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________________ (१४६) ॥ दंडकविस्तरार्थः॥ - ९५ छद्मस्थ . ९६ सयोगि ९७ संसारीजीव ९८ सर्वजीव अवतरण-आ दंडकरूप स्तुति करवानुं फळ ग्रंथकार श्री जिनेश्वरोनी पासे मागे छे. संपइ तुम्ह भत्तस्स, दंडगपयभमणभग्गहिययस्स दंडतियविरयसुलह, लह मम दितु मुक्खपय॥४३॥ । संस्कृतानुवादः ॥ संप्रति तव भक्तस्य, दंडकपदभ्रमणभग्नहृदयस्य । दंडत्रिकविरतसुलभ, लघु मम ददतु मोक्षपदम् ॥४३॥ ॥ शब्दार्थः ॥ संपइ-हमणां-हवे दंडतिय ३ दंड (मन-वचनतुम्ह-आपना कायाना अशुभव्यपार भत्तस्स-भक्तनुं विरस्स-विरतिवडे [त्यागवडे] दंडगपय-दंडकस्थानमा सुलभं-सहजे प्राप्तथनार भमण-भ्रमणकरवाथी लघु-शीघ्र भग्ग-भग्न-उदासीन मम-मने हिययस्स-हृदयवाळा (नु) दितु-आपो मनवाला सुक्खपयं-मोक्षपद गाथार्थ:-( ए सर्व भावो अनंतवार प्राप्त कर्या छे. ) हवे दंडकस्थानोमां भ्रमण करवाथी उदासीन मनवाला आपना भक्तने ( मने गजसारमुनिने ) त्रण दंडना त्याग करवायीं सहजे प्राप्त थनार एबुं मोक्ष पद शीघ्र आपो.
SR No.022358
Book TitleDandak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajasarmuni, Vijayodaysuri
PublisherGranth Prakashak Sabha
Publication Year1925
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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