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(४०) ॥ दंडकविस्तरार्थः ।। थी योग प्रवृत्तिमां ते वखते ए बे शरीरज आलंबन रूप छे, माटे ए काययांगतो ते वखते संभवे छे, अने ते योग कइ जातनों व्यापार करे छे ? ते संबन्धमां तो एज समजाय छे के कामण शरीर ना आलंबनथी आत्मा स्वप्रदेशोनी विचलतामा वर्ते छे, अने ते विचलता वडे कर्मप्रदेशोनुं ग्रहण करे छे, अथवा ते बे शरीरना
आलंबन वडे ज ते वखते मंथनकरण--अन्तरपूर्ति--अन्तर संहरणे रूप व्यापार करे छे. ॥ इति चतुर्दशं योगद्वारम् ॥ १४ ॥
॥ १५ उपयोगहारम.॥
उप एटले समीपमां युज्यते-जोडाय ते उपयोग, अर्थात् विषयदेशमा प्राप्त थयेला पदार्थोनी परिछित्तिमां (-वस्तु स्वरूपावलोकनमां ) जोडाय एवो आत्मानो गुण ते उपयोग. ते वे प्रकारनो छे, सामान्य उपयोग एटले दर्शन, अने विशेष उपयोग ते ज्ञान. त्यां दर्शनोपयोग चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन- अवधिदर्शनने केवळदर्शन एम ४ प्रकारे छे, तथा ज्ञानोपयोग पण बे प्रकारे छ. यथार्थ ज्ञानोपयोग अने अयथार्थ ज्ञानोपयोग. त्यां यथार्थज्ञानोपयोगनी पूर्वर्षिओए ज्ञान एवी संज्ञा राखी छे, अने अयथाथं ज्ञानोपयोगनी अज्ञान एवी संज्ञा राखी छे. त्यां ज्ञानना ५ प्रकार मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधिज्ञान-मनःपर्यवज्ञान-ने केवळज्ञान ए प्रमाणे छे, अने मतिअज्ञान-श्रुतअज्ञान-ने विभंमज्ञान (-व. स्तुतः अवधिअज्ञान ) ए प्रमाणे अज्ञान ३ प्रकारे छे, मनःपर्यव ज्ञान सम्यग्दृष्टिनेज (मुनिने ज) होय छे माटे मनः पर्यव अज्ञान होतुं नथी, अने केवळ ज्ञानीने तो अज्ञान न होय ए स्वभाविक जछे.
थ
तिज्ञान-
तिअज्ञान OM ३ प्रकार