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॥ उपयोगद्वारवर्णनम्.॥
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माटे ज्ञान पांच अने अज्ञान ३ छ, र प्रमाणे ५ ज्ञान-३ अज्ञानने ४ दर्शन मलीने १२ उपयोग छे, तेमां अवधिद्विक-मनः पर्यव -विभंग-ने केवळदिक ए ६ उपयोगमा आत्मा इन्द्रिय अने मननी सहाय बिना स्वतंत्र रीते प्रवर्ते छे, माटे प्रत्यक्ष अथवा साक्षात् उपयोग ६ छे. अहिं प्रत्यक्षमा प्रति-समीपे अने अक्ष-जीव ए. वो अर्थ होवाथी प्रत्यक्ष एटले आत्मसाक्षात् कहेवाय छे, अने. आत्मसाक्षात् नहिं ते परोक्ष उपयोग मति २-श्रुत २-चक्षुद०अचक्षुद० ए प्रमाणे ६ प्रकारे छे. ए ६ उपयोगमा आत्माने इन्द्रिय अने मननी सहाय अवश्य लेवी पडे छे अने इन्द्रियोद्वारा ज जाणी देखी शके छे, माटे ए ६ उपयोग आत्माने साक्षात् भावे नथी. जेम निरोग चक्षुवाळो पुरुष घटादि पदार्थने प्रगट रीते अन्य साधननी सहाय विना देखी शके छे, अने हीनतेजचक्षुवालो पुरुष चस्मा विगेरे अन्य साधनथी घटादि पदार्थ देखी शके छे तेम आत्मा इन्द्रियी अने मननी सहायथी देखी जाणी शके तो ते उपयोग परोक्ष उपयोग कहेवाय, अने इन्द्रियमननी सहाय विना स्वतंत्र देखी जाणी शेके तो ते उपयोग प्रत्यक्ष उपयोग कहेवाय. ए वास्तविक रीत कही, पण व्यवहार रूढीमां तो इन्द्रियोथी अनुभवेल घटादि स्वरूपने प्रत्यक्ष ज्ञान-( उपयोग ) कहे छे, अने अनुमानादिप्रमाणथी निर्णय करेला स्वरूपने फक्त मनोविषयिक ज्ञानने परोक्षज्ञान कहे छे, ए व्यवहार (प्रत्यक्षने) पण शास्त्रमा व्यवहारप्रत्यक्षना नामथी स्वीकारेल छे. अने अनुमानादि तो बन्ने रीते परोक्ष ज छे. अहिं १२ उपयोगर्नु स्वरूप प्रथम दर्शनद्वारमा ज्ञानद्वारमां कहेवाइ गयुं छे, माटे पुनः कहेवाशे नहिं. ॥ इति पञ्चदशमुपयोगद्वारम्. ॥ १६ ॥