमां एक बी. जाने अन्तर नही होवाथी एकज दण्डक छे. तेमज वैमानिको. ना कल्प-कल्पातीत-लोकान्तिक-किल्बिषिक इत्यादि अनेक भेदो होवा छतां पण अन्तरनो अभाव होवाथी ते वैमानिक एकज दंडक कहेबाय छे. ( सू. च. से. उ. ग.)